Thursday, August 17, 2023

हठी से पाला



सुबह के 4:30 का अलार्म जगाने को बोला,
कोई फुसफुसाया-ज्यों ही आँखों को खोला,

अरे रुको!
सभी सोए हैं तुम भी तो थोड़ा सा और सो लो,
मीठे से सपनों में अभी ज़रा सा और खो लो,

मैंने कहा - 
तुम कौन? और भला क्यों रोक रहे हो मुझको,
मैंने तो ये अधिकार कभी नहीं दिया किसीको,
उसने कहा-अरे भाई! मैं तो वक्त हूँ तुम्हारा,
रिश्ता तो जन्म से ही जुड़ा है तुम्हारा-हमारा,
ग़र मेरी नहीं तो फिर,किसकी बात सुनोगी ?
अरे!और कितना दौड़ना है,कभी तो रुकोगी?

मैंने कहा-भला तुम्हारे इशारे पे मैं क्यों नाचूँ ?
तुम मेरे हितैषी हो,ऐसा कैसे और क्यों सोचूँ ?
मुझको क्या अब,तुम ही दिखाओगे हर रास्ता?
भला क्यों?तुम्हारी बात से रखूं कोई मैं वास्ता?
अपनी शर्तों पर मैंने,अपने दिन-रात बिताए हैं ,
तेज आँधियों में भी,हठ पूर्वक दीपक जलाए हैं।

बात सुनो मेरी !
तुम यूँ फुसला के,मुझे निर्बल बनाना चाहते हो?
मनोबल झुका के मेरा,हार मनवाना चाहते हो?
नित बिना रुके,कसती हूँ अपने इस शरीर को,
थकने नहीं देती,अपनी अंतरात्मा के ज़मीर को,
टहलना,साईकिल,हँसना,दोस्त और नृत्य सब,
फिर बताओ कैसे और,क्यों मौक़ा दूँ तुम्हें अब,

मेरा पूरा परिवार,मेरे इर्दगिर्द लिपटा है मुझसे,
ग़र मुझ बिन हताश हुआ,तो भला चलेगा कैसे?
उम्मीद हूँ सबकी,घर की भोजन-भरी थाली हूँ,
ओतप्रोत हूँ भावों से,नेह की शरबती प्याली हूँ,
नन्ही पोती है मेरी,उसे बढ़ते देखना चाहती हूँ,
डोर हूँ रिश्तों की,सबको चौखट से बांधती हूँ।

मुझे ही सम्हालना है,यही सोच मुझे जगाती है,
मेरे जीने के महत्त्व का,एहसास मुझे कराती है,
अब तक जो भी पाया,सुख-दुःख,धोखा-विश्वास,
अपनों को पाना-खोना,प्यार की अतृप्त प्यास,
तुम्हें बखूबी जानती हूँ,तो कैसे सच्चा मान लूँ?
और तुम जो कहो,वही राह है सही,स्वीकार लूँ?

इकसठ की हो गई हूँ,अभी उत्साह है मुझमें,
मुझे बातों से फुसला ले,ऐसा दम नहीं किसीमें,
तुम सोचोगे-कैसी अजीब हठी से पाला है पड़ा,
समय की न सुनने वाला,अपनी जिद्द पे है अड़ा,
तुमसे जीती तो,अपनी शर्त पे ज़िंदगी जी लूंगी,
गर! हारी तो,तुम्हारे कहे अनुसार ही ढल लूंगी।

वक्त हंसा,बोला तुम अपनी धुन की पक्की हो,
किसी की नहीं सुनती,अजीब,बड़ी झक्की हो,
कैसे कहूँ के ऐसे लोगों से तो मैं सदा ही हारा हूँ,
तुमसे लम्बा संग-साथ रखूंगा,मैं अब तुम्हारा हूँ,
अच्छा!अब उठती हूँ,एक कड़क चाय बनाती हूँ,
सुबह जाग के,अपने दिन को सुनहरा बनाती हूँ।

                                                  - जयश्री वर्मा 


 
   

Sunday, June 4, 2023

किससे शर्म है ?



यहीं रोक दो गलतफहमियाँ,इन्हें आगे न बढ़ाओ, 
शिकवों की ईंट चुन-चुन के,ऐसे दीवार न बनाओ, 
न बीनो,बीते हुए वक्त के,बातों के बिखरे ठीकरे, 
के हँसते हुए लम्हों में,आँखों के आंसू न गिनाओ। 

वापस न होगा लौटा हुआ लम्हा,जो गुज़र चुका, 
जीत उसी की हुई,जो प्रेम के आगे है जा झुका,   
कह दो कि जो हुआ,उसे जाने भी दो न अब यार,    
बहुत हंसा है ज़माना,कहता था-और करो प्यार।  

कुछ तुम भुला देना ख़ताएँ,कुछ हम भी भुलाएंगे ,
रिश्ते की टूटती साँसों में,नए प्राणों को बसाएंगे ,
जब लड़ने में न थी झिझक,तो मिलने में कैसी है?
ये किसकी है परवाह तुम्हें,और किससे शर्म है?

बेगाने होके इक दूजे से,हम आधे-अधूरे से रहे है, 
तुम भी तो हारे हुए से,और हम भी तो,मरते रहे हैं, 
आज जब हो सामने,तो अनजाना सा न जताओ,
वक्त से कैसे हार जाएं हम,अब तुम ही बताओ?

कभी अच्छा बिताया था वक्त,उसी वक्त के सहारे, 
कुछ तो रहे थे ईमानदार लम्हे,हमारे और तुम्हारे,
उन्हीं जज़्बातों का वास्ता तुम्हें,के हम-तुम न मुड़ेंगे, 
हार जाएंगे ज़माने से,गर उसी मोड़ पर खड़े रहेंगे।    

                                                       - जयश्री वर्मा    

Monday, August 29, 2022

दोनों हथेलियाँ



मेरी दोनों हथेलियाँ अभ्यस्त हैं काम करने की,
ये सुबह से ही काम में जुट जाती हैं,
ये बनाने लगती हैं चाय तुम्हारे लिए,
फैला बिस्तर सहेजती हैं,सलीके के लिए,
फिर सब्ज़ी कोई भी हो,काट,छौंक देती हैं,
रोटी,पराँठा,पूरी सब बेल लेती हैं, 
मुन्नू और तुम्हारा टिफ़िन जो देना है,
फिर झाड़ू,पोंछा,बर्तन,कपड़े धुलना है,
नहाना है और फिर बाज़ार जाना है,
आख़िर शाम को भी तो कुछ खाना है,
बहुत मन करता है इनका कि ये फ़ुरसत से-
आपस में जुड़,ठुड्डी के नीचे लग आराम से बैठें, 
पर अब मुन्नू के होमवर्क का वक़्त है,
आँगन में अम्मा का भी तो तख़्त है,
उनकी देखभाल को भी तो दोनों हथेलियाँ बंधी हैं,
चूक नहीं होती इनसे,इस कदर ये सधी हैं,
शाम तुम्हारे आने पर दरवाज़े की कुंडी खोलेंगी,
और आगे बढ़कर तुमसे हेलमेट और बैग ले लेंगी,
फिर रसोई में जादूगरी दिखाएँगी, 
और सबकी इच्छा का बनाएँगी,पकाएँगी, 
रात सारे काम निपटा,तुम्हारे चेहरे को हाथों में ले,
गृहस्थ जीवन का तक़ाज़ा है,तुम्हें प्यार भी तो करेंगी,
स्वाभाविक है काम की थकान से ये थकेंगी,
और जब कभी तुम,विरक्त भाव से देखोगे,
और जब कभी,मुझपर ध्यान भी नहीं दोगे,
क्यों कि,मुझे काम करते देखना तुम्हारी आदत है,
आख़िर हर औरत के लिए,मुक़र्रर काम ही उसकी इबादत है,
नेह और सम्मान की अभिलाषा में,
अपने होने के अर्थ की पिपासा में,
मेरी पलकों पे भर आए आंसुओं को भी तो,
ये दोनों हथेलियाँ ही पोंछेंगीं,
और अगले दिन सुबह फिर कामों से जूझेंगीं।

                                                     - जयश्री वर्मा 






Saturday, August 6, 2022

जहाँ रह रही हूँ



जहाँ रह रही हूँ माँ मैं,क्या ये घर मेरा नहीं है?
तो कौन सा है घर मेरा,क्या ये दर मेरा नहीं है?

जन्म दिया है तुमने,और पिता ने दिया है अंश,
पाला-पोसा मुझे भी,क्यों भाई सी नहीं हूँ वंश?
पराई है,कहा परिजनों ने,पर किसी ने न रोका?
पराया कह पाला मुझे,और किसी ने न टोका?

जहाँ रह रही हूँ माँ मैं,क्या ये घर मेरा नहीं है?
तो कौन सा है घर मेरा,क्या ये दर मेरा नहीं है?

ससुराल में छोड़ा मुझे,कई अनजाने सवालों में,
खुद को मिटाना है मुझे,कुछ ऐसे ही ख्यालों में,
मैं हूँ यहां पे,निपट अकेली,मेरी कोई न ढाल है,
साजिश व्यक्तित्व मिटाने की,कैसी ये चाल है?

जहाँ रह रही हूँ माँ मैं,क्या ये घर मेरा नहीं है?
तो कौन सा है घर मेरा,क्या ये दर मेरा नहीं है ?

अंग अपना काटा मैंने,पर वंश उनका बढ़ाया है ,
सुपुत्र मेरा नहीं वो,बस पिता का ही कहलाया है,
पहचानती हैं दीवारें,रसोई के बर्तन भी जानते हैं,
उम्र बिता दी जिस घर में,क्यों अपना न मानते है? 

जहाँ रह रही हूँ माँ मैं,क्या ये घर मेरा नहीं है?
तो कौन सा है घर मेरा,क्या ये दर मेरा नहीं है?

