Monday, August 29, 2022

दोनों हथेलियाँ



मेरी दोनों हथेलियाँ अभ्यस्त हैं काम करने की,
ये सुबह से ही काम में जुट जाती हैं,
ये बनाने लगती हैं चाय तुम्हारे लिए,
फैला बिस्तर सहेजती हैं,सलीके के लिए,
फिर सब्ज़ी कोई भी हो,काट,छौंक देती हैं,
रोटी,पराँठा,पूरी सब बेल लेती हैं, 
मुन्नू और तुम्हारा टिफ़िन जो देना है,
फिर झाड़ू,पोंछा,बर्तन,कपड़े धुलना है,
नहाना है और फिर बाज़ार जाना है,
आख़िर शाम को भी तो कुछ खाना है,
बहुत मन करता है इनका कि ये फ़ुरसत से-
आपस में जुड़,ठुड्डी के नीचे लग आराम से बैठें, 
पर अब मुन्नू के होमवर्क का वक़्त है,
आँगन में अम्मा का भी तो तख़्त है,
उनकी देखभाल को भी तो दोनों हथेलियाँ बंधी हैं,
चूक नहीं होती इनसे,इस कदर ये सधी हैं,
शाम तुम्हारे आने पर दरवाज़े की कुंडी खोलेंगी,
और आगे बढ़कर तुमसे हेलमेट और बैग ले लेंगी,
फिर रसोई में जादूगरी दिखाएँगी, 
और सबकी इच्छा का बनाएँगी,पकाएँगी, 
रात सारे काम निपटा,तुम्हारे चेहरे को हाथों में ले,
गृहस्थ जीवन का तक़ाज़ा है,तुम्हें प्यार भी तो करेंगी,
स्वाभाविक है काम की थकान से ये थकेंगी,
और जब कभी तुम,विरक्त भाव से देखोगे,
और जब कभी,मुझपर ध्यान भी नहीं दोगे,
क्यों कि,मुझे काम करते देखना तुम्हारी आदत है,
आख़िर हर औरत के लिए,मुक़र्रर काम ही उसकी इबादत है,
नेह और सम्मान की अभिलाषा में,
अपने होने के अर्थ की पिपासा में,
मेरी पलकों पे भर आए आंसुओं को भी तो,
ये दोनों हथेलियाँ ही पोंछेंगीं,
और अगले दिन सुबह फिर कामों से जूझेंगीं।

                                                     - जयश्री वर्मा 






Saturday, August 6, 2022

जहाँ रह रही हूँ



जहाँ रह रही हूँ माँ मैं,क्या ये घर मेरा नहीं है?
तो कौन सा है घर मेरा,क्या ये दर मेरा नहीं है?

जन्म दिया है तुमने,और पिता ने दिया है अंश,
पाला-पोसा मुझे भी,क्यों भाई सी नहीं हूँ वंश?
पराई है,कहा परिजनों ने,पर किसी ने न रोका?
पराया कह पाला मुझे,और किसी ने न टोका?

जहाँ रह रही हूँ माँ मैं,क्या ये घर मेरा नहीं है?
तो कौन सा है घर मेरा,क्या ये दर मेरा नहीं है?

ससुराल में छोड़ा मुझे,कई अनजाने सवालों में,
खुद को मिटाना है मुझे,कुछ ऐसे ही ख्यालों में,
मैं हूँ यहां पे,निपट अकेली,मेरी कोई न ढाल है,
साजिश व्यक्तित्व मिटाने की,कैसी ये चाल है?

जहाँ रह रही हूँ माँ मैं,क्या ये घर मेरा नहीं है?
तो कौन सा है घर मेरा,क्या ये दर मेरा नहीं है ?

अंग अपना काटा मैंने,पर वंश उनका बढ़ाया है ,
सुपुत्र मेरा नहीं वो,बस पिता का ही कहलाया है,
पहचानती हैं दीवारें,रसोई के बर्तन भी जानते हैं,
उम्र बिता दी जिस घर में,क्यों अपना न मानते है? 

जहाँ रह रही हूँ माँ मैं,क्या ये घर मेरा नहीं है?
तो कौन सा है घर मेरा,क्या ये दर मेरा नहीं है?

साठ पे वृद्धा हुई हूँ जब मैं,ये मेरे बेटे का घर है,
नया वक्त,नयी सोच,और कुछ नई सी सहर है,
मेरी ज़िन्दगी मेरे ख़्वाबों का,मतलब कुछ नहीं?
क्या मान लूँ अब ये मैं कि,मेरा वज़ूद कुछ नहीं?

जहाँ रह रही हूँ माँ मैं,क्या ये घर मेरा नहीं है?
तो कौन सा है घर मेरा,क्या ये दर मेरा नहीं है?

माँ हँसी,माँ मुस्कुराई,सर पे मेरे हाथ नेहभरा फेरा, 
बोली-नारी ही घर है,ये तो सामाजिकता का चेहरा,
धरणी है नारी,केंद्र सभी रिश्तों,हर घर,कुटुम्ब का,
अघोषित हक़ है उसका,उस बिन हर घर है अधूरा।

                                                       - जयश्री वर्मा