न जाने कितने जाधव,कितनी विदेशी जेलों में फंसे हैं,
आँखों में झाइयाँ,शरीर है ढांचा,पर बेड़ियों में कसे हैं।
ये गालियों और लातों की रोटी से,मन का पेट भरते हैं ,
कल की आशाएं संजोए ये,रोज तिल-तिल के मरते हैं।
ये रात-रात,दर्द-दहशत संग,ख्यालों में जागा करते हैं ,
और दिन-दिन भर,जान-रहम की,दुआ माँगा करते हैं।
हर त्यौहार,सपनों में ही ये,अपनों के संग-साथ जीते हैं ,
उनके घर भी होली,क्रिसमस,बैसाखी,ईद कहाँ मनते हैं?
घर की दहलीज़ पे,उनकी आहट की उम्मीद पलती है,
पत्नियाँ उहापोह में,तीज-करवाचौथ कर मांग भरती हैं।
कितने बच्चों को अपने पिता की स्मृति ही नहीं कुछ भी,
दया-तिरस्कार ही नियति है,यही उनका जीवन सत्य भी।
बच्चे भी सुनी बातों,और फोटो के संग,यूँ ही पल जाते हैं ,
हालात के संग वे सब,खुद-ब-खुद,बस यूँ ही ढल जाते हैं।
ये बच्चे मन की उम्मीदों को,मन में ही दफ़न कर लेते हैं,
नहीं है पिता का साया,जान के कोई सवाल नहीं करते हैं।
बूढ़े माँ-बाप की आँखों के,उमड़ते समुंदर भी सूख जाते हैं,
अंतिम क्षण में औलाद को,देख पाने के ख्वाब टूट जाते हैं।
देशों की सरकारों के प्रयास भी नाकाम ही साबित होते हैं,
मीडिया वाले बस उम्मीद,कभी असमर्थता का राग रोते हैं।
ऐसे ही,कितने ही जाधव,न जाने,कितनी ही जेलों में फंसे हैं,
जिनका शरीर उनके साथ है,पर दिल अपने देशों में बसे हैं।
- जयश्री वर्मा
आँखों में झाइयाँ,शरीर है ढांचा,पर बेड़ियों में कसे हैं।
ये गालियों और लातों की रोटी से,मन का पेट भरते हैं ,
कल की आशाएं संजोए ये,रोज तिल-तिल के मरते हैं।
ये रात-रात,दर्द-दहशत संग,ख्यालों में जागा करते हैं ,
और दिन-दिन भर,जान-रहम की,दुआ माँगा करते हैं।
हर त्यौहार,सपनों में ही ये,अपनों के संग-साथ जीते हैं ,
उनके घर भी होली,क्रिसमस,बैसाखी,ईद कहाँ मनते हैं?
घर की दहलीज़ पे,उनकी आहट की उम्मीद पलती है,
पत्नियाँ उहापोह में,तीज-करवाचौथ कर मांग भरती हैं।
कितने बच्चों को अपने पिता की स्मृति ही नहीं कुछ भी,
दया-तिरस्कार ही नियति है,यही उनका जीवन सत्य भी।
बच्चे भी सुनी बातों,और फोटो के संग,यूँ ही पल जाते हैं ,
हालात के संग वे सब,खुद-ब-खुद,बस यूँ ही ढल जाते हैं।
ये बच्चे मन की उम्मीदों को,मन में ही दफ़न कर लेते हैं,
नहीं है पिता का साया,जान के कोई सवाल नहीं करते हैं।
बूढ़े माँ-बाप की आँखों के,उमड़ते समुंदर भी सूख जाते हैं,
अंतिम क्षण में औलाद को,देख पाने के ख्वाब टूट जाते हैं।
देशों की सरकारों के प्रयास भी नाकाम ही साबित होते हैं,
मीडिया वाले बस उम्मीद,कभी असमर्थता का राग रोते हैं।
ऐसे ही,कितने ही जाधव,न जाने,कितनी ही जेलों में फंसे हैं,
जिनका शरीर उनके साथ है,पर दिल अपने देशों में बसे हैं।
- जयश्री वर्मा
कितने बच्चों को अपने पिता की स्मृति ही नहीं कुछ भी,
ReplyDeleteदया-तिरस्कार ही नियति है,यही उनका जीवन सत्य भी।
.....बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ लगीं
सादर धन्यवाद आपका संजय भास्कर जी !🙏 😊
Deleteआपने बहुत अच्छा लेखा लिखा है, जिसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteआभार आपका !🙏 😊
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