साठ पे वृद्धा हुई हूँ जब मैं,ये मेरे बेटे का घर है,
नया वक्त,नयी सोच,और कुछ नई सी सहर है,
मेरी ज़िन्दगी मेरे ख़्वाबों का,मतलब कुछ नहीं?
क्या मान लूँ अब ये मैं कि,मेरा वज़ूद कुछ नहीं?

जहाँ रह रही हूँ माँ मैं,क्या ये घर मेरा नहीं है?
तो कौन सा है घर मेरा,क्या ये दर मेरा नहीं है?

माँ हँसी,माँ मुस्कुराई,सर पे मेरे हाथ नेहभरा फेरा, 
बोली-नारी ही घर है,ये तो सामाजिकता का चेहरा,
धरणी है नारी,केंद्र सभी रिश्तों,हर घर,कुटुम्ब का,
अघोषित हक़ है उसका,उस बिन हर घर है अधूरा।

                                                       - जयश्री वर्मा 

Wednesday, July 20, 2022

आपके ये दो नैना


ये कहना कुछ चाहें,कुछ और ही कह रहे हैं,
आपके ये दो नैना अब,दगाबाज़ हो चले हैं,
तभी तो सबसे नज़रें मिलाने से कतराते हैं,
ये कुछ-कुछ शातिर,और बेईमान हो चले हैं।

के होठों ने शब्दों की,जादूगरी नई सीखी है, 
आपकी बातें,कुछ रहस्यमई सी हो चली हैं,
बोल कम हैं,अब मुस्कान से काम ज्यादा है,
मुस्कान भी कुछ अलग अंदाज़ हो चली है।

गुनगुनाने,खिलखिलाने का,नया सा अंदाज़ है,
चूड़ियाँ और पायल भी,जालसाज़ हो चलीं हैं, 
खूबसूरतियाँ जैसे,तलाशती हों अपने ही मायने,
ये माथे पर झूलती लट,इक ग़ज़ल हो चली है।

के पलक क्या उठी,ये मौसम बहक सा गया है,
और होंठों पर जैसे,सुर्ख पलाश दहक रहा है,
लौंग का लश्कारा भी तो,हक से दमक रहा है
आप आज के वक्त की,नई पहचान हो चले हैं।
  
यूँ  उठ जाना बीच महफ़िल,चल देना बेख़याल,
के आप जहाँ से गुज़रे,अजब समां बाँध चले हैं,
ज़न्नती फ़रिश्ते भी,नहीं ठहरते हैं,आपके आगे,
आप शायर की,छलकती सी रुबाई हो चले हैं।

के खूबसूर्तियों ने गढ़ी है,शख्सियत ये आपकी,
जैसे बात बेला-ख़ुश्बू,चाँद-तारों भरी रात की,
कलम न लिख सकेगी,ऐसा रूप तिलस्मयी सा,
आप इस कवि की,कल्पना से इतर हो चले हैं।

                                                                      - जयश्री वर्मा  

Wednesday, July 6, 2022

तुम नहीं समझोगे


काश! तुम समझते,इस दिल की ये लगन मेरी ,
रह-रह तुम पे रीझना,और ये मन की अगन मेरी,
जब याद में सुलगना ही,सार्थक सा लगने लगे ,
हर पल कोई इच्छा जगे,बुझे और फिर से जगे।

कुछ यूँ हुआ है कि,मन जैसे हुआ है सूरजमुखी ,
तुम सूरज सरीखे,जिसे निहार होती हूँ मैं सुखी ,
इक अजीब से,अव्यक्त अहसास संग जीती हूँ ,
तुम्हें देखके तुम्हारी छवि को,मैं बूँद-बूँद पीती हूँ।

ऐसा लगने लगा है,मैं हूँ इक नदिया विकल सी ,
तुम सागर सरीखे,मैं तुमसे मिलने को अधीर सी,
अतृप सी दौड़ती,मचलती,छलकती हुई आती हूँ ,
तुम्हारे एहसास संग अपना सार सम्पूर्ण पाती हूँ।

तुम जैसे बन गए हो चाँद,मेरे इस मन आसमां के ,
तुम्हें चकोर बन निहारना,जैसे सुख सारे जहां के ,
हर रोज़ के इंतज़ार में मैं,पल-छिन यूँ बिताती हूँ ,
के तुम्हारी आने की राह पर,मैं पलकें बिछाती हूँ।

क्या समझा है कोई,इस प्रेम का मतलब क्या है ?
जीवों में जान,फूलों में खुश्बू,और ये चाहत क्या है ?
दैहिक न समझो इसे,ये आत्माओं का ही गंतव्य है,
ये ही तो यथार्थ है,ये ही जीवन जीने का मंतव्य है।  

                                                                  - जयश्री वर्मा 



 

Monday, April 18, 2022

नया अफसाना

अजी! शुक्रिया आपका,जो आप मुस्कुराए हैं ,
के आंखों में तमाम सारे,ख्वाब झिलमिलाए हैं,
जी गया हूँ,नई जिंदगी,इन्ही चंद लम्हों में मैं ,
आप मेरे वज़ूद पे जैसे बहार बन के छाए हैं ।

चलिए! न कुबूल करें आप,तो कोई बात नहीं ,
पर नज़रों का उठना-झुकना,भी तो झूठ नहीं ,
ठिठकना नज़रों का मुझ पर,फिर लजा जाना ,
अनजानी डोर से मुझ संग,यूँ बंधते चले जाना ।

पास से मेरे बार-बार,इठला के गुज़र जाना ,
खिलखिलाहटों में रस घोल के,बातें बनाना ,
हम भी सब जानते हैं पर,सब्र किये रहते है ,
के आपके इकरार का,इंतज़ार किये बैठे हैं।

ऐसी तो कोई रात नहीं,जिसका सवेरा न हो ,
प्रेम के सिलसिले में,ख्वाबों का बसेरा न हो,
कि देखो तो शाम,कुछ मीठा सा कह रही है ,
रात भी हौले-हौले से,जज़्बातों में बह रही है।

काश के हम मिलके,अपनी नई दास्तान बनाएं ,
इस महकते से मौसम का,नया गीत गुनगुनाएं ,
और लगन अपने दिल की,इक-दूजे को सुनाएं ,
यूँ वक्त से लम्हे चुरा के,नया अफसाना बनाएं।

                                                        - जयश्री वर्मा

 

Sunday, February 20, 2022

लड़की हो तुम


ज़माना सही नहीं है,ज़रा सम्हल के रहो, 
पर्दा करो,धीरे बोलो,यूँ न मचल के कहो, 
अपनी नज़रों को,जमीन से लपेट के चलो,
बेहतर है,निज परछाइयों को समेट चलो,  
कुछ लोग हैं जो के,नज़रों से बींध देते है।  

के आवाज ऊँची है,ज़रा अदब से बोलो, 
यूँ खिलखिला के नहीं,मुँह दबा के हंसो, 
हर किसी से ऐसे,दोस्ताना क्यों रखना है?
तुम्हें मुकर्रर हदों को,पार क्यों करना है? 
कुछ लोग हैं जो के,लफ़्ज़ों से चीर देते हैं।  

लड़की हो तुम,तो प्यार की चाहत क्यों है? 
के ऐसे बातों को,काटने की आदत क्यों है? 
और तुम्हें क्यों उड़ान भरनी है,आसमान में? 
आख़िर लड़कों की बराबरी,क्यों है ध्यान में? 
कुछ लोग हैं,जोके ज़िंदगी ख़ाक बना देते हैं। 

निज ख्वाहिशों के पंछी,पिंजड़े में क़ैद रखो,
कपड़ों की तहें ओढ़ो,थोड़ा सा सभ्य दिखो,
पढ़ो-लिखो,समाजिकता से,अदावत क्यों है?
यूँ हक़ों की बात करने की,हिमाकत क्यों है?
कुछ लोग हैं,जोके इंसान हैं हम,नकार देते हैं।

बाप,पति,बेटे की निग़हबानी का क्यों है गम,
यूँ ऊँचे-ऊँचे ख़्वाबों की हकदार नहीं हो तुम,  
किसी न किसी की निगरानी में तो रहना होगा, 
शरीर से कमजोर हो तो तुम्हें सहना भी होगा, 
कुछ लोग हैं,जोके ज़िन्दगी गुनाह कर देते हैं। 
 
                                                   - जयश्री वर्मा 

Sunday, December 5, 2021

ज़िन्दगी इक सवाल


ज़िन्दगी क्या है ?

क्या ज़िन्दगी सवाल है ?
शायद ये सवाल है------!
मुझे किसने है भेजा?कहाँ से हूँ मैं आया ?
क्या उद्देश्य है मेरा?ये जन्म क्यूँ है पाया ?
कब तक मैं हूँ यहां?और कहाँ मैं जाऊँगा ?
क्या छूटेगा मुझसे?और क्या मैं पाऊँगा ?
अपना कौन है मेरा?और पराया है कौन ?
किससे बोलूँ मैं?आखिर क्यों रहूँ मैं मौन ?
जिंदगी प्रश्नों से बुना इक जाल है।
हाँ !ज़िन्दगी इक सवाल है !


क्या जिन्दगी खूबसूरत है?
शायद ये ख़ूबसूरत है------

अनन्त ब्रह्माण्ड में विचरती पृथ्वी निराली ,
हर अँधेरी रात्रि उपरान्त सुबह की लाली ,
फूलों संग खेलते हुए ये भँवरे और तितली ,
सप्तरंगी इन्द्रधनुष और चंचल सी मछली ,
मधुर झोंकों संग झूमती बाग की हरियाली,
क्षितिज पे अम्बर से मिले धरती मतवाली।
जिंदगी विधाता की गढ़ी मूरत है।
हाँ !ज़िन्दगी खूबसूरत है !

क्या ज़िन्दगी प्यार है?
शायद ये प्यार है------
रिश्तों का प्यार और सारे बंधनों का सार ,
पाने और चाहने की इक मीठी सी फुहार ,
हौसलों से हासिल इक जीत का उल्लास ,
दुःख,सुख,प्रेम का है ये अनोखा अहसास ,
दोनों हाथों में भरके बहार को समेट लेना ,
कुछ प्यार बांटना कुछ हासिल कर लेना।
जिंदगी प्रेम का अजब व्यापार है।
हाँ !ज़िन्दगी इक प्यार है !

