ये अपनों के ही दरमियान,खड़ी दीवार क्यों है ?
के आज आदमी ही,आदमी का शिकार क्यों है ?
मशीनी से जिस्म हुए,भावों के समंदर रीत गए ,
ये भाई-भाई के बीच में,खुली तकरार क्यों है ?
बचपन के दिन नहीं दिखते,अब बेफिक्र,सुनहरे ,
सबको ही शक से देखते हैं नवनिहालों के चेहरे ,
बोल फूटते ही,ये सीखते हैं,फरेबों के ककहरे ,
ये यूँ इक दूजे को,हराने की लगी कतार क्यों है ?
जवानी नहीं है अब,मासूम और शरमाई हुई सी ,
वादे,वफ़ा की बातें,अब करता नहीं है कोई भी ,
सब कुछ ही खुलापन लिए,खुली किताब सा है ,
ये दो दिलों के बीच,बिछा हुआ व्यापार क्यों है ?
बुढ़ापे को निराश्रित होने के,भय की आहट है ,
बस-इंतज़ार,याद,आँसू वृद्धाश्रम की चौखट है ,
के सेवा-सम्मान कैसे,खो गया दुनिया में कहीं ?
ये जीते जी खोदी गई,रिश्तों की मज़ार क्यों है ?
शुष्क से माहौल में जन्मे-पले,बंजर दिल लोग ,
ये फूल-तितली,चाँद-तारों की,बातें नहीं करते ,
क्यूँ अपनी ही तलाश में,भटक रहा है हर कोई ,
के हर ज़िन्दगी को,ज़िन्दगी की तलाश क्यों है ?
ये सवाल कौंधते हैं,हर तरफ,सवालों को लिए ,
बुझते नहीं हैं,टिमटिमाते हुए,आशाओं के दिए ,
इन्हीं आशाओं के सहारे,कट जाती है हर उम्र ,
मुस्कुराहटों को ओढ़े,भविष्य की उम्मीद लिए।
- जयश्री वर्मा
के आज आदमी ही,आदमी का शिकार क्यों है ?
मशीनी से जिस्म हुए,भावों के समंदर रीत गए ,
ये भाई-भाई के बीच में,खुली तकरार क्यों है ?
बचपन के दिन नहीं दिखते,अब बेफिक्र,सुनहरे ,
सबको ही शक से देखते हैं नवनिहालों के चेहरे ,
बोल फूटते ही,ये सीखते हैं,फरेबों के ककहरे ,
ये यूँ इक दूजे को,हराने की लगी कतार क्यों है ?
जवानी नहीं है अब,मासूम और शरमाई हुई सी ,
वादे,वफ़ा की बातें,अब करता नहीं है कोई भी ,
सब कुछ ही खुलापन लिए,खुली किताब सा है ,
ये दो दिलों के बीच,बिछा हुआ व्यापार क्यों है ?
बुढ़ापे को निराश्रित होने के,भय की आहट है ,
बस-इंतज़ार,याद,आँसू वृद्धाश्रम की चौखट है ,
के सेवा-सम्मान कैसे,खो गया दुनिया में कहीं ?
ये जीते जी खोदी गई,रिश्तों की मज़ार क्यों है ?
शुष्क से माहौल में जन्मे-पले,बंजर दिल लोग ,
ये फूल-तितली,चाँद-तारों की,बातें नहीं करते ,
क्यूँ अपनी ही तलाश में,भटक रहा है हर कोई ,
के हर ज़िन्दगी को,ज़िन्दगी की तलाश क्यों है ?
ये सवाल कौंधते हैं,हर तरफ,सवालों को लिए ,
बुझते नहीं हैं,टिमटिमाते हुए,आशाओं के दिए ,
इन्हीं आशाओं के सहारे,कट जाती है हर उम्र ,
मुस्कुराहटों को ओढ़े,भविष्य की उम्मीद लिए।
- जयश्री वर्मा
भविष्य की उम्मीद ने ही तो जिन्दा लाशें बना दिया है हर किसी को...
ReplyDeleteखुली किताब होना अच्छी बात है लेकिन उस किताब में कोरी कचरा पट्टी ही भरी तो बुरा है. आपका लेखन शानदार है.
वृद्ध तो अब किसी को आँखों नहीं सुहाते... इसी व्यथा प्र मैंने भी एक कविता लिखी है आप भी देखें और अपनी उचित प्रतिक्रिया दें- कायाकल्प
आभार आपका मीना भारद्वाज जी "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " मेरी कविता " ये क्यों है ? " को स्थान देने के लिए। 🙏 😊
ReplyDeleteजवानी नहीं अब मासूम सी शरमाई हुई सी
ReplyDeleteये दो दिलों के बीच बिछा हुआ व्यापार क्यों है
स्मायिक प्रस्तुति ......
🙏 😊
Deleteबहुत अच्छी रचना..सार्थक लाज़वाब लेखन।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आपका Sweta sinha जी !🙏 😊
Deleteबहुत सुंदर सृजन है आपका भाव व काव्य दोनों पक्ष संबल हैं ।
ReplyDelete🙏 😊
Deleteसादर धन्यवाद!🙏 😊
ReplyDeleteअत्यंत सुंदर भाव और प्रवाहमयी प्रस्तुति कुछ और पढने की चाह ही रचना की सफ़लता है।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आपका संजय भास्कर जी !🙏 😊
Delete