माँ की कोख में रची मैं,ज़िन्दगी में ढली मैं ,
पिता की बाहों के पालने में,खेली-पली मैं ,
आँगन की चिरैया सी,चहक-चहक डोली ,
मीठी सी मुस्कान संग,खिलौनों की झोली।
भाई-बहन के रिश्ते का,पाया ढेर सारा प्यार ,
सखियों संग सवालों,और जवाबों की बहार ,
हर पल-दिन गुज़रा,ढलीं चांदनी सी रातें भी ,
यूँ बदले कई मौसम,गुज़रीं कई बरसातें भी।
ख़्वाब हुए जवान जब,यौवन ने रंग दिखाया,
कल्पनाओं ने तिलस्मयी,जहान इक बनाया,
सपने क्या थे बस,इक जादुई सी दुनिया थी ,
सतरंगी ख़्वाबों से भरी,दिल की पुड़िया थी।
फिर माँ की चिंता और बाबुल का था हिसाब ,
पसंदी न पसंदी के,अजीब से सवाल-जवाब ,
फिर सात फेरों संग,बेटियां पराई बनाने की ,
ऐसी ही तो ये रीत है,घर-आँगन छुड़ाने की।
संग आई थी प्रीत लिए,हर रिश्ता निभाने को ,
पर दिखीं तौलती सी निगाहें,बातें उलझाने को ,
तमाम उम्मीदें थीं,जिम्मेदारियों का बोझ था ,
बात-बात पे टिप्पणी थी,ताना और क्रोध था।
ख़ुशी,उत्साह,ख़्वाबों ने,जैसे उदासियाँ ओढ़ीं ,
प्रश्न,प्रश्न और प्रश्नों ने,उम्मीदें सारी ही तोड़ीं,
अकेले ही चलना था,अकेले ही सम्हलना था ,
ससुराल के नियमों में,अकेले ही ढलना था।
जो अपना बनाने को लाए थे,तो अपना बनाते ,
पराया कह पुकारा,क्यों ये शिकवा,शिकायतें,
बेटे संग उसकी सहचरी को भी,गले से लगाते ,
वंश बढ़ाने वाली का,काश सम्मान भी बढ़ाते।
तो न घटतीं बेटियां,न चढ़तीं दहेज़ की बलि ,
बेटी पैदा होने पे,घरों में न मचती यूँ खलबली ,
न समाज में असुरक्षित यूँ,माहौल ही मिलता ,
दोयम दर्जे का अहसास,यूँ मन में न पलता।
तो जीवन के मायने,अलग ही कुछ और होते ,
बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप,यूँ कभी न रोते ,
बेटी के आगमन पे भी,घरों में जश्न खूब मनाते ,
गर बहू-बेटियों को भी,हम बेटों सा अपनाते।
- जयश्री वर्मा
पिता की बाहों के पालने में,खेली-पली मैं ,
आँगन की चिरैया सी,चहक-चहक डोली ,
मीठी सी मुस्कान संग,खिलौनों की झोली।
भाई-बहन के रिश्ते का,पाया ढेर सारा प्यार ,
सखियों संग सवालों,और जवाबों की बहार ,
हर पल-दिन गुज़रा,ढलीं चांदनी सी रातें भी ,
यूँ बदले कई मौसम,गुज़रीं कई बरसातें भी।
ख़्वाब हुए जवान जब,यौवन ने रंग दिखाया,
कल्पनाओं ने तिलस्मयी,जहान इक बनाया,
सपने क्या थे बस,इक जादुई सी दुनिया थी ,
सतरंगी ख़्वाबों से भरी,दिल की पुड़िया थी।
फिर माँ की चिंता और बाबुल का था हिसाब ,
पसंदी न पसंदी के,अजीब से सवाल-जवाब ,
फिर सात फेरों संग,बेटियां पराई बनाने की ,
ऐसी ही तो ये रीत है,घर-आँगन छुड़ाने की।
संग आई थी प्रीत लिए,हर रिश्ता निभाने को ,
पर दिखीं तौलती सी निगाहें,बातें उलझाने को ,
तमाम उम्मीदें थीं,जिम्मेदारियों का बोझ था ,
बात-बात पे टिप्पणी थी,ताना और क्रोध था।
ख़ुशी,उत्साह,ख़्वाबों ने,जैसे उदासियाँ ओढ़ीं ,
प्रश्न,प्रश्न और प्रश्नों ने,उम्मीदें सारी ही तोड़ीं,
अकेले ही चलना था,अकेले ही सम्हलना था ,
ससुराल के नियमों में,अकेले ही ढलना था।
जो अपना बनाने को लाए थे,तो अपना बनाते ,
पराया कह पुकारा,क्यों ये शिकवा,शिकायतें,
बेटे संग उसकी सहचरी को भी,गले से लगाते ,
वंश बढ़ाने वाली का,काश सम्मान भी बढ़ाते।
तो न घटतीं बेटियां,न चढ़तीं दहेज़ की बलि ,
बेटी पैदा होने पे,घरों में न मचती यूँ खलबली ,
न समाज में असुरक्षित यूँ,माहौल ही मिलता ,
दोयम दर्जे का अहसास,यूँ मन में न पलता।
तो जीवन के मायने,अलग ही कुछ और होते ,
बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप,यूँ कभी न रोते ,
बेटी के आगमन पे भी,घरों में जश्न खूब मनाते ,
गर बहू-बेटियों को भी,हम बेटों सा अपनाते।
- जयश्री वर्मा
वाहः
ReplyDeleteसुंदर लेखन
बहुत-बहुत धन्यवाद आपका विभा रानी श्रीवास्तव जी !🙏 😊
Deleteबहुत सुंदर! बे
ReplyDeleteबेटी का जीवन, और सुंदर सीख।
सादर धन्यवाद आदरणीय !🙏 😊
Deleteसार्थक कविता
ReplyDeleteसादर आभार आपका ओंकार जी !🙏 😊
Deleteजीवन और रिश्तों के ताने बाने और सामाजिक परिवेश की सच्चाई को बाखूबी शब्दों में उतारा है आपने ... हर छंद सच बयान कर रहा है ... भावपूर्ण रचना ...
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आपका दिगंबर नासवा जी !🙏 😊
Deleteसादर धन्यवाद आपका पम्मी सिंह जी !🙏 😊
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
९ सितंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सादर धन्यवाद आपका स्वेता सिन्हा जी !मेरी कविता "ज़िन्दगी में ढली मैं "को पाँच लिंकों का आनंद में स्थान देने के लिए !🙏 😊
Deleteबहुत सुंदर और हृदयस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद आपका संजय भास्कर जी !🙏 😊
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