Monday, September 7, 2020

ये बातें

बातों की क्या कहिये,बातों का है अनंत-अथाह संसार,
जन्म से मृत्यु तक शब्दों से ही,बंधा है जीने का आधार।

ये बातें तोतली ज़ुबान-मा,पा,डा से,शुरू जो होती हैं तो,
बुढ़ापे की बेचैन,अनमनी बुदबुदाहट पर ही,ठहरती हैं। 

हर किसी के जीवन के,हर पहलू की,पहचान हैं ये बातें,
प्रेममयी,कभी तीखी और कभी चुगलखोर,भी हैं ये बातें।

ये स्कूल में,कालेज में,दफ्तरों में,शिकायत रूप बसती हैं,
यहाँ बस मेहनत और ज़िम्मेदारी की,पहचान हैं ये बातें।

ऑटो में,बस,ट्रेन,पार्कों और,किसी भी टिकट विंडो पर,
औपचारिक सी,अनजान सी और मेहमान सी हैं ये बातें।

अस्पताल में,कचहरी,थाने या के दैवीय प्रकोप के आगे,
बेबस सी,सहमी हुई,आंसू संग,सिसकती हुई हैं ये बातें।

जीत की ख़ुशी भरी ठिठोली हो,या महफ़िलें सजीली हों,
तो उत्साह,उमंग में बहकती सी,खिलखिलाती हैं ये बातें।

पार्कों के झुरमुटों में,एकांत या दरवाजों और पर्दों के पीछे,
फुसफुसाती,लजाती,प्रेम के आवेग की परवान हैं ये बातें।

बातों के बादलों से ढंका,इंसान का ये जीवन आसमान है,
जोड़ती हैं कभी रिश्ते,सुलझाती-उलझाती भी हैं ये बातें।

उस परवरदिगार से जब भी,किसी को संपर्क साधना हो,
गीता,कुरआन,बाइबिल या गुरुग्रंथ में,समाधान हैं ये बातें।

                                                                       - जयश्री वर्मा  

Tuesday, August 18, 2020

जो उनकी याद आई

 
आज जो उनकी याद आई,तो आती चली गई 
शाम ख़्वाबों की बदरी छाई,तो छाती चली गई।
 
वो मुस्कुराना आँखों में,बहक जाना बातों में , 
और झूठ पकड़े जाने पे,मुँह छुपाना हाथों से ,
उंगली के इशारे से,दिखाना कोई सुर्ख फूल ,
फिर बालों में सजा लेने की,अदा भी थी खूब। 

आज जो उनकी याद आई,तो आती चली गई 
शाम ख़्वाबों की बदरी छाई,तो छाती चली गई।  

चुपके से आकर पीछे से,आवाज़ देना ज़ोरों से ,
यूँ ही लड़खड़ा के टकराना,सीधे-साधे मोड़ों पे ,
फिर उफ़ कह के सम्हलना,वो शरारतें उनकी ,  
प्रेम की दरकार थी,मैं समझा न उनके मन की।   

आज जो उनकी याद आई,तो आती चली गई ,
शाम ख़्वाबों की बदरी छाई,तो छाती चली गई।

आज की शाम बहुत दूर हूँ,उनके शहर से मैं ,
के उनके बिना खुद को,अधूरा महसूसता हूँ मैं , 
संग-साथ रहते हुए,पता चलती नहीं करीबियां , 
दूर होके खटकती हैं,ये चाहतों की मजबूरियाँ।     

आज जो उनकी याद आई,तो आती चली गई ,
शाम ख़्वाबों की बदरी छाई,तो छाती चली गई। 
 
पता न चला वो दिल के,कैसे इतने करीब हुए ,
बढ़ी नज़दीकियाँ इतनी कि,वो मेरे नसीब हुए ,
इंतज़ार है कि ये घड़ियाँ,जल्दी से गुज़र जाएं ,
और हम अपना हालेदिल उनको जाके सुनाएं। 
 
आज जो उनकी याद आई,तो आती चली गई ,
शाम ख़्वाबों की बदरी छाई,तो छाती चली गई। 

                                              - जयश्री वर्मा
 
 
 