क्या जिन्दगी तलाश है?
शायद ये तलाश है ------
लक्ष्य कोई ढूंढना और फिर पाने की प्यास,
सतत् कोशिशों का इक निरंतर सा प्रयास,
तलाश स्वयं की,जन्म-मृत्यु,लोक-परलोक,
क्या सम्हालूँ,क्या जाने दूँ ,किसको लूँ रोक,
ज़िन्दगी की तलाश में उलझ-उलझ गया मैं,
कभी खुद के अधूरेपन से सुलग सा गया मैं,
जाना-जिंदगी तो बस आती-जाती साँस है।
हाँ! ज़िन्दगी इक तलाश है!

क्या ज़िन्दगी कहानी है?
शायद ये कहानी है ------
अनादि काल से जीते-मरते असंख्य अफ़साने,
इतिहास के संग जो सुने-कहे गए जाने-अंजाने,
हर जीवन आपस में मिलती-जुलती कहानी है,
स्वयं से स्वयं को रचने की ये कथा अंजानी है,
हमारा भूत और भविष्य ही हमारी ज़िंदगानी है,
आज की हमारी कहानी ये,कल होनी पुरानी है,
जिंदगी कुछ अपनी कुछ वक्त की मनमानी है।
हाँ !ज़िन्दगी इक कहानी है !

जिंदगी के सवाल मैं उलझाता-सुलझाता रहा,
जिंदगी की खूबसूरती में खुद को डुबाता रहा,
प्यार पगी गरमाहटों को मैं हृदय में भरता रहा,
कुछ पाने की तलाश अनवरत ही करता रहा,
अपूर्ण,अतृप्त,अनभिज्ञ,क्यों महसूस होता है?
सब कुछ है पास पर,क्यों ये अंतर्मन रोता है?
खूब पढ़ा,परखा फिर भी अजब ये रवानी है,
ज़िंदगी की परिभाषा,उतनी ही अनजानी है।
जिंदगी की परिभाषा-
अब भी उतनी ही अनजानी है।

                                                - जयश्री वर्मा

 

Monday, May 24, 2021

मैं सम्पूर्ण सार लिए

जैसेकि ये,निरंतर भागती सी राहें,दिन-रात चलें ,
सीधे या दाएं-बाएं घूम कर,इक दूजे से जा मिलें ,
या कितनी ही ये दिन-रात दौड़ने की चाहत में रहें ,
पर आखिर में कहीं पे तो,पूर्ण हो रुकना पड़ता है।
 
जैसे कि सारी नदियाँ,लहराती-बलखाती सी ,
सारी धरा को बाहों में,समेट के इठलाती सी ,
कितनी ही ये निर्बाध,निरंकुश,कलकल दौड़ें ,
पर आखिर में तो,सागर में मिलना पड़ता है।
 
ये उन्मुक्त,आवारा,स्वच्छंद से बादल कजरारे ,
इक नन्ही सी स्वाति बूँद का,दम्भ मन में धारे ,
जब ये दम्भ की भटकन,बोझिल बन जाती है,
तो आखिर तो,धरती पे बरसना ही पड़ता है।
 
अपने रूप-यौवन गुमान में,इठलाता ये सावन ,
इसका अमरता का भ्रम भी तो,बस है मनभावन,
जब शरद ऋतु आकरके,दरवाजा खटकाती है,
तो आखिर में तो पतझड़ में,बदलना पड़ता है। 

इस उत्सुक जीवन के रंग भी,अजीब निराले हैं ,
उन्मत्त सी बहती लहरों का तो उत्तर,ये किनारे हैं ,
इन राहों का उद्देश्य तो,बस गंतव्य पे पहुंचाना है,
और सावन का मतलब तो नव जीवन जगना है।
 
बादलों का धर्म है,बरस के,हर जीव को बचा ले ,
सब की धड़कनों को,ये बस,सुगमता से चला ले ,
कितनी ही सदियाँ आईं और,आके चली भी गईं ,
अपने जीवन का अर्थ भी,इससे कुछ अलग नहीं।
 
क्यूँ तन-मन की भटकन में,यूँ बहकते फिरते हो ,
क्यों प्रेम की,मृगमरीचिका में,स्वयं ही घिरते हो ,
आ जाओ के मैं खड़ी हूँ,तुम्हारा ही इंतज़ार किये ,
तुम्हारे अन्तर्मन के,प्रश्नों का सम्पूर्ण सार लिए।
 
                                                                 - जयश्री वर्मा
 
 

 

Monday, April 5, 2021

कह दीजिये


मित्रों ! मेरी यह रचना दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन प्रा० लिमिटेड द्वारा प्रकाशित पत्रिका " मुक्ता " में प्रकाशित हुई है ! आप भी इसे पढ़ें -



जो होंठों तक गर बात आई,तो कह दीजिये,
के जो दिल अपना सा लगे,उसमें रह लीजिए।

न आएगा यूँ ऐसा सन्देश,बार-बार प्यार का,
यौवन की उमंग और,ऐसा मौसम बहार का,
गर जो खिल रहा हो फूल जीवन की डाल पर,
तो झूमने,महकने और बहकने उसे दीजिए।

इन्तजार नहीं करता कोई किसी का उम्र भर,
रस में भीगे हुए पल,छिन,दिन,ये शामो-सहर,
समेट लो ये सब आंचल में,न बिखरने दो इसे,
गर हो अपनेपन का आभास,तो ठहर लीजिये।

नज़र उठ जाती है,और ठहर जाती है किसी पर,
के कुछ और नहीं है,ये संकेत है,कुछ कहता सा,
इन दौड़ते-हाँफते हुए,जीवन के सवालों के लिए,
स्वछंदता को किसी बंधन में,बंध जाने दीजिए।

ये जो नज़ारे हैं,पल रहे हैं,पलकों की छाँव तले,
साकार होने को हैं बेताब से,बस तुम्हारे ही लिए,
कैसी झिझक,कौन सी गुत्थी है,जो सुलझती नहीं,
बीन के ये सारी खुशियाँ,जीवन में भर लीजिये।  

जो होंठों तक गर कोई बात आई,तो कह दीजिये,
जो दिल कोई अपना सा लगे,उसमें रह लीजिए।

                                                                   - जयश्री वर्मा 

Thursday, February 25, 2021

सुखद एहसास


शब्दों का रह-रह कर के,यूँ बातों में बदलना,
यहाँ-वहाँ,दुनिया-जहान की,बातों का कहना,
यूँही शब्द-शब्द चुनना,और बात-बात बुनना,
तुम संग तुममें ढलना,इक सुखद एहसास है।

मंजिलों की राहें हैं,बड़ी ही उलझी-उलझी सी,
के कभी लगें बोझिल,तो कभी लगें सुलझी सी,
कदम-कदम साथ हो,संग गुँथे हाथों में हाथ हो,
तुम संग यूँ ही टहलना,इक सुखद एहसास है।

वर्षा की मधुर रिमझिम,कली-कली का जगना,
फूल-फूल महकना,और यूँ बगिया का सँवारना,
आना-जाना मौसमों का,क्षितिज का ये मिलना,
तुम संग ये सब देखना,इक सुखद एहसास है।

नदियों का मचलना,सागर में जाकर के मिलना,
चाँद-तारों भरी ये रातें,साँझों का थक के ढलना,
आकाश का अनंत प्यार,धरा पे खिलके पलना,
तुम संग ये सब समझना,इक सुखद एहसास है।

पंछियों के लौटते झुण्ड,दीप-बाती की सार्थकता,
साँसों के ये गीत-राग,और जीवन की ये मधुरता,
प्रेम की मिठास से भरा,छलकता सा प्रेम प्याला,
तुम संग यूँ घूँट-घूँट पीना,इक सुखद अहसास है।

असंख्यों की भीड़ बीच,यूँ तुम्हारा मुझसे मिलना,
स्वप्न,प्रेम,ललक,तृप्ति का,अटूट ये बंधन बनना,
उस अदृश्य शक्ति समक्ष,जिसने जहान बनाया है,
तुम संग यूँ नतमस्तक होना,इक सुखद एहसास है।

                                                                - जयश्री वर्मा

Monday, September 7, 2020

ये बातें

बातों की क्या कहिये,बातों का है अनंत-अथाह संसार,
जन्म से मृत्यु तक शब्दों से ही,बंधा है जीने का आधार।

ये बातें तोतली ज़ुबान-मा,पा,डा से,शुरू जो होती हैं तो,
बुढ़ापे की बेचैन,अनमनी बुदबुदाहट पर ही,ठहरती हैं। 

हर किसी के जीवन के,हर पहलू की,पहचान हैं ये बातें,
प्रेममयी,कभी तीखी और कभी चुगलखोर,भी हैं ये बातें।

ये स्कूल में,कालेज में,दफ्तरों में,शिकायत रूप बसती हैं,
यहाँ बस मेहनत और ज़िम्मेदारी की,पहचान हैं ये बातें।

ऑटो में,बस,ट्रेन,पार्कों और,किसी भी टिकट विंडो पर,
औपचारिक सी,अनजान सी और मेहमान सी हैं ये बातें।

अस्पताल में,कचहरी,थाने या के दैवीय प्रकोप के आगे,
बेबस सी,सहमी हुई,आंसू संग,सिसकती हुई हैं ये बातें।

जीत की ख़ुशी भरी ठिठोली हो,या महफ़िलें सजीली हों,
तो उत्साह,उमंग में बहकती सी,खिलखिलाती हैं ये बातें।

पार्कों के झुरमुटों में,एकांत या दरवाजों और पर्दों के पीछे,
फुसफुसाती,लजाती,प्रेम के आवेग की परवान हैं ये बातें।

बातों के बादलों से ढंका,इंसान का ये जीवन आसमान है,
जोड़ती हैं कभी रिश्ते,सुलझाती-उलझाती भी हैं ये बातें।

