Tuesday, December 9, 2014

सब तिलिस्मयी

फूलों के रंगों की छटा कुछ हो चली है सुरमई,
वो भी दिल खोल के खिले जो थे पुष्प छुई-मुई,
कलियों की मुस्कुराहटें हो चलीं हैं रहस्यमयी,
भंवरों की गुनगुनाहट भी हो चली है मनचली।

हवाओं में भी कुछ-कुछ सिहरन सी जागी है,
बागों में बिखरीं चंचलताएं,संग नए साथी हैं,
हाथों में हाथ लिए गूढ़ विश्वास संग डोलते हैं,
साथ-साथ,जीने-मरने के वादे पक्के बोलते हैं।

धरा भी खुद पे रीझती,इठलाती सी है दिख रही,
यहाँ-वहाँ,जहाँ-तहाँ जादू सा जगाती फिर रही,
गेंदा,गुलाब,डहेलिया या गुलदाऊदी,सूरजमुखी,
रंग बिखेर दिए हैं सारे सब के सब तिलिस्मयी।

ऐसे में हर मन के भाव स्वतः ही खुल जाते हैं,
दिल की वीणा के तार स्वतः ही झनझनाते हैं,
बंधन सारे खुल गए,मन-तन्द्रा की तिजोरी के,
वो स्वप्न उजागर हुए,जो देखे थे कभी चोरी से।

मन में छुपाऊं उन्हें पर आतुर नैनों से झांकते हैं,
पारखी तो नैनों को पढ़ के प्रेम गहराई आंकते हैं,
स्वप्न हैं सजीले से कुछ लजीले व कुछ शातिर हैं,
ये वक्त की शिला पे चिन्ह लिखने को आतुर से हैं।

हृदय को मैं लाख रोकूँ कि भावों को यूँ न बहकाओ,
रह-रह के यूँ विचारों को तुम बेलगाम न भटकाओ,
पर दिल विवश हो कहता है कहीं से तुम आ जाओ,
के मेरे साथ सृष्टि की इन खूबसूरतीयों में खो जाओ।

                                                                                                     -  जयश्री वर्मा