Monday, July 27, 2020

खुद पे गुरूर

घुमड़ के,और घिर-घिर,जो मेघ आने लगे हैं,
ये तन-मन भिगा के,नई चेतना जगाने लगे हैं,
सुलगते हुए भावों को यूँ,शीतल कर डाला है,
उम्मीद की नई कोंपल,मन में,उगाने लगे हैं।

भागती-हाँफती राहें,अब ठहरने सी लगी हैं,
नई राहों के निशान,इंगित करने सी लगी हैं,
के बिखरने लगे थे लम्हे,सम्हलने की चाह में,
अब रुकने की इक छाँव,नज़र आने लगी है।

मौसमों की रुखाई ने,नया रुख जो मोड़ा है,
जीवंतता की तरफ,दिल का नाता जोड़ा है,
मुस्कानों ने उदासियों को,कहीं पीछे छोड़ा है ,
बागों से रिश्ता,अब बन रहा थोड़ा-थोड़ा है।

मौसमों की सरसराहटें,सन्देश नया लाईं हैं,
मन में सोई सी उम्मीदें,फिर से सुगबुगाई हैं,
फिर से बहक जाने को,मन मचलने लगा है,
अरसे बाद अरमां जागे हैं,जुबां गुनगुनाई है।

मुरझाया सा जीवन,शीतल फुहार चाहता था,
ये रातों के वीरानों में,स्नेहिल पनाह मांगता था,
आपसे जुड़ हृदय-भाव,कुछ मुखर हो चले हैं ,
अंगड़ाई ले मन मयूर,फिर मचलना चाहता है।

अपनी निगाहों से,आपने कहा तो कुछ ज़रूर है ,
मन पर काबिज़ हुआ आपके वज़ूद का सुरूर है ,
के इक हलचल सी रंगों की,जीवन पे मेरे छाई है ,
आखिर यूँ ही नहीं हो चला,मुझे खुद पे गुरूर है।

                                                            -  जयश्री वर्मा





Saturday, June 27, 2020

छलकते से सागर


सुनो तो! लफ्ज़ हैं अनेकों,और ये बातें हैं असंख्य ,
तुम्हारे,मेरे हृदय के बीच,धड़कते भाव है अनंत ,
इन भावों को मिल जाने दो,न रहने दो अनजान ,
गर जो तुम मेरी सुनोगे,तो अफ़साने बनेंगे और ।

ये बारिशें,ये वादियाँ,और ये फूलों के अदभुत रंग ,
धरा की रहस्यमई,अंगड़ाइयों के ये नवीन से ढंग ,
के चलो गुनगुनाएं तराने,इन वादियों में खो जाएं ,
गर मेरी नजर से देखो,तो ये बहारें दिखेंगी और। 

रात-दिन,और इस साँझ संग,धुंधलके का घुलना ,
क्षितिज पे खोए से,धरती-आकाश का ये मिलना ,
कहना इक दूजे से,कि तुम हरदम ही संग रहना ,
विचारों में,मुझ संग बहोगे,तो एहसास होंगे और। 

ये बातें,ये मचलना,और ये हंसना-खिलखिलाना,
ये बेख़याली,हक़ जताना और ये रूठना-मनाना,
पलकें,ये गेसू घनेरे,ये हथेलियों में चेहरा छुपाना ,
मेरे नाम करोगे तो ज़िन्दगी के गीत ढलेंगे और।

मुझे सौंप दो,ये ख़ूबसूरती के,छलकते से सागर ,
ज़िन्दगी का सफर,सनम! लम्बा,दुरूह है मगर ,
मैं परवाना नहीं,जो बीच राह,साथ छोड़ूँ तुम्हारा ,
साया बनूँगा,संग चलूँगा,राहें खुशनुमा होंगी और।

कुछ भी कहो ये दिलीभाव समझते तो तुम भी हो,
मौसम के प्यार की पुकार परखते तो तुम भी हो,
इस कदर अनजान बनके छुपने से क्या फायदा ,
अपने दिल की सुनोगे तो बंधन के रंग बनेंगे और।


                                                       - जयश्री वर्मा








Friday, June 19, 2020

हमने छोड़ दिया

अपने दिल की गहराइयों में,हम डूबे भी उतराए भी, 
जो ज़ख्म मिले,कुछ दिखाए,कुछ खुद सहलाए भी, 
वो अनजान ऐसे बनके रहे,जैसे कुछ जानते ही न हों,
हमने भी दिल की राहों पे,ख्वाहिशों को छोड़ दिया। 
 
