तुम क्या जानो के ऐसे,तुम्हारे जाने के बाद ,
कैसा बेबस सा हुआ,ये मेरा मन,ये मेरा तन ,
के देहरी पर निगाह,ठहर सी जाती है मेरी ,
जहाँ पे कि पग आहटें,पुकारती हैं तुम्हारी।
गर कुछ भी न था,तो फिर ये संतति हमारी ,
जो है हमारे-अपने प्रेम की अमिट निशानी ,
जिस पर तुम्हारी,झलक का घना पहरा है ,
जो आधा तुम्हारा,और आधा मेरा अपना है।
न जाने कितनी ही रातें,आँखों में जागी हूँ मैं ,
बिन आँसू के रोई हूँ,ऐसी इक अभागी हूँ मैं ,
के दूर होकर भी,मेरे साथ सदा रहते हो तुम ,
मेरी यादों,बातों,साँसों में,सदा बसते हो तुम।
उफ़! इतनी विरक्ति के साथ तुम बने रहे मेरे ?
क्या सब झूठ था?वो समर्पण,वो बाहों के घेरे?
मैं तो स्वयं को हमेशा से ही,धन्य मानती रही,
तुम सिर्फ मेरे हो,बस ये एक सच जानती रही।
कुछ आभास तो हुआ था,पर हृदय न माना था ,
ये दृष्टिभ्रम है इक,मेरे अंतर्मन ने यही जाना था ,
ये नहीं जानती थी कि,यूँ अनहोनी बुला रही हूँ ,
खुद के अन्त की,मैं खुद ही,कहानी बना रही हूँ।
सदा दिल ने माना,मैं जिस्म और जान हो तुम ,
के मेरी इस जीवन-कहानी का,प्रमाण हो तुम ,
तुम्हारे ही साथ में,मैं अपने,ये दिन-रात ढालूँगी,
हाथों में हाथ ले,मैं जीवन के रास्ते निकालूँगी।
भरोसा था मुझे कि मेरा प्यार,कहीं नहीं जाएगा ,
के भला मुझ जैसा सच्चा दिल,कौन नहीं चाहेगा,
बड़ा ही गुरूर था खुदपे,के सब सम्हाल लूँगी मैं ,
नहीं जानती थी के ऐसे किस्मत उछाल लूँगी मैं।
न जाना था ये फरेब,मेरी ही कहानी बन जाएगी,
इस दिल की धड़कन से,भावनाएँ दूर हो जाएँगीं,
अब जाना कैसे,आँखों के ख्वाब,बैरी हो जाते हैं,
और कैसे,जिस्म से,जिस्म के साए,गैर हो जाते हैं।
- जयश्री वर्मा
कैसा बेबस सा हुआ,ये मेरा मन,ये मेरा तन ,
के देहरी पर निगाह,ठहर सी जाती है मेरी ,
जहाँ पे कि पग आहटें,पुकारती हैं तुम्हारी।
गर कुछ भी न था,तो फिर ये संतति हमारी ,
जो है हमारे-अपने प्रेम की अमिट निशानी ,
जिस पर तुम्हारी,झलक का घना पहरा है ,
जो आधा तुम्हारा,और आधा मेरा अपना है।
न जाने कितनी ही रातें,आँखों में जागी हूँ मैं ,
बिन आँसू के रोई हूँ,ऐसी इक अभागी हूँ मैं ,
के दूर होकर भी,मेरे साथ सदा रहते हो तुम ,
मेरी यादों,बातों,साँसों में,सदा बसते हो तुम।
उफ़! इतनी विरक्ति के साथ तुम बने रहे मेरे ?
क्या सब झूठ था?वो समर्पण,वो बाहों के घेरे?
मैं तो स्वयं को हमेशा से ही,धन्य मानती रही,
तुम सिर्फ मेरे हो,बस ये एक सच जानती रही।
कुछ आभास तो हुआ था,पर हृदय न माना था ,
ये दृष्टिभ्रम है इक,मेरे अंतर्मन ने यही जाना था ,
ये नहीं जानती थी कि,यूँ अनहोनी बुला रही हूँ ,
खुद के अन्त की,मैं खुद ही,कहानी बना रही हूँ।
सदा दिल ने माना,मैं जिस्म और जान हो तुम ,
के मेरी इस जीवन-कहानी का,प्रमाण हो तुम ,
तुम्हारे ही साथ में,मैं अपने,ये दिन-रात ढालूँगी,
हाथों में हाथ ले,मैं जीवन के रास्ते निकालूँगी।
भरोसा था मुझे कि मेरा प्यार,कहीं नहीं जाएगा ,
के भला मुझ जैसा सच्चा दिल,कौन नहीं चाहेगा,
बड़ा ही गुरूर था खुदपे,के सब सम्हाल लूँगी मैं ,
नहीं जानती थी के ऐसे किस्मत उछाल लूँगी मैं।
न जाना था ये फरेब,मेरी ही कहानी बन जाएगी,
इस दिल की धड़कन से,भावनाएँ दूर हो जाएँगीं,
अब जाना कैसे,आँखों के ख्वाब,बैरी हो जाते हैं,
और कैसे,जिस्म से,जिस्म के साए,गैर हो जाते हैं।
- जयश्री वर्मा
अत्यंत सादगी से मन के बालसुलभ चुलबुले भावों को , मधुरता से रचना में पिरोया है | बहुत प्यारी रचना के लिए हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आपका संजय भास्कर जी !🙏😊
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