Tuesday, September 17, 2019

कुछ-कुछ जाना है

कलियाँ कब,क्यों चुपके से,फूल बनके महकें ?
ये भँवरे गुन-गुन सुन ज़रा,क्या कुछ हैं कहते ?
तितलियाँ भी क्यों रंग जादुई,परों में हैं भरतीं ?
डाल-डाल क्यों रुकतीं,और फिर से हैं चलतीं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

कोयल कुहू-कुहू क्यों,मतवाले गीत है गए ?
पपीहे की पीहू-पीहू क्यों,यूँ शोर सा मचाए ?
डालियाँ पवन संग क्यों यूँ,झूम-झूम हैं जाएं ?
सर-सर के मदभरे से क्यों,गीत फ़ुसफ़ुसाएं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

हरी-भरी चादर ओढ़ के.ये धरा क्यों इतराए ?
आकाश भी धरा पे क्यों,रीझा-रीझा सा जाए ?
क्षितिज पे लगें दोनों ही,साथ मिलते से जाएं ?
तराने प्रेम भरे से भला क्यों,ये संग गुनगुनाएं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

इक शून्य से ये जन्मी और,विराटता है इसने पाई ,
ये सृष्टि कहाँ से चली,और कहाँ तक हमें ले आई ,
उत्थान,पतन,अमरत्व की,अजब सी ये कहानियां ,
रीतों,गीतों की जीवंत,खिलखिलाती हुई जवानियाँ ,
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।


गुज़रता वक्त क्या है कहता,सुनो तो मन लगा के,
ध्यान से सुनो तो ज़रा,भावों का प्रेम-दीप जगा के,
कुछ आमंत्रण सा छुपा है,इन बहकती हवाओं में,
शायद राज़ उजागर हैं,हमारी-तुम्हारी वफाओं के,
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

                                                              - जयश्री वर्मा

Monday, September 2, 2019

ज़िन्दगी में ढली मैं

माँ की कोख में रची मैं,ज़िन्दगी में ढली मैं ,
पिता की बाहों के पालने में,खेली-पली मैं ,
आँगन की चिरैया सी,चहक-चहक डोली ,
मीठी सी मुस्कान संग,खिलौनों की झोली।

भाई-बहन के रिश्ते का,पाया ढेर सारा प्यार ,
सखियों संग सवालों,और जवाबों की बहार ,
हर पल-दिन गुज़रा,ढलीं चांदनी सी रातें भी ,
यूँ बदले कई मौसम,गुज़रीं कई बरसातें भी।

ख़्वाब हुए जवान जब,यौवन ने रंग दिखाया,
कल्पनाओं ने तिलस्मयी,जहान इक बनाया,
सपने क्या थे बस,इक जादुई सी दुनिया थी ,
सतरंगी ख़्वाबों से भरी,दिल की पुड़िया थी।

फिर माँ की चिंता और बाबुल का था हिसाब ,
पसंदी न पसंदी के,अजीब से सवाल-जवाब ,
फिर सात फेरों संग,बेटियां पराई बनाने की ,
ऐसी ही तो ये रीत है,घर-आँगन छुड़ाने की।

संग आई थी प्रीत लिए,हर रिश्ता निभाने को ,
पर दिखीं तौलती सी निगाहें,बातें उलझाने को ,
तमाम उम्मीदें थीं,जिम्मेदारियों का बोझ था ,
बात-बात पे टिप्पणी थी,ताना और क्रोध था।

ख़ुशी,उत्साह,ख़्वाबों ने,जैसे उदासियाँ ओढ़ीं ,
प्रश्न,प्रश्न और प्रश्नों ने,उम्मीदें सारी ही तोड़ीं,
अकेले ही चलना था,अकेले ही सम्हलना था ,
ससुराल के नियमों में,अकेले ही ढलना था।

जो अपना बनाने को लाए थे,तो अपना बनाते ,
पराया कह पुकारा,क्यों ये शिकवा,शिकायतें,
बेटे संग उसकी सहचरी को भी,गले से लगाते ,
वंश बढ़ाने वाली का,काश सम्मान भी बढ़ाते।

तो न घटतीं बेटियां,न चढ़तीं दहेज़ की बलि ,
बेटी पैदा होने पे,घरों में न मचती यूँ खलबली ,
न समाज में असुरक्षित यूँ,माहौल ही मिलता ,
दोयम दर्जे का अहसास,यूँ मन में न पलता।

तो जीवन के मायने,अलग ही कुछ और होते ,
बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप,यूँ कभी न रोते ,
बेटी के आगमन पे भी,घरों में जश्न खूब मनाते ,
गर बहू-बेटियों को भी,हम बेटों सा अपनाते।

                                               - जयश्री वर्मा