क्यों नहीं कह देते जो कोई,मन में आरज़ू है तुम्हारे,
शायद ख़यालात एक जैसे,मिलते हों तुम्हारे-हमारे,
के जो कोई पल बेचैन कर गया हो,तुम्हारे दिल को,
शायद वैसा लम्हा मैने भी अपने ज़ेहन में जिया हो।
शायद ख़यालात एक जैसे,मिलते हों तुम्हारे-हमारे,
के जो कोई पल बेचैन कर गया हो,तुम्हारे दिल को,
शायद वैसा लम्हा मैने भी अपने ज़ेहन में जिया हो।
कि कहीं तुमने भी तो किसी की,रुसवाई नहीं सही?
और तुम्हारी टूटन की आवाज़,जो है अंदर दबी हुई ,
हमदर्द कोई न मिला तभी,कसक किसी से न कही,
मेरी भी तो अपनी दास्तान,कुछ-कुछ ऐसी ही रही।
और तुम्हारी टूटन की आवाज़,जो है अंदर दबी हुई ,
हमदर्द कोई न मिला तभी,कसक किसी से न कही,
मेरी भी तो अपनी दास्तान,कुछ-कुछ ऐसी ही रही।
कह डालो आज कि हम दोनों,एक ही जैसे मिले हैं,
लगता है हमारे तुम्हारे,एक से शिक़वे और गिले हैं,
रिश्ते सबके ही स्नेह भरे,अपनत्व पूर्ण तो नहीं होते,
वर्ना भला क्यों अरमान,दिल के दिल में ही सुलगते।
लगता है हमारे तुम्हारे,एक से शिक़वे और गिले हैं,
रिश्ते सबके ही स्नेह भरे,अपनत्व पूर्ण तो नहीं होते,
वर्ना भला क्यों अरमान,दिल के दिल में ही सुलगते।
सुख का ही नहीं दुःख का भी,अटूट रिश्ता होता है,
वर्ना क्या ऐसे,एकांत का हाथ थामे,कोई दिखता है?
वीराने में जैसे इक उम्मीद का,फूल खिल आया है,
शायद वक्त ने हताशा से,बचाने को,हमें मिलाया है।
वर्ना क्या ऐसे,एकांत का हाथ थामे,कोई दिखता है?
वीराने में जैसे इक उम्मीद का,फूल खिल आया है,
शायद वक्त ने हताशा से,बचाने को,हमें मिलाया है।
न रोको आंसू ये सुलगते हुए,ख्यालातों को बुझाएँगे,
सोच की धुंध को धुल के,नई जीने की राह दिखाएंगे,
कि ऐसा कुछ भी नहीं,जिसे वापस न लाया जा सके,
उदास चेहरे पे मुस्कान को,पुनः खिलाया न जा सके।
फूल आज भी तो खिले हैं,सवेरा आज भी तो उगा है,
के रात बेरहम गुज़री है अभी,चाँद पुराना हो चला है,
क्या अँधेरा कभी रोक सका है,सुबह की लालिमा को?
यूँ ही वक्त भी मिटा देगा,इन लम्हों की कालिमा को।
क्यूँ नहीं भुला सकते,जो भविष्य हमने ही लिखा था ?
क्यूँ न गुज़री बात मान लें,जो रिश्ता अटूट दिखा था ?
सोच की धुंध को धुल के,नई जीने की राह दिखाएंगे,
कि ऐसा कुछ भी नहीं,जिसे वापस न लाया जा सके,
उदास चेहरे पे मुस्कान को,पुनः खिलाया न जा सके।
फूल आज भी तो खिले हैं,सवेरा आज भी तो उगा है,
के रात बेरहम गुज़री है अभी,चाँद पुराना हो चला है,
क्या अँधेरा कभी रोक सका है,सुबह की लालिमा को?
यूँ ही वक्त भी मिटा देगा,इन लम्हों की कालिमा को।
क्यूँ नहीं भुला सकते,जो भविष्य हमने ही लिखा था ?
क्यूँ न गुज़री बात मान लें,जो रिश्ता अटूट दिखा था ?
हारते नहीं हैं यूँ,कि हर शय से,जूझना आना चाहिए,
ऐसा भी नहीं कि गम को,भुलाने को ज़माना चाहिए।
- जयश्री वर्मा
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-02-2020) को "गमों के बोझ का साया बहुत घनेरा "(चर्चा अंक - 3604) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है ….
अनीता लागुरी 'अनु '
मेरी कविता " ऐसा कुछ भी नहीं "को चर्चा मंच में स्थान देने के लिए आपका सादर धन्यवाद अनीता लागुरी जी !
ReplyDeleteकिस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आपका संजय भास्कर जी !🙏 😊
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