उस परवरदिगार से जब भी,किसी को संपर्क साधना हो,
गीता,कुरआन,बाइबिल या गुरुग्रंथ में,समाधान हैं ये बातें।

                                                                       - जयश्री वर्मा  

Tuesday, August 18, 2020

जो उनकी याद आई

 
आज जो उनकी याद आई,तो आती चली गई 
शाम ख़्वाबों की बदरी छाई,तो छाती चली गई।
 
वो मुस्कुराना आँखों में,बहक जाना बातों में , 
और झूठ पकड़े जाने पे,मुँह छुपाना हाथों से ,
उंगली के इशारे से,दिखाना कोई सुर्ख फूल ,
फिर बालों में सजा लेने की,अदा भी थी खूब। 

आज जो उनकी याद आई,तो आती चली गई 
शाम ख़्वाबों की बदरी छाई,तो छाती चली गई।  

चुपके से आकर पीछे से,आवाज़ देना ज़ोरों से ,
यूँ ही लड़खड़ा के टकराना,सीधे-साधे मोड़ों पे ,
फिर उफ़ कह के सम्हलना,वो शरारतें उनकी ,  
प्रेम की दरकार थी,मैं समझा न उनके मन की।   

आज जो उनकी याद आई,तो आती चली गई ,
शाम ख़्वाबों की बदरी छाई,तो छाती चली गई।

आज की शाम बहुत दूर हूँ,उनके शहर से मैं ,
के उनके बिना खुद को,अधूरा महसूसता हूँ मैं , 
संग-साथ रहते हुए,पता चलती नहीं करीबियां , 
दूर होके खटकती हैं,ये चाहतों की मजबूरियाँ।     

आज जो उनकी याद आई,तो आती चली गई ,
शाम ख़्वाबों की बदरी छाई,तो छाती चली गई। 
 
पता न चला वो दिल के,कैसे इतने करीब हुए ,
बढ़ी नज़दीकियाँ इतनी कि,वो मेरे नसीब हुए ,
इंतज़ार है कि ये घड़ियाँ,जल्दी से गुज़र जाएं ,
और हम अपना हालेदिल उनको जाके सुनाएं। 
 
आज जो उनकी याद आई,तो आती चली गई ,
शाम ख़्वाबों की बदरी छाई,तो छाती चली गई। 

                                              - जयश्री वर्मा
 
 
 


Monday, July 27, 2020

खुद पे गुरूर

घुमड़ के,और घिर-घिर,जो मेघ आने लगे हैं,
ये तन-मन भिगा के,नई चेतना जगाने लगे हैं,
सुलगते हुए भावों को यूँ,शीतल कर डाला है,
उम्मीद की नई कोंपल,मन में,उगाने लगे हैं।

भागती-हाँफती राहें,अब ठहरने सी लगी हैं,
नई राहों के निशान,इंगित करने सी लगी हैं,
के बिखरने लगे थे लम्हे,सम्हलने की चाह में,
अब रुकने की इक छाँव,नज़र आने लगी है।

मौसमों की रुखाई ने,नया रुख जो मोड़ा है,
जीवंतता की तरफ,दिल का नाता जोड़ा है,
मुस्कानों ने उदासियों को,कहीं पीछे छोड़ा है ,
बागों से रिश्ता,अब बन रहा थोड़ा-थोड़ा है।

मौसमों की सरसराहटें,सन्देश नया लाईं हैं,
मन में सोई सी उम्मीदें,फिर से सुगबुगाई हैं,
फिर से बहक जाने को,मन मचलने लगा है,
अरसे बाद अरमां जागे हैं,जुबां गुनगुनाई है।

मुरझाया सा जीवन,शीतल फुहार चाहता था,
ये रातों के वीरानों में,स्नेहिल पनाह मांगता था,
आपसे जुड़ हृदय-भाव,कुछ मुखर हो चले हैं ,
अंगड़ाई ले मन मयूर,फिर मचलना चाहता है।

अपनी निगाहों से,आपने कहा तो कुछ ज़रूर है ,
मन पर काबिज़ हुआ आपके वज़ूद का सुरूर है ,
के इक हलचल सी रंगों की,जीवन पे मेरे छाई है ,
आखिर यूँ ही नहीं हो चला,मुझे खुद पे गुरूर है।

                                                            -  जयश्री वर्मा





Saturday, June 27, 2020

छलकते से सागर


सुनो तो! लफ्ज़ हैं अनेकों,और ये बातें हैं असंख्य ,
तुम्हारे,मेरे हृदय के बीच,धड़कते भाव है अनंत ,
इन भावों को मिल जाने दो,न रहने दो अनजान ,
गर जो तुम मेरी सुनोगे,तो अफ़साने बनेंगे और ।

ये बारिशें,ये वादियाँ,और ये फूलों के अदभुत रंग ,
धरा की रहस्यमई,अंगड़ाइयों के ये नवीन से ढंग ,
के चलो गुनगुनाएं तराने,इन वादियों में खो जाएं ,
गर मेरी नजर से देखो,तो ये बहारें दिखेंगी और। 

रात-दिन,और इस साँझ संग,धुंधलके का घुलना ,
क्षितिज पे खोए से,धरती-आकाश का ये मिलना ,
कहना इक दूजे से,कि तुम हरदम ही संग रहना ,
विचारों में,मुझ संग बहोगे,तो एहसास होंगे और। 

ये बातें,ये मचलना,और ये हंसना-खिलखिलाना,
ये बेख़याली,हक़ जताना और ये रूठना-मनाना,
पलकें,ये गेसू घनेरे,ये हथेलियों में चेहरा छुपाना ,
मेरे नाम करोगे तो ज़िन्दगी के गीत ढलेंगे और।

मुझे सौंप दो,ये ख़ूबसूरती के,छलकते से सागर ,
ज़िन्दगी का सफर,सनम! लम्बा,दुरूह है मगर ,
मैं परवाना नहीं,जो बीच राह,साथ छोड़ूँ तुम्हारा ,
साया बनूँगा,संग चलूँगा,राहें खुशनुमा होंगी और।

कुछ भी कहो ये दिलीभाव समझते तो तुम भी हो,
मौसम के प्यार की पुकार परखते तो तुम भी हो,
इस कदर अनजान बनके छुपने से क्या फायदा ,
अपने दिल की सुनोगे तो बंधन के रंग बनेंगे और।


                                                       - जयश्री वर्मा








Friday, June 19, 2020

हमने छोड़ दिया

अपने दिल की गहराइयों में,हम डूबे भी उतराए भी, 
जो ज़ख्म मिले,कुछ दिखाए,कुछ खुद सहलाए भी, 
वो अनजान ऐसे बनके रहे,जैसे कुछ जानते ही न हों,
हमने भी दिल की राहों पे,ख्वाहिशों को छोड़ दिया। 
 
मौसम कई आए और,मन झिझोड़ के चले भी गए,
हम मुस्कुराए भी अकेले,कभी आंसुओं में डूब गए,
कई हादसे रह-रह कर,मेरे दिल के साथ ऐसे गुज़रे,    
के हमने भी दिन-रात का,हिसाब रखना छोड़ दिया। 

कभी सोचा वो मिलेंगे तो,ये कहेंगे और ऐसे कहेंगे,
शिकवे सारे उनकी बेख़याली के,गिना के ही रहेंगे,
कहेंगे कि किस तरह से,हम उनके गम में रहे डूबे,  
उलाहने बढ़े इस कदर,के सब सोचना छोड़ दिया। 

के उनको पा लेने की,बड़ी शिद्दत से तमन्ना की मैंने, 
रातें पलकों में काटीं,बेचैन हो के करवटें बदलीं मैंने, 
बार-बार दर्पण से,अपनी खूबसूरती की गवाही पूछी, 
अब उनकी निगाह से,खुद को आंकना छोड़ दिया।  

वक्त गुज़रा और,अपनी नादानियों पे हंसी भी आई, 
के उम्र की एक लहर जब गुज़री,तो दूसरी भी आयी, 
मेरी वफ़ाएं,मेरी मोहब्बत,मेरी ख्वाहिशें मेरी ही रहीं, 
अब हमने अपनी यादों में उन्हें बुलाना ही छोड़ दिया। 

                                                          - जयश्री वर्मा  

Thursday, June 4, 2020

जुस्तजुएँ हज़ार हैं



माँ-बाप से चाहत है हर क्षण दुलार की ,  
मित्र संग अटूट गलबहियों के हार की , 
हंसी,खेल,लड़कपन,आनंद हो अपार, 
बचपन न सहे कभी भी दुःखों का भार,
चाहे बस खुशियों से भरा जीवन संसार 
आशा,उम्मीदों से सजा भविष्य का द्वार,
ये ज़िन्दगी है इक स्वप्निल उड़ान,और जुस्तजुएँ हजार हैं। 

जवाँ सपनों संग जवाँ सारा जहान है ,
आसमान से ऊँचे दिल के अरमान हैं ,
हँसी दिलकश कोई,अंतर्मन झिंझोड़े ,
साथी की तलाश को उमंगें जब मोड़ें, 
पीढ़ियाँ सहेजकर,उनको सम्हालना ,
अपना सब भूल उनके ख्वाब पालना,
ये ज़िन्दगी बनी इक ज़िम्मेदारी और जुस्तजुएँ हज़ार हैं। 

बीती जवानी और बीते दिन सुनहरे,
ख़ुशी की चाहत थी,घाव मिले गहरे,
तोलता हूँ जब जीवन,कैसा बीता है,
कितना ये भरा और कितना रीता है,
घूमा इन हांथों में रेत सा समय लिए,
प्रयास अथक,पर हाथ खाली से हुए,
ये ज़िन्दगी बनी इक रिक्तता और जुस्तजुएँ हजार हैं। 