मौसम कई आए और,मन झिझोड़ के चले भी गए,
हम मुस्कुराए भी अकेले,कभी आंसुओं में डूब गए,
कई हादसे रह-रह कर,मेरे दिल के साथ ऐसे गुज़रे,    
के हमने भी दिन-रात का,हिसाब रखना छोड़ दिया। 

कभी सोचा वो मिलेंगे तो,ये कहेंगे और ऐसे कहेंगे,
शिकवे सारे उनकी बेख़याली के,गिना के ही रहेंगे,
कहेंगे कि किस तरह से,हम उनके गम में रहे डूबे,  
उलाहने बढ़े इस कदर,के सब सोचना छोड़ दिया। 

के उनको पा लेने की,बड़ी शिद्दत से तमन्ना की मैंने, 
रातें पलकों में काटीं,बेचैन हो के करवटें बदलीं मैंने, 
बार-बार दर्पण से,अपनी खूबसूरती की गवाही पूछी, 
अब उनकी निगाह से,खुद को आंकना छोड़ दिया।  

वक्त गुज़रा और,अपनी नादानियों पे हंसी भी आई, 
के उम्र की एक लहर जब गुज़री,तो दूसरी भी आयी, 
मेरी वफ़ाएं,मेरी मोहब्बत,मेरी ख्वाहिशें मेरी ही रहीं, 
अब हमने अपनी यादों में उन्हें बुलाना ही छोड़ दिया। 

                                                          - जयश्री वर्मा  

Thursday, June 4, 2020

जुस्तजुएँ हज़ार हैं



माँ-बाप से चाहत है हर क्षण दुलार की ,  
मित्र संग अटूट गलबहियों के हार की , 
हंसी,खेल,लड़कपन,आनंद हो अपार, 
बचपन न सहे कभी भी दुःखों का भार,
चाहे बस खुशियों से भरा जीवन संसार 
आशा,उम्मीदों से सजा भविष्य का द्वार,
ये ज़िन्दगी है इक स्वप्निल उड़ान,और जुस्तजुएँ हजार हैं। 

जवाँ सपनों संग जवाँ सारा जहान है ,
आसमान से ऊँचे दिल के अरमान हैं ,
हँसी दिलकश कोई,अंतर्मन झिंझोड़े ,
साथी की तलाश को उमंगें जब मोड़ें, 
पीढ़ियाँ सहेजकर,उनको सम्हालना ,
अपना सब भूल उनके ख्वाब पालना,
ये ज़िन्दगी बनी इक ज़िम्मेदारी और जुस्तजुएँ हज़ार हैं। 

बीती जवानी और बीते दिन सुनहरे,
ख़ुशी की चाहत थी,घाव मिले गहरे,
तोलता हूँ जब जीवन,कैसा बीता है,
कितना ये भरा और कितना रीता है,
घूमा इन हांथों में रेत सा समय लिए,
प्रयास अथक,पर हाथ खाली से हुए,
ये ज़िन्दगी बनी इक रिक्तता और जुस्तजुएँ हजार हैं। 

आँखें हैं मुंद रहीं,धुंधलाते से विचार हैं,
फरेब सब लग रहा,कैसी जीत-हार है,
कैसे हक़ से रहा मेरा-मेरा कहते हुए,
ऐसा क्यों लग रहा मुद्दतें हुईं जिए हुए,
सब यहीं छूट रहा ये मन क्यूँ रंजीदा है,
मेरा क्या था जग में,सवाल ये जिन्दा है,
के ये साँसें हैं गिनी चुनी और सवाल कई हज़ार हैं। 

कुछ साँसें जो बढ़ जाएं ऐसा कर लूँगा,
जो नाते तोड़े थे स्नेह से फिर भर दूंगा ,
अहम् के आगे मैंने सब बौना माना था,
हठ और गर्व जिया सब आना-जाना था,
फिर इच्छा जागी है,बचपन में जाने की,
खो जो दिया कहीं,वो फिर से पाने की,
पर अब साँसें हैं उखड़ रहीं और जुस्तजुएँ हज़ार हैं। 

                                                      - जयश्री वर्मा  
   
  

 
  


