Wednesday, March 25, 2020

मैं तुमसे मिली थी


मैं तुमसे मिली थी-
सूरज की लाली की गर्माहट में,
पुष्प-पंखुड़ी की मुस्कराहट में,
कैनवास के रंगों की लकीरों में,
शरारत से भरे नयनों के तीरों में,
झरने से उड़ती हुई शीतलता में,
मन की कमजोर सी अधीरता में,
गीतों की सुरीली सी सुरलहरी में,
दहकते गुलमोहर की दोपहरी में,
कल्पना की आसमानी उड़ान में
संध्याकाल धुंधले से आसमान में,
यादों की सड़क के हर मोड़ में,
क्षितिज के मिले-अनमिले छोर में,
मैं तुमसे मिली थी-
रात इठलाते चाँद की चमक में,
नदिया की लहरों की दमक में,
तितली के तिलस्मयी से पंखों में,
इंद्रधनुष के जादुई सप्त-रंगों में,
नवयौवना की खिलखिलाहट में,
कहानी की अंतरंग लिखावट में,
फूलों से महकती हुई अंजुरी में,
पेड़ से मदहोश लिपटी मंजरी में,
तालाब में तैरती हुई कुमुदनी में,
पंछी कतार छवि मनमोहिनी में,
हरसिंगार के दोरंगे से फूलों में,
और यौवन की मीठी सी भूलों में,
जब भी खूबसूरती की बात हुई-
मैं सच कहती हूँ-
मैं तुमसे मिली थी-
क्या तुमने अब भी नहीं पहचाना,
अरे मैं! हृदय की कोमल भावना।

                                        - जयश्री वर्मा






  

Wednesday, March 11, 2020

फर्क कहाँ है ?

गुलाब लगा हो मंदिर,मस्जिद में या के गिरजाघर में,
जब उसका नाम गुलाब ही रहेगा तो फिर फर्क कहाँ है ?

जो जन्मा है वो जाएगा भी इस जग से कभी न कभी,
जब तब्दील मिट्टी में ही होना है तो फिर फर्क कहाँ है ?

दीप मंदिर,मस्जिद को करे रौशन या गिरजाघर को,
जब उसे उजियारा ही फैलाना है तो फिर फर्क कहाँ है ?

पूजा में हाथ जोड़ें,हाँथ बांधें,या दुआ में ऊपर उठाएं,
जब मांगते सभी सलामती ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

अम्मी कहें,मॉम या के माँ पुकारें अपनी जननी को,
जब माँ की ममता सामान ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?

मनाई जाए ईद,क्रिसमस या त्यौहार हो दिवाली का,
जब उल्लास-उमंग एक सा ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?

कुरान की आयत,कैरोल या के गाएं रामायण चौपाई,
जब कहलाती वो सब प्रार्थना ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?

इन पूजास्थलों के झगड़ों में लोग आए और चले भी गए,
जब कोई कभी न लौटा,न ही लौटेगा तो फिर फर्क कहाँ है ?

ये धर्म-जाति की अनर्गल बातें,बीमार सोच से जन्मी हैं ,
जब सुख-दुःख सबके सामान ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

हिन्दू,मुस्लिम,ईसाई,बहाई या के हो पारसी समुदाय ,
जब कहलाते सब हिन्दुस्तानी ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

सूरज की तपन और चाँद की शीतलता में भेद नहीं है,
जब ये हम सबके लिए सामान ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

हम इंसान हैं और इंसानियत ही बने पहचान हमारी,
जब हम ये आत्मसात कर सकते हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?


                                                                 - जयश्री वर्मा