आँखें हैं मुंद रहीं,धुंधलाते से विचार हैं,
फरेब सब लग रहा,कैसी जीत-हार है,
कैसे हक़ से रहा मेरा-मेरा कहते हुए,
ऐसा क्यों लग रहा मुद्दतें हुईं जिए हुए,
सब यहीं छूट रहा ये मन क्यूँ रंजीदा है,
मेरा क्या था जग में,सवाल ये जिन्दा है,
के ये साँसें हैं गिनी चुनी और सवाल कई हज़ार हैं। 

कुछ साँसें जो बढ़ जाएं ऐसा कर लूँगा,
जो नाते तोड़े थे स्नेह से फिर भर दूंगा ,
अहम् के आगे मैंने सब बौना माना था,
हठ और गर्व जिया सब आना-जाना था,
फिर इच्छा जागी है,बचपन में जाने की,
खो जो दिया कहीं,वो फिर से पाने की,
पर अब साँसें हैं उखड़ रहीं और जुस्तजुएँ हज़ार हैं। 

                                                      - जयश्री वर्मा  
   
  

 
  


Wednesday, April 15, 2020

आना-जाना लगा रहेगा

सुख-दुःख हैं जीवन के साथी,ये आना-जाना लगा रहेगा।

खुशी आए,जी भरके जी लो,
हँस लो,खेलो,उमंगें भर लो,
दीप जलाओ,पुष्प बिछाओ,
मिल जुल,एक दूजे के साथ,
बाँटो खुशियाँ,मौज उड़ाओ,
हरियाला सावन,पतझड़ सूना,ये आना-जाना लगा रहेगा।

दुःख आए तो,मत घबराना,
कुछ पल ही,ठहरेगा ये भी,
धैर्य धरना,मन हार न जाना,
दिल में,न पीर बसाना तुम,
आंसू आएँ,तो बह जाने दो,
रात अँधेरी फिर सुबह सुनहरी,ये आना-जाना लगा रहेगा।

जीवन सुख,दुःख का है झूला,
दुःख इसपार,तो सुख उसपार
संतुलन साधो,सब सध जाएगा,
और सुख घूम,इस पार आएगा ,
समय बदलेगा,लगेगी देर नहीं,
पूस की ठिठुरन,जेठ की गर्मी,ये आना-जाना लगा रहेगा।

जन्म-मृत्यु,तो है निश्चित सबकी,
इस बीच की कहानी,लिखनी है,
मन माफिक,जो गढ़ ली जैसी,
वो गाथा,बस वैसी ही बननी है,
ईश्वर से,कैसा शिकवा करना ?
जन्म के सोहर,मृत्यु से बिछड़न,ये आना-जाना लगा रहेगा।

अपनाना,ठुकराना,रिश्ते बुनना,
हठ,स्नेह,दगा,दोस्ती,राहें चुनना,
प्यार,त्याग,मिलना,खोना,पाना,
कहना,सुनना,रूठना,समझाना,
जीवन है अनुभव,ये बातें गुनना,
साँसों का चलना,साँसों का थमना,ये आना-जाना लगा रहेगा।

सुख-दुःख हैं जीवन के साथी,ये आना-जाना तो लगा रहेगा।

                                                             - जयश्री वर्मा 

Wednesday, March 25, 2020

मैं तुमसे मिली थी


मैं तुमसे मिली थी-
सूरज की लाली की गर्माहट में,
पुष्प-पंखुड़ी की मुस्कराहट में,
कैनवास के रंगों की लकीरों में,
शरारत से भरे नयनों के तीरों में,
झरने से उड़ती हुई शीतलता में,
मन की कमजोर सी अधीरता में,
गीतों की सुरीली सी सुरलहरी में,
दहकते गुलमोहर की दोपहरी में,
कल्पना की आसमानी उड़ान में
संध्याकाल धुंधले से आसमान में,
यादों की सड़क के हर मोड़ में,
क्षितिज के मिले-अनमिले छोर में,
मैं तुमसे मिली थी-
रात इठलाते चाँद की चमक में,
नदिया की लहरों की दमक में,
तितली के तिलस्मयी से पंखों में,
इंद्रधनुष के जादुई सप्त-रंगों में,
नवयौवना की खिलखिलाहट में,
कहानी की अंतरंग लिखावट में,
फूलों से महकती हुई अंजुरी में,
पेड़ से मदहोश लिपटी मंजरी में,
तालाब में तैरती हुई कुमुदनी में,
पंछी कतार छवि मनमोहिनी में,
हरसिंगार के दोरंगे से फूलों में,
और यौवन की मीठी सी भूलों में,
जब भी खूबसूरती की बात हुई-
मैं सच कहती हूँ-
मैं तुमसे मिली थी-
क्या तुमने अब भी नहीं पहचाना,
अरे मैं! हृदय की कोमल भावना।

                                        - जयश्री वर्मा






  

Wednesday, March 11, 2020

फर्क कहाँ है ?

गुलाब लगा हो मंदिर,मस्जिद में या के गिरजाघर में,
जब उसका नाम गुलाब ही रहेगा तो फिर फर्क कहाँ है ?

जो जन्मा है वो जाएगा भी इस जग से कभी न कभी,
जब तब्दील मिट्टी में ही होना है तो फिर फर्क कहाँ है ?

दीप मंदिर,मस्जिद को करे रौशन या गिरजाघर को,
जब उसे उजियारा ही फैलाना है तो फिर फर्क कहाँ है ?

पूजा में हाथ जोड़ें,हाँथ बांधें,या दुआ में ऊपर उठाएं,
जब मांगते सभी सलामती ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

अम्मी कहें,मॉम या के माँ पुकारें अपनी जननी को,
जब माँ की ममता सामान ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?

मनाई जाए ईद,क्रिसमस या त्यौहार हो दिवाली का,
जब उल्लास-उमंग एक सा ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?

कुरान की आयत,कैरोल या के गाएं रामायण चौपाई,
जब कहलाती वो सब प्रार्थना ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?

इन पूजास्थलों के झगड़ों में लोग आए और चले भी गए,
जब कोई कभी न लौटा,न ही लौटेगा तो फिर फर्क कहाँ है ?

ये धर्म-जाति की अनर्गल बातें,बीमार सोच से जन्मी हैं ,
जब सुख-दुःख सबके सामान ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

हिन्दू,मुस्लिम,ईसाई,बहाई या के हो पारसी समुदाय ,
जब कहलाते सब हिन्दुस्तानी ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

सूरज की तपन और चाँद की शीतलता में भेद नहीं है,
जब ये हम सबके लिए सामान ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

हम इंसान हैं और इंसानियत ही बने पहचान हमारी,
जब हम ये आत्मसात कर सकते हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?


                                                                 - जयश्री वर्मा

Wednesday, February 26, 2020

मैं स्पंदन हूँ

मैं सृष्टि का जना आधा हिस्सा हूँ,
इस पूर्ण सत्य का पूर्ण किस्सा हूँ,
मैं हर स्त्रीलिंग की पहचान में हूँ,
मैं भूत से भविष्य की जान में हूँ ,
मैं मरियम,आयशा और सीता हूँ,
मैं ही रामायण,कृष्ण की गीता हूँ,
मैं सभी धर्म ग्रन्थ का केंद्र भी हूँ ,
मैं काल का लिखा सत्येंद्र भी  हूँ,  
मैं तुममें,तुममें और तुममें भी हूँ ,
मैं खुदके भी जीवन स्पंदन में हूँ,
मैं इक ममत्व,त्यागपूर्ण जननी हूँ, 
मैं माँ,बेटी,बहन और सहचरी हूँ,
मैं स्त्रीलिंग हूँ,सृष्टि को सहेजे हुए,
मैं कई सभ्यताओं को समेटे हुए,  
मैं तो हूँ जीवन का उन्मुक्त हास,
मैं हूँ अनंत प्रेम की अतृप्त प्यास,
मैं नारी हूँ मैं रिश्तों का बंधन हूँ,
मैं विनाश का इक क्रंदन भी हूँ ,
मैं मंदिर की नौ रुपी देवी भी हूँ,
मैं प्रतिज्ञा की सुलगती वेदी भी हूँ,
मैं अहँकारी के मान का भंजन हूँ,
मैं हर जीवित-जीव का स्पंदन हूँ,     
मैं प्रेमी हृदय की कोमल नायिका,
मैं टूटे मन की हूँ इक सहायिका,   
मैं घर की चौखट का इंतज़ार हूँ ,
मैं समस्त परिवार का प्यार भी हूँ,
मैं श्रेष्ठ श्रृंगार बिछिया-सिन्दूर हूँ,
मैं जितनी पास हूँ उतनी दूर भी हूँ,   
मैं रसोई की स्वादमय खुशबू हूँ,
मैं शिशु की दुनिया की जुस्तजू हूँ,
मैं केंद्र हूँ कवि की कल्पनाओं का, 
मैं रंग कैनवास की अल्पनाओं का ,   
मैं इस सोलर सिस्टम की धड़कन हूँ , 
मैं इकमात्र स्त्रीलिंग ग्रह धरती भी हूँ।

                                         - जयश्री वर्मा



Tuesday, February 18, 2020

आओगे के न आओगो

ये मौसमों का आवाज़ देना,जगाना,बुलाना,हर पल ,
और पलकों संग ख़्वाबों की,लुका-छिपी की हलचल ,
के इन हवाओं का बहना,बिना बंधन हो के बेपरवाह ,
इंतज़ार है तुम्हारा,तुम आओगे या के न आ पाओगे।

मेरे पहलू में बैठो तो ज़रा,बातें कहो-सुनो तो ज़रा ,
मेरे और अपने दिल के,जज़्बातों को,गुनो तो ज़रा ,
कुछ पल अपने ये,मेरे नाम लिख कर के तो देखो ,
फिर नहीं पुकारूंगा,रुकोगे या के न रुक पाओगे।

कुछ अपनी,मौसमों,और इन पंछियों की बात करो ,
के मेरे जज़्बात संग,अपने विश्वास की हामी तो भरो ,
कुछ कदम तो साथ चलो,फिर रहा फैसला तुम्हारा ,
मेरी धड़कनों को सुन पाओगे या के न सुन पाओगे।

