पिता का अंश हो,प्राण हो,कुल पहचान हो,
घर द्वार की शहनाई हो,धरोहर मेहमान हो,
प्रेम से सिंचित,पोषित,लीलामई मुस्कान हो,
परिवार का सम्मान हो,गर्व हो,अभिमान हो,
मां की दुलारी,पिता की हिम्मत का भान हो,
भ्राता की कलाई का बंध हो,अटूट संबंध हो,
नैनों का इंतजार,प्रेमपूर्ण भाव की गहराई हो,
सब कुछ हो,तो फिर,बेटी कैसे तुम पराई हो?
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कैकेई हो,मंथरा हो,यशोदा हो या देवकी हो,
वेद ज्ञाता गार्गी हो या दृढ़ प्रतिज्ञ यज्ञसेनी हो,
रामायण,महाभारत का आरंभ और अन्त हो,
ऋषियों का मान भंजन हो,मेनका मोहिनी हो,
लक्ष्मी हो,सरस्वती हो,पार्वती सी योगिनी हो,
राधा हो,मीरा हो,या विरक्त कोई जोगिनी हो,
जीवन जन्मदात्री हो,धैर्य हो,धरा हो,पहेली हो,
तो फिर नारी तुम,कैसे अबला हो,अकेली हो?
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प्राण कहो,माया कहो,अव्यक्त प्रेम पिपासा,
चाहत कहो,जीवन बसंत,तन की अभिलाषा,
सौंदर्य,उन्माद,अलौकिक कह,चाहते भी हो,
पुष्प,नदी जैसी तमाम उपमाओं से बांधते हो,
यादों में डूबते,प्रेम में मरते हो,ग्रंथ लिखते हो,
सपनों से,कल्पनाओं से रात दिन सींचते हो,
नारी की कृपा पर निर्भर,अपने इस प्रेम को,
फिर व्यर्थ भला,नियमों में बांध,क्यों भींचते हो?
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- जयश्री वर्मा
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