Wednesday, April 15, 2020

आना-जाना लगा रहेगा

सुख-दुःख हैं जीवन के साथी,ये आना-जाना लगा रहेगा।

खुशी आए,जी भरके जी लो,
हँस लो,खेलो,उमंगें भर लो,
दीप जलाओ,पुष्प बिछाओ,
मिल जुल,एक दूजे के साथ,
बाँटो खुशियाँ,मौज उड़ाओ,
हरियाला सावन,पतझड़ सूना,ये आना-जाना लगा रहेगा।

दुःख आए तो,मत घबराना,
कुछ पल ही,ठहरेगा ये भी,
धैर्य धरना,मन हार न जाना,
दिल में,न पीर बसाना तुम,
आंसू आएँ,तो बह जाने दो,
रात अँधेरी फिर सुबह सुनहरी,ये आना-जाना लगा रहेगा।

जीवन सुख,दुःख का है झूला,
दुःख इसपार,तो सुख उसपार
संतुलन साधो,सब सध जाएगा,
और सुख घूम,इस पार आएगा ,
समय बदलेगा,लगेगी देर नहीं,
पूस की ठिठुरन,जेठ की गर्मी,ये आना-जाना लगा रहेगा।

जन्म-मृत्यु,तो है निश्चित सबकी,
इस बीच की कहानी,लिखनी है,
मन माफिक,जो गढ़ ली जैसी,
वो गाथा,बस वैसी ही बननी है,
ईश्वर से,कैसा शिकवा करना ?
जन्म के सोहर,मृत्यु से बिछड़न,ये आना-जाना लगा रहेगा।

अपनाना,ठुकराना,रिश्ते बुनना,
हठ,स्नेह,दगा,दोस्ती,राहें चुनना,
प्यार,त्याग,मिलना,खोना,पाना,
कहना,सुनना,रूठना,समझाना,
जीवन है अनुभव,ये बातें गुनना,
साँसों का चलना,साँसों का थमना,ये आना-जाना लगा रहेगा।

सुख-दुःख हैं जीवन के साथी,ये आना-जाना तो लगा रहेगा।

                                                             - जयश्री वर्मा 

Wednesday, March 25, 2020

मैं तुमसे मिली थी


मैं तुमसे मिली थी-
सूरज की लाली की गर्माहट में,
पुष्प-पंखुड़ी की मुस्कराहट में,
कैनवास के रंगों की लकीरों में,
शरारत से भरे नयनों के तीरों में,
झरने से उड़ती हुई शीतलता में,
मन की कमजोर सी अधीरता में,
गीतों की सुरीली सी सुरलहरी में,
दहकते गुलमोहर की दोपहरी में,
कल्पना की आसमानी उड़ान में
संध्याकाल धुंधले से आसमान में,
यादों की सड़क के हर मोड़ में,
क्षितिज के मिले-अनमिले छोर में,
मैं तुमसे मिली थी-
रात इठलाते चाँद की चमक में,
नदिया की लहरों की दमक में,
तितली के तिलस्मयी से पंखों में,
इंद्रधनुष के जादुई सप्त-रंगों में,
नवयौवना की खिलखिलाहट में,
कहानी की अंतरंग लिखावट में,
फूलों से महकती हुई अंजुरी में,
पेड़ से मदहोश लिपटी मंजरी में,
तालाब में तैरती हुई कुमुदनी में,
पंछी कतार छवि मनमोहिनी में,
हरसिंगार के दोरंगे से फूलों में,
और यौवन की मीठी सी भूलों में,
जब भी खूबसूरती की बात हुई-
मैं सच कहती हूँ-
मैं तुमसे मिली थी-
क्या तुमने अब भी नहीं पहचाना,
अरे मैं! हृदय की कोमल भावना।

                                        - जयश्री वर्मा






  

Wednesday, March 11, 2020

फर्क कहाँ है ?

गुलाब लगा हो मंदिर,मस्जिद में या के गिरजाघर में,
जब उसका नाम गुलाब ही रहेगा तो फिर फर्क कहाँ है ?

जो जन्मा है वो जाएगा भी इस जग से कभी न कभी,
जब तब्दील मिट्टी में ही होना है तो फिर फर्क कहाँ है ?

दीप मंदिर,मस्जिद को करे रौशन या गिरजाघर को,
जब उसे उजियारा ही फैलाना है तो फिर फर्क कहाँ है ?