ऐसा नहीं है कि,हर कोई ही,गुनहगार हो दुनिया में ,
ये वादा रहा,खुशियाँ ही उगाऊंगा,जीवन बगिया में ,
खरा ही उतरूंगा,हर कदम,अब मर्ज़ी तुम्हारी आगे ,
चाहा तुमने भी है,कह पाओगे या के न कह पाओगे।

यूँ तो तुम्हारे ठिठके कदम भी,अब आगे बढ़ते नहीं हैं,
तुम्हारे ख्वाब भी जो थे तुम्हारे,अब वो तुम्हारे नहीं हैं,
तुम्हारी मन वीणा का,हर तार ही पुकार रहा है मुझे, 
अब है फैसला तुम्हारा,लौटोगे या के न लौट पाओगे।

के आ भी जाओ इस दुनिया की राहें बड़ी बेरहम हैं ,
जहाँ बिछड़े,उसी मोड़ पे,इंतज़ार में अबतक हम हैं ,
इतनी भी कमजोर नहीं है मेरी मुहब्बत की ये ज़मीन,
खाली न जाएगी दिल की पुकार,तुम आ ही जाओगे।                        
                                                                                             -  जयश्री वर्मा

Thursday, February 6, 2020

ऐसा कुछ भी नहीं

क्यों नहीं कह देते जो कोई,मन में आरज़ू है तुम्हारे,
शायद ख़यालात एक जैसे,मिलते हों तुम्हारे-हमारे,
के जो कोई पल बेचैन कर गया हो,तुम्हारे दिल को,
शायद वैसा लम्हा मैने भी अपने ज़ेहन में जिया हो।

कि कहीं तुमने भी तो किसी की,रुसवाई नहीं सही?
और तुम्हारी टूटन की आवाज़,जो है अंदर दबी हुई ,
हमदर्द कोई न मिला तभी,कसक किसी से न कही,
मेरी भी तो अपनी दास्तान,कुछ-कुछ ऐसी ही रही। 

कह डालो आज कि हम दोनों,एक ही जैसे मिले हैं,
लगता है हमारे तुम्हारे,एक से शिक़वे और गिले हैं,
रिश्ते सबके ही स्नेह भरे,अपनत्व पूर्ण तो नहीं होते,
वर्ना भला क्यों अरमान,दिल के दिल में ही सुलगते।

सुख का ही नहीं दुःख का भी,अटूट रिश्ता होता है,
वर्ना क्या ऐसे,एकांत का हाथ थामे,कोई दिखता है?
वीराने में जैसे इक उम्मीद का,फूल खिल आया  है,
शायद वक्त ने हताशा से,बचाने को,हमें मिलाया है। 

न रोको आंसू ये सुलगते हुए,ख्यालातों को बुझाएँगे,
सोच की धुंध को धुल के,नई जीने की राह दिखाएंगे,
कि ऐसा कुछ भी नहीं,जिसे वापस न लाया जा सके,
उदास चेहरे पे मुस्कान को,पुनः खिलाया न जा सके।

फूल आज भी तो खिले हैं,सवेरा आज भी तो उगा है,
के रात बेरहम गुज़री है अभी,चाँद पुराना हो चला है,
क्या अँधेरा कभी रोक सका है,सुबह की लालिमा को?
यूँ ही वक्त भी मिटा देगा,इन लम्हों की कालिमा को।

क्यूँ नहीं भुला सकते,जो भविष्य हमने ही लिखा था ?
क्यूँ न गुज़री बात मान लें,जो रिश्ता अटूट दिखा था ?
हारते नहीं हैं यूँ,कि हर शय से,जूझना आना चाहिए,
ऐसा भी नहीं कि गम को,भुलाने को ज़माना चाहिए।

                                                       -  जयश्री वर्मा 

Friday, November 29, 2019

चाहत हो जाती हूँ


सप्तरंगी इंद्रधनुष,
खुश्बुएं हजार किस्म,
भिन्न रूप-आकार लिए,
खिलती हूँ,खिलखिलाती हूँ,
प्रकृति के फूलों की महक सी,
मनमोहक बनके दिलों में समाती हूँ,
जन्म से अंत तक बस रौनकें जगाती हूँ,
जब कभी मैं पुष्प सी मनोकामना हो जाती हूँ।

अपने मन-पंखों में,
कई रंग-आकार लिये,
यहाँ-वहाँ पवन सुगंध-संग,
घूम-घूम,दूर पुष्पों में रम जाना,
इतराना,खुद में ही खोए हुए इठलाना,
नयनों की इक कोमल कामना हो जाती हूँ,
के नेत्रों के रास्ते उतर,सभी दिलों में समाती हूँ,
जब कभी भी मैं तितली सी शोख़ चंचल हो जाती हूँ।

मधुर से गीत-सुर,
जादुई शब्द-जाल बुन,
लहरियों के उतार-चढ़ाव,
ऊँचे से ऊँचे और नीचे से नीचे,
रागों के आरोह से अवरोह तलक,
निम्न सुर से सप्तक की हर उठान तक,
हर जन मानस की मन-तन्द्रा पे छा जाती हूँ,
जब मैं मधुर संगीत की इक सुरलहरी हो जाती हूँ।

ऊँचे पर्वतों के हौसले,
गहरी सी सागर कि साँसें,
धैर्य के लहलहाते हरेभरे खेत,
रेगिस्तान की जलती जीवित रेत,
वृक्ष,पुष्प,झरने,बादलों का बहकना,
डूबते सूरज के रंग संग,पवन का महकना,
जीवनपूर्ण रिमझिम के संग खुशियां बढ़ाती हूँ,
जब मैं प्रेम और त्यागमयी धरती सी बन जाती हूँ।

                                                     - जयश्री वर्मा

Friday, November 8, 2019

बहुत कुछ अनकही

मित्रों !मेरी इस कविता कि कुछ पंक्तियाँ समाचार पत्र " दैनिक जागरण " में छप चुकी हैं , आप लोग भी इसे पढ़ें।


रात बड़ी खामोश थी पर,बहुत कुछ अनकही कह गयी,
उफ़ भी न बोली और , बहुत कुछ असहनीय सह गयी ।

 माँ की आधी लोरी के बीच,सोया हुआ नन्हा सा बच्चा,
प्रिय का किया वादा,थोड़ा सा झूठा और थोड़ा सच्चा।

मंत्रियों की राजनीतिक बातें,और बातों की गहरी घात,
दिन भर की झिकझिक,रात शराब संग हुई बरदाश्त।

बेला की मादक खुशबू,घुंघरूओं की छलिया छन-छन,
हर वर्ग के आदत से लाचार,पहुँच जाते हैं वहां बन-ठन।

मन की गन्दगी के वशीभूत,तन की गन्दगी में लोटते हैं,
घर पर राह तकती पत्नी के,मन में डर के घाव फूटते हैं।

रौशनियों में डूबी,खिलखिलाहटों की दर्द भरी रवानी है,
पलभर खुशी की तलाश की,लुटने-लुटाने की कहानी है।

किसी के हाथ मेहँदी सजी,कोई विवाह के नाम जल गयी,
जीवन संगिनी थी,तो फिर क्यों,दहेज की बलि चढ़ गयी ।

बड़े-बड़े खिलाड़ियों के खेलों की,होती करोड़ों की सेटिंग,
कौन कितना खेलेगा उसके ही,हिसाब से है उसकी रेटिंग।

कभी राज़ को राज़ रखने के बदले,कोई जान ली जाती है,
फिर अगले दिन उजाले में,झूठी तहकीकात की जाती है।

दशहरा,दुर्गापूजा,रमजान,क्रिसमस के,जश्न भी तो होते हैं,
कहीं बहुतों को समेटे गोद में,सुलगते शमशान भी रोते हैं।

कहीं घरों में चुपचाप खौफ़नाक,इरादों संग लुटेरे घुसते हैं,
निरीह,एकाकी बुज़ुर्ग,लाचार उनकी,दरिंदगी में पिसते हैं।

कहीं पे झाड़-फूंक,गंडे-ताबीजों की,तांत्रिक लीलाएं होती हैं,
कहीं धूनी रमाते बाबाओं की,खौफ़नाक रासलीलाएँ होती हैं।

सड़कों पर रातों में दौड़ती,100 नंबर पुलिस गश्त करती है,
मगर वो वारदातियों को कभी भी,रंगे हाथों नहीं पकड़ती है।

रात बड़ी खामोश थी पर,बहुत कुछ कहा,अनकहा कह गयी,
उफ़ भी न बोली ये,और बहुत कुछ,असहनीय सा सह गयी ।

                                                                ( जयश्री वर्मा )



Tuesday, September 17, 2019

कुछ-कुछ जाना है

कलियाँ कब,क्यों चुपके से,फूल बनके महकें ?
ये भँवरे गुन-गुन सुन ज़रा,क्या कुछ हैं कहते ?
तितलियाँ भी क्यों रंग जादुई,परों में हैं भरतीं ?
डाल-डाल क्यों रुकतीं,और फिर से हैं चलतीं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

कोयल कुहू-कुहू क्यों,मतवाले गीत है गए ?
पपीहे की पीहू-पीहू क्यों,यूँ शोर सा मचाए ?
डालियाँ पवन संग क्यों यूँ,झूम-झूम हैं जाएं ?
सर-सर के मदभरे से क्यों,गीत फ़ुसफ़ुसाएं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

हरी-भरी चादर ओढ़ के.ये धरा क्यों इतराए ?
आकाश भी धरा पे क्यों,रीझा-रीझा सा जाए ?
क्षितिज पे लगें दोनों ही,साथ मिलते से जाएं ?
तराने प्रेम भरे से भला क्यों,ये संग गुनगुनाएं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

इक शून्य से ये जन्मी और,विराटता है इसने पाई ,
ये सृष्टि कहाँ से चली,और कहाँ तक हमें ले आई ,
उत्थान,पतन,अमरत्व की,अजब सी ये कहानियां ,
रीतों,गीतों की जीवंत,खिलखिलाती हुई जवानियाँ ,
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।


