Monday, July 27, 2020

खुद पे गुरूर

घुमड़ के,और घिर-घिर,जो मेघ आने लगे हैं,
ये तन-मन भिगा के,नई चेतना जगाने लगे हैं,
सुलगते हुए भावों को यूँ,शीतल कर डाला है,
उम्मीद की नई कोंपल,मन में,उगाने लगे हैं।

भागती-हाँफती राहें,अब ठहरने सी लगी हैं,
नई राहों के निशान,इंगित करने सी लगी हैं,
के बिखरने लगे थे लम्हे,सम्हलने की चाह में,
अब रुकने की इक छाँव,नज़र आने लगी है।

मौसमों की रुखाई ने,नया रुख जो मोड़ा है,
जीवंतता की तरफ,दिल का नाता जोड़ा है,
मुस्कानों ने उदासियों को,कहीं पीछे छोड़ा है ,
बागों से रिश्ता,अब बन रहा थोड़ा-थोड़ा है।

मौसमों की सरसराहटें,सन्देश नया लाईं हैं,
मन में सोई सी उम्मीदें,फिर से सुगबुगाई हैं,
फिर से बहक जाने को,मन मचलने लगा है,
अरसे बाद अरमां जागे हैं,जुबां गुनगुनाई है।

मुरझाया सा जीवन,शीतल फुहार चाहता था,
ये रातों के वीरानों में,स्नेहिल पनाह मांगता था,
आपसे जुड़ हृदय-भाव,कुछ मुखर हो चले हैं ,
अंगड़ाई ले मन मयूर,फिर मचलना चाहता है।

अपनी निगाहों से,आपने कहा तो कुछ ज़रूर है ,
मन पर काबिज़ हुआ आपके वज़ूद का सुरूर है ,
के इक हलचल सी रंगों की,जीवन पे मेरे छाई है ,
आखिर यूँ ही नहीं हो चला,मुझे खुद पे गुरूर है।

                                                            -  जयश्री वर्मा