पूजा में हाथ जोड़ें,हाँथ बांधें,या दुआ में ऊपर उठाएं,
जब मांगते सभी सलामती ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

अम्मी कहें,मॉम या के माँ पुकारें अपनी जननी को,
जब माँ की ममता सामान ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?

मनाई जाए ईद,क्रिसमस या त्यौहार हो दिवाली का,
जब उल्लास-उमंग एक सा ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?

कुरान की आयत,कैरोल या के गाएं रामायण चौपाई,
जब कहलाती वो सब प्रार्थना ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?

इन पूजास्थलों के झगड़ों में लोग आए और चले भी गए,
जब कोई कभी न लौटा,न ही लौटेगा तो फिर फर्क कहाँ है ?

ये धर्म-जाति की अनर्गल बातें,बीमार सोच से जन्मी हैं ,
जब सुख-दुःख सबके सामान ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

हिन्दू,मुस्लिम,ईसाई,बहाई या के हो पारसी समुदाय ,
जब कहलाते सब हिन्दुस्तानी ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

सूरज की तपन और चाँद की शीतलता में भेद नहीं है,
जब ये हम सबके लिए सामान ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?

हम इंसान हैं और इंसानियत ही बने पहचान हमारी,
जब हम ये आत्मसात कर सकते हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?


                                                                 - जयश्री वर्मा

Wednesday, February 26, 2020

मैं स्पंदन हूँ

मैं सृष्टि का जना आधा हिस्सा हूँ,
इस पूर्ण सत्य का पूर्ण किस्सा हूँ,
मैं हर स्त्रीलिंग की पहचान में हूँ,
मैं भूत से भविष्य की जान में हूँ ,
मैं मरियम,आयशा और सीता हूँ,
मैं ही रामायण,कृष्ण की गीता हूँ,
मैं सभी धर्म ग्रन्थ का केंद्र भी हूँ ,
मैं काल का लिखा सत्येंद्र भी  हूँ,  
मैं तुममें,तुममें और तुममें भी हूँ ,
मैं खुदके भी जीवन स्पंदन में हूँ,
मैं इक ममत्व,त्यागपूर्ण जननी हूँ, 
मैं माँ,बेटी,बहन और सहचरी हूँ,
मैं स्त्रीलिंग हूँ,सृष्टि को सहेजे हुए,
मैं कई सभ्यताओं को समेटे हुए,  
मैं तो हूँ जीवन का उन्मुक्त हास,
मैं हूँ अनंत प्रेम की अतृप्त प्यास,
मैं नारी हूँ मैं रिश्तों का बंधन हूँ,
मैं विनाश का इक क्रंदन भी हूँ ,
मैं मंदिर की नौ रुपी देवी भी हूँ,
मैं प्रतिज्ञा की सुलगती वेदी भी हूँ,
मैं अहँकारी के मान का भंजन हूँ,
मैं हर जीवित-जीव का स्पंदन हूँ,     
मैं प्रेमी हृदय की कोमल नायिका,
मैं टूटे मन की हूँ इक सहायिका,   
मैं घर की चौखट का इंतज़ार हूँ ,
मैं समस्त परिवार का प्यार भी हूँ,
मैं श्रेष्ठ श्रृंगार बिछिया-सिन्दूर हूँ,
मैं जितनी पास हूँ उतनी दूर भी हूँ,   
मैं रसोई की स्वादमय खुशबू हूँ,
मैं शिशु की दुनिया की जुस्तजू हूँ,
मैं केंद्र हूँ कवि की कल्पनाओं का, 
मैं रंग कैनवास की अल्पनाओं का ,   
मैं इस सोलर सिस्टम की धड़कन हूँ , 
मैं इकमात्र स्त्रीलिंग ग्रह धरती भी हूँ।

                                         - जयश्री वर्मा



Tuesday, February 18, 2020

आओगे के न आओगो

ये मौसमों का आवाज़ देना,जगाना,बुलाना,हर पल ,
और पलकों संग ख़्वाबों की,लुका-छिपी की हलचल ,
के इन हवाओं का बहना,बिना बंधन हो के बेपरवाह ,
इंतज़ार है तुम्हारा,तुम आओगे या के न आ पाओगे।