गुज़रता वक्त क्या है कहता,सुनो तो मन लगा के,
ध्यान से सुनो तो ज़रा,भावों का प्रेम-दीप जगा के,
कुछ आमंत्रण सा छुपा है,इन बहकती हवाओं में,
शायद राज़ उजागर हैं,हमारी-तुम्हारी वफाओं के,
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

                                                              - जयश्री वर्मा

Monday, September 2, 2019

ज़िन्दगी में ढली मैं

माँ की कोख में रची मैं,ज़िन्दगी में ढली मैं ,
पिता की बाहों के पालने में,खेली-पली मैं ,
आँगन की चिरैया सी,चहक-चहक डोली ,
मीठी सी मुस्कान संग,खिलौनों की झोली।

भाई-बहन के रिश्ते का,पाया ढेर सारा प्यार ,
सखियों संग सवालों,और जवाबों की बहार ,
हर पल-दिन गुज़रा,ढलीं चांदनी सी रातें भी ,
यूँ बदले कई मौसम,गुज़रीं कई बरसातें भी।

ख़्वाब हुए जवान जब,यौवन ने रंग दिखाया,
कल्पनाओं ने तिलस्मयी,जहान इक बनाया,
सपने क्या थे बस,इक जादुई सी दुनिया थी ,
सतरंगी ख़्वाबों से भरी,दिल की पुड़िया थी।

फिर माँ की चिंता और बाबुल का था हिसाब ,
पसंदी न पसंदी के,अजीब से सवाल-जवाब ,
फिर सात फेरों संग,बेटियां पराई बनाने की ,
ऐसी ही तो ये रीत है,घर-आँगन छुड़ाने की।

संग आई थी प्रीत लिए,हर रिश्ता निभाने को ,
पर दिखीं तौलती सी निगाहें,बातें उलझाने को ,
तमाम उम्मीदें थीं,जिम्मेदारियों का बोझ था ,
बात-बात पे टिप्पणी थी,ताना और क्रोध था।

ख़ुशी,उत्साह,ख़्वाबों ने,जैसे उदासियाँ ओढ़ीं ,
प्रश्न,प्रश्न और प्रश्नों ने,उम्मीदें सारी ही तोड़ीं,
अकेले ही चलना था,अकेले ही सम्हलना था ,
ससुराल के नियमों में,अकेले ही ढलना था।

जो अपना बनाने को लाए थे,तो अपना बनाते ,
पराया कह पुकारा,क्यों ये शिकवा,शिकायतें,
बेटे संग उसकी सहचरी को भी,गले से लगाते ,
वंश बढ़ाने वाली का,काश सम्मान भी बढ़ाते।

तो न घटतीं बेटियां,न चढ़तीं दहेज़ की बलि ,
बेटी पैदा होने पे,घरों में न मचती यूँ खलबली ,
न समाज में असुरक्षित यूँ,माहौल ही मिलता ,
दोयम दर्जे का अहसास,यूँ मन में न पलता।

तो जीवन के मायने,अलग ही कुछ और होते ,
बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप,यूँ कभी न रोते ,
बेटी के आगमन पे भी,घरों में जश्न खूब मनाते ,
गर बहू-बेटियों को भी,हम बेटों सा अपनाते।

                                               - जयश्री वर्मा


Monday, August 26, 2019

तुम्हारे जाने के बाद

तुम क्या जानो के ऐसे,तुम्हारे जाने के बाद ,
कैसा बेबस सा हुआ,ये मेरा मन,ये मेरा तन ,
के देहरी पर निगाह,ठहर सी जाती है मेरी ,
जहाँ पे कि पग आहटें,पुकारती हैं तुम्हारी। 

गर कुछ भी न था,तो फिर ये संतति हमारी ,
जो है हमारे-अपने प्रेम की अमिट निशानी ,
जिस पर तुम्हारी,झलक का घना पहरा है ,
जो आधा तुम्हारा,और आधा मेरा अपना है।

न जाने कितनी ही रातें,आँखों में जागी हूँ मैं ,
बिन आँसू के रोई हूँ,ऐसी इक अभागी हूँ मैं ,
के दूर होकर भी,मेरे साथ सदा रहते हो तुम ,
मेरी यादों,बातों,साँसों में,सदा बसते हो तुम।

उफ़! इतनी विरक्ति के साथ तुम बने रहे मेरे ?
क्या सब झूठ था?वो समर्पण,वो बाहों के घेरे?
मैं तो स्वयं को हमेशा से ही,धन्य मानती रही,
तुम सिर्फ मेरे हो,बस ये एक सच जानती रही।

कुछ आभास तो हुआ था,पर हृदय न माना था ,
ये दृष्टिभ्रम है इक,मेरे अंतर्मन ने यही जाना था ,
ये नहीं जानती थी कि,यूँ अनहोनी बुला रही हूँ ,
खुद के अन्त की,मैं खुद ही,कहानी बना रही हूँ।

सदा दिल ने माना,मैं जिस्म और जान हो तुम ,
के मेरी इस जीवन-कहानी का,प्रमाण हो तुम ,
तुम्हारे ही साथ में,मैं अपने,ये दिन-रात ढालूँगी,
हाथों में हाथ ले,मैं जीवन के रास्ते निकालूँगी।

भरोसा था मुझे कि मेरा प्यार,कहीं नहीं जाएगा ,
के भला मुझ जैसा सच्चा दिल,कौन नहीं चाहेगा,
बड़ा ही गुरूर था खुदपे,के सब सम्हाल लूँगी मैं ,
नहीं जानती थी के ऐसे किस्मत उछाल लूँगी मैं।

न जाना था ये फरेब,मेरी ही कहानी बन जाएगी,
इस दिल की धड़कन से,भावनाएँ  दूर हो जाएँगीं,
अब जाना कैसे,आँखों के ख्वाब,बैरी हो जाते हैं,
और कैसे,जिस्म से,जिस्म के साए,गैर हो जाते हैं।
                                          
                                                     - जयश्री वर्मा








  




Monday, August 5, 2019

ये क्यों है ?

ये अपनों के ही दरमियान,खड़ी दीवार क्यों है ?
के आज आदमी ही,आदमी का शिकार क्यों है ?
मशीनी से जिस्म हुए,भावों के समंदर रीत गए ,
ये भाई-भाई के बीच में,खुली तकरार क्यों है ?

बचपन के दिन नहीं दिखते,अब बेफिक्र,सुनहरे ,
सबको ही शक से देखते हैं नवनिहालों के चेहरे ,
बोल फूटते ही,ये सीखते हैं,फरेबों के ककहरे ,
ये यूँ इक दूजे को,हराने की लगी कतार क्यों है ?

जवानी नहीं है अब,मासूम और शरमाई हुई सी ,
वादे,वफ़ा की बातें,अब करता नहीं है कोई भी ,   
सब कुछ ही खुलापन लिए,खुली किताब सा है ,
ये दो दिलों के बीच,बिछा हुआ व्यापार क्यों है ?

बुढ़ापे को निराश्रित होने के,भय की आहट है ,
बस-इंतज़ार,याद,आँसू वृद्धाश्रम की चौखट है ,
के सेवा-सम्मान कैसे,खो गया दुनिया में कहीं ?
ये जीते जी खोदी गई,रिश्तों की मज़ार क्यों है ?

शुष्क से माहौल में जन्मे-पले,बंजर दिल लोग ,
ये फूल-तितली,चाँद-तारों की,बातें नहीं करते ,
क्यूँ अपनी ही तलाश में,भटक रहा है हर कोई ,
के हर ज़िन्दगी को,ज़िन्दगी की तलाश क्यों है ?

ये सवाल कौंधते हैं,हर तरफ,सवालों को लिए ,
बुझते नहीं हैं,टिमटिमाते हुए,आशाओं के दिए ,
इन्हीं आशाओं के सहारे,कट जाती है हर उम्र ,
मुस्कुराहटों को ओढ़े,भविष्य की उम्मीद लिए।  

                                                   - जयश्री वर्मा



Saturday, July 27, 2019

ऐसे कितने ही जाधव

न जाने कितने जाधव,कितनी विदेशी जेलों में फंसे हैं,
आँखों में झाइयाँ,शरीर है ढांचा,पर बेड़ियों में कसे हैं।

ये गालियों और लातों की रोटी से,मन का पेट भरते हैं ,
कल की आशाएं संजोए ये,रोज तिल-तिल के मरते हैं।

ये रात-रात,दर्द-दहशत संग,ख्यालों में जागा करते हैं ,
और दिन-दिन भर,जान-रहम की,दुआ माँगा करते हैं।

हर त्यौहार,सपनों में ही ये,अपनों के संग-साथ जीते हैं ,
उनके घर भी होली,क्रिसमस,बैसाखी,ईद कहाँ मनते हैं?

घर की दहलीज़ पे,उनकी आहट की उम्मीद पलती है,
पत्नियाँ उहापोह में,तीज-करवाचौथ कर मांग भरती हैं।

कितने बच्चों को अपने पिता की स्मृति ही नहीं कुछ भी,
दया-तिरस्कार ही नियति है,यही उनका जीवन सत्य भी।

बच्चे भी सुनी बातों,और फोटो के संग,यूँ ही पल जाते हैं ,
हालात के संग वे सब,खुद-ब-खुद,बस यूँ ही ढल जाते हैं।

ये बच्चे मन की उम्मीदों को,मन में ही दफ़न कर लेते हैं,
नहीं है पिता का साया,जान के कोई सवाल नहीं करते हैं।

बूढ़े माँ-बाप की आँखों के,उमड़ते समुंदर भी सूख जाते हैं,
अंतिम क्षण में औलाद को,देख पाने के ख्वाब टूट जाते हैं।

देशों की सरकारों के प्रयास भी नाकाम ही साबित होते हैं,
मीडिया वाले बस उम्मीद,कभी असमर्थता का राग रोते हैं।

ऐसे ही,कितने ही जाधव,न जाने,कितनी ही जेलों में फंसे हैं,
जिनका शरीर उनके साथ है,पर दिल अपने देशों में बसे हैं।

                                                                        - जयश्री वर्मा  


Monday, July 1, 2019

कहाँ से लाओगे ?

यूँ चाहतों का जाल,भेद कर,तुम कहाँ जाओगे ?
जो गर चाहोगे भूलना तो भी,भुला नहीं पाओगे ,
के हमारा हंसना,रूठना,उलझना,मान-मनुहार ,
बंध गए हो जिस बंधन में,वो कैसे काट पाओगे ?

वो मेरा इंतज़ार करना,रूठना,फिर मान जाना ,
फिर तुम्हारी इक इच्छा पे,वो मेरा कुर्बान जाना ,
तमाम पहरों को तोड़,मैं तुम तक चली आती थी ,
दुस्साहसपूर्ण ये सब बातें,तुम कैसे भूल पाओगे ?

मुहब्बत में दूरियां,बेचैनियाँ बढ़ाएंगी,मैंने माना ,
अगर राहें जिक्र करें मेरा,तो तुम लौट ही आना ,
के फूल,बाग़,नदी,और गलियां पूछेंगे बार-बार , 
अपने ही क़दमों के खिलाफ,कैसे बढ़ पाओगे ?

ऐसे किसी के जज़्बात से,खिलवाड़ नहीं करते ,
गर किसी से हो प्यार तो,यूँ तकरार नहीं करते ,
छुड़ाया जो हाथ हमसे,हम रो ही देंगे कसम से ,
मेरी नींदें उजाड़,अपने ख्वाब कैसे बसा पाओगे ?

ढूंढोगे लाख उम्र के बीते लम्हे,पर ढूंढें न मिलेंगे ,
बीते मौसम जैसे फूल,दूसरे मौसमों में न खिलेंगे ,
किसने कहा के काँच,टूट के फिर जुड़ सकता है ?
टूटी हुई उम्मीदों की लौ,फिर कैसे जगा पाओगे ?
                                           
के गर जा ही रहे हो,इक बार मुड़ कर देख लेना ,
मेरी आँखों की हसरत,इक पल को महसूस लेना ,
ये चाहत की ख्वाहिश,दोनों तरफ बराबर ही थी ,
ये सच झुठलाने की हिम्मत,तुम कहाँ से लाओगे ?

                                                                   - जयश्री वर्मा  

Wednesday, May 29, 2019

बनाते नहीं हैं


सच्चाई,सुकून,भरोसा,ये जीवन की खुश्बुएं हैं,
किसी से गर जो मिले,तो उसे भुलाते नहीं हैं,
ख्वाबों में जो खोया निश्छल,मुस्कुरा रहा हो,
ऐसी नींद से,उसको कभी भी,जगाते नहीं हैं।

जो कोई रात-रात जागा हो,इंतज़ार में तुम्हारी,
उससे मुख मोड़के,कभी भी कहीं जाते नहीं हैं,
जिसकी हँसी में,बसी हों,सारी खुशियाँ तुम्हारी,
उसके माथे पे,शिकन कभी भी,बनाते नहीं हैं।

जो साया बनकर आया हो,जन्म भर के वास्ते,
दोष उसके,कभी भी किसी से,गिनाते नहीं हैं ,
तुम्हारे घर की इज़्ज़त,तुम्हारी ही तो पहचान है,
सड़क पे उसकी बात कभी भी,लाते नहीं हैं ।

धोखा,झूठ और फरेब,जीवन के कलंक ही हैं,
प्रेम की नाव को मझधार कभी,डुबाते नहीं हैं ,
के गलत काम करने से पहले,सोचना कई बार ,
इंसानियत को कभी भी,दागदार बनाते नहीं हैं।

गम को भले ही भुला देना,काली रात जान के,
ख़ुशी के,उजले-लम्हे कभी भी,भुलाते नहीं हैं,
के दोस्ती के नाम,जो हाजिर हो,हर वक्त पर,
ऐसे रिश्ते में,शक़ की दीवार,यूँ उठाते नहीं हैं।

सुख-दुःख के दिन-रात तो,आते-जाते ही रहेंगे,
कभी हिम्मत नहीं हारते,कभी घबड़ाते नहीं हैं,
के तमाम ज़ख्म दिए हों,जिन रिश्तों ने बार-बार,
उन रिश्तों को गाँठ जोड़-जोड़,चलाते नहीं है।

                                              ( जयश्री वर्मा )

Monday, April 29, 2019

चिट्ठी तेरे नाम लिखी

सुन रे प्रिय! मैंने इक चिट्ठी,तेरे नाम लिखी,
इक दिन सूना,और अधूरी इक रात लिखी,
के जिसमें है व्यथा,कुछ कही,अनकही सी, 
कुछ तो है सहनीय,और कुछ अनसही सी। 

तमाम हलचल में भी,सूना सा दिन है बीता,
हंसी-ठहाकों बीच,मन का कोना रहा रीता,
यूँ कलियों,भवरों की,अठखेलियां थीं बड़ी, 
पर मेरी ये मन बगिया तो,है सूनी सी पड़ी।

शाम लहरों के संग,खेलती देखी इक नैया,
कैसी बेफिक्र डोलती थी,संग था खेवईया,
भीड़-भरे जग में,है मेरा मन अकेला यहाँ,
बेबस सी नज़रें मेरी,तुम्हें ढूँढतीं यहाँ-वहाँ।

रात को चाँद के संग,तारों की ठिठोली थी,
पतंगे ने रौशनी संग,कई कसमें बोलीं थीं,
कैसे-कैसे ख़याल मचले,जो के न हुए पूरे,   
रातें गुजरीं पलकों में,ख्वाब भी रहे अधूरे।

रोज के ये दिन रात मेरे,ऐसे ही गुज़रते हैं,
मेरे मन के भाव यूँ ही,वक्त से झगड़ते हैं,
तुम आओ तो जीवन की,ये जंग जीत लूँ मैं,
अपनी सारी प्रीत देकर,तुम्हें खरीद लूँ मैं।

मन उड़ेल दिया सारा,कुछ भी न सुहाता है,
तुम बिन तो मुझे,अब ये जहान नहीं भाता है,
सुन प्रिय! मैंने इक चिट्ठी,तेरे नाम है लिखी,
इस अधूरे से मन की,अधूरी सी चाह लिखीं।

                                            - जयश्री वर्मा  



Friday, March 15, 2019

सुंदर ख्वाब

अगर प्यार जो हुआ है तो,हो भी जाने दो,
ये दिल जो खिला है तो,खिल भी जाने दो,
ये इक तिलस्मयी,दुनिया का आगाज़ है,
चाहत को मीठे सपनों में,खो भी जाने दो।

इस दुनिया का क्या है,ये तो नहीं मानेगी,
नवप्रेम की इस पुकार को,ये नहीं जानेगी,
दुःख देने में तो इसे,बड़ा ही मज़ा आता है,
छोड़ो इसे,नया अफसाना,बन भी जाने दो। 

के हमदम सबके,नसीब में नहीं है मिलता,
ये फूलों का खिलना,सबको नहीं है दिखता,
बागों की खुश्बूएँ भी,सबको नहीं हैं रिझातीं,
ये प्रेम है निर्बन्ध,उन्मुक्त बह भी जाने दो।

ये चाँद-तारों की बातें,सबको कहाँ हैं आतीं,
कसमों,वादों की रातें,सबको नहीं हैं भातीं,
सबके कदमों पे,यूँ इंद्रधनुष नहीं हैं झुकते,
जो बढ़े कदम इस ओर,तो बढ़ भी जाने दो।

सब नहीं जानते,अमर है,प्रेम की परिभाषा,
पतझड़ के रूठे हुओं को,रंगों से क्या आशा,
के ये जन्मों संग,जीने और मरने की बातें हैं,
क़दमों पे रखे फूल,दिल से लग भी जाने दो।  

दिलों की ये भाषा तो,दिलवाले ही जानते हैं,
शमा की पुकार तो,बस परवाने पहचानते हैं,
के सूनी डगर का राही,बनने से क्या फायदा,
बहारों का है बुलावा,तो बाहें भर भी जाने दो। 

                                            - जयश्री वर्मा


Monday, March 4, 2019

ये अजीब भटकाव

रोज सूरज का आना,और दिन का चढ़ना ,
वही किरणों का धरती पे,धीरे-धीरे बढ़ना ,
वही सड़कों पे दौड़ते हुए,लोग इधर-उधर ,
भरते हुए स्कूल-दफ्तर,खाली से होते घर।

बाजारों का शोर-शराबा,सामानों के दाम,
लेते-देते हुए लोगबाग,बस काम ही काम ,
संतुलन का कर हुनर,नट दिखाता खेला ,
जैसे साँसों संग जूझता,जिंदगी का मेला।

मनमानी की सबने,खुमारी में जवानी की,
कुछ को है रुलाया,और कुछ संग हंसी की,
जैसे किसी के हाथों डोर है,हमें नचाने की ,
थिरकती कठपुतलियाँ,हम है जमाने की। 

साँसों का ये ज्वार-भाटा,उतरता और चढ़ता ,
ऐसे ही बीते जीवन,यूँ मौत की ओर बढ़ता ,
रोज की ये कहानी,और रोज का ये दोहराव,
कुछ न हासिल होने का,ये अजीब भटकाव।

दुःख-सुख,हँसी-आँसू,कुछ खोना और पाना ,
इसी सब में भटक रहा है,ये सारा ही ज़माना,
जीवन इक अतृप्त खेल,अनबूझा,अनजाना ,
ये जन्म से मरण तक का,है अजीब हर्जाना।

बचपन से बुढ़ापे की दौड़ में,हर दिन है जीना,
अनुकूल सब नहीं मिलेगा,गरल भी होगा पीना,
के हार-जीत की हाट है ये,लेना-देना तो पड़ेगा,
तभी तो अमूल्य जीवन ये,अनुभवों में ढलेगा।


                                                - जयश्री वर्मा