मेरे पहलू में बैठो तो ज़रा,बातें कहो-सुनो तो ज़रा ,
मेरे और अपने दिल के,जज़्बातों को,गुनो तो ज़रा ,
कुछ पल अपने ये,मेरे नाम लिख कर के तो देखो ,
फिर नहीं पुकारूंगा,रुकोगे या के न रुक पाओगे।

कुछ अपनी,मौसमों,और इन पंछियों की बात करो ,
के मेरे जज़्बात संग,अपने विश्वास की हामी तो भरो ,
कुछ कदम तो साथ चलो,फिर रहा फैसला तुम्हारा ,
मेरी धड़कनों को सुन पाओगे या के न सुन पाओगे।

ऐसा नहीं है कि,हर कोई ही,गुनहगार हो दुनिया में ,
ये वादा रहा,खुशियाँ ही उगाऊंगा,जीवन बगिया में ,
खरा ही उतरूंगा,हर कदम,अब मर्ज़ी तुम्हारी आगे ,
चाहा तुमने भी है,कह पाओगे या के न कह पाओगे।

यूँ तो तुम्हारे ठिठके कदम भी,अब आगे बढ़ते नहीं हैं,
तुम्हारे ख्वाब भी जो थे तुम्हारे,अब वो तुम्हारे नहीं हैं,
तुम्हारी मन वीणा का,हर तार ही पुकार रहा है मुझे, 
अब है फैसला तुम्हारा,लौटोगे या के न लौट पाओगे।

के आ भी जाओ इस दुनिया की राहें बड़ी बेरहम हैं ,
जहाँ बिछड़े,उसी मोड़ पे,इंतज़ार में अबतक हम हैं ,
इतनी भी कमजोर नहीं है मेरी मुहब्बत की ये ज़मीन,
खाली न जाएगी दिल की पुकार,तुम आ ही जाओगे।                        
                                                                                             -  जयश्री वर्मा

Thursday, February 6, 2020

ऐसा कुछ भी नहीं

क्यों नहीं कह देते जो कोई,मन में आरज़ू है तुम्हारे,
शायद ख़यालात एक जैसे,मिलते हों तुम्हारे-हमारे,
के जो कोई पल बेचैन कर गया हो,तुम्हारे दिल को,
शायद वैसा लम्हा मैने भी अपने ज़ेहन में जिया हो।

कि कहीं तुमने भी तो किसी की,रुसवाई नहीं सही?
और तुम्हारी टूटन की आवाज़,जो है अंदर दबी हुई ,
हमदर्द कोई न मिला तभी,कसक किसी से न कही,
मेरी भी तो अपनी दास्तान,कुछ-कुछ ऐसी ही रही। 

कह डालो आज कि हम दोनों,एक ही जैसे मिले हैं,
लगता है हमारे तुम्हारे,एक से शिक़वे और गिले हैं,
रिश्ते सबके ही स्नेह भरे,अपनत्व पूर्ण तो नहीं होते,
वर्ना भला क्यों अरमान,दिल के दिल में ही सुलगते।

सुख का ही नहीं दुःख का भी,अटूट रिश्ता होता है,
वर्ना क्या ऐसे,एकांत का हाथ थामे,कोई दिखता है?
वीराने में जैसे इक उम्मीद का,फूल खिल आया  है,
शायद वक्त ने हताशा से,बचाने को,हमें मिलाया है। 

न रोको आंसू ये सुलगते हुए,ख्यालातों को बुझाएँगे,
सोच की धुंध को धुल के,नई जीने की राह दिखाएंगे,
कि ऐसा कुछ भी नहीं,जिसे वापस न लाया जा सके,
उदास चेहरे पे मुस्कान को,पुनः खिलाया न जा सके।

फूल आज भी तो खिले हैं,सवेरा आज भी तो उगा है,
के रात बेरहम गुज़री है अभी,चाँद पुराना हो चला है,
क्या अँधेरा कभी रोक सका है,सुबह की लालिमा को?
यूँ ही वक्त भी मिटा देगा,इन लम्हों की कालिमा को।

क्यूँ नहीं भुला सकते,जो भविष्य हमने ही लिखा था ?
क्यूँ न गुज़री बात मान लें,जो रिश्ता अटूट दिखा था ?
हारते नहीं हैं यूँ,कि हर शय से,जूझना आना चाहिए,
ऐसा भी नहीं कि गम को,भुलाने को ज़माना चाहिए।

                                                       -  जयश्री वर्मा