ज़िन्दगी रंग शब्द Jaishree Verma
Tuesday, November 12, 2024
मेरे यक्ष प्रश्न
Thursday, August 17, 2023
हठी से पाला
Sunday, June 4, 2023
किससे शर्म है ?
Monday, August 29, 2022
दोनों हथेलियाँ
Saturday, August 6, 2022
जहाँ रह रही हूँ
Wednesday, July 20, 2022
आपके ये दो नैना
ये कहना कुछ चाहें,कुछ और ही कह रहे हैं,
आपके ये दो नैना अब,दगाबाज़ हो चले हैं,
तभी तो सबसे नज़रें मिलाने से कतराते हैं,
ये कुछ-कुछ शातिर,और बेईमान हो चले हैं।
के होठों ने शब्दों की,जादूगरी नई सीखी है,
आपकी बातें,कुछ रहस्यमई सी हो चली हैं,
बोल कम हैं,अब मुस्कान से काम ज्यादा है,
मुस्कान भी कुछ अलग अंदाज़ हो चली है।
गुनगुनाने,खिलखिलाने का,नया सा अंदाज़ है,
चूड़ियाँ और पायल भी,जालसाज़ हो चलीं हैं,
ये माथे पर झूलती लट,इक ग़ज़ल हो चली है।
के पलक क्या उठी,ये मौसम बहक सा गया है,
और होंठों पर जैसे,सुर्ख पलाश दहक रहा है,
लौंग का लश्कारा भी तो,हक से दमक रहा है
आप आज के वक्त की,नई पहचान हो चले हैं।
यूँ उठ जाना बीच महफ़िल,चल देना बेख़याल,
के आप जहाँ से गुज़रे,अजब समां बाँध चले हैं,
ज़न्नती फ़रिश्ते भी,नहीं ठहरते हैं,आपके आगे,
आप शायर की,छलकती सी रुबाई हो चले हैं।
के खूबसूर्तियों ने गढ़ी है,शख्सियत ये आपकी,
आप इस कवि की,कल्पना से इतर हो चले हैं।
- जयश्री वर्मा
Wednesday, July 6, 2022
तुम नहीं समझोगे
काश! तुम समझते,इस दिल की ये लगन मेरी ,
रह-रह तुम पे रीझना,और ये मन की अगन मेरी,
जब याद में सुलगना ही,सार्थक सा लगने लगे ,
हर पल कोई इच्छा जगे,बुझे और फिर से जगे।
कुछ यूँ हुआ है कि,मन जैसे हुआ है सूरजमुखी ,
तुम सूरज सरीखे,जिसे निहार होती हूँ मैं सुखी ,
इक अजीब से,अव्यक्त अहसास संग जीती हूँ ,
तुम्हें देखके तुम्हारी छवि को,मैं बूँद-बूँद पीती हूँ।
Monday, April 18, 2022
नया अफसाना
ठिठकना नज़रों का मुझ पर,फिर लजा जाना ,
अनजानी डोर से मुझ संग,यूँ बंधते चले जाना ।
काश के हम मिलके,अपनी नई दास्तान बनाएं ,
इस महकते से मौसम का,नया गीत गुनगुनाएं ,
और लगन अपने दिल की,इक-दूजे को सुनाएं ,
यूँ वक्त से लम्हे चुरा के,नया अफसाना बनाएं।
- जयश्री वर्मा
Sunday, February 20, 2022
लड़की हो तुम
Sunday, December 5, 2021
ज़िन्दगी इक सवाल
ज़िन्दगी क्या है ?
क्या ज़िन्दगी सवाल है ?
शायद ये सवाल है------!
मुझे किसने है भेजा?कहाँ से हूँ मैं आया ?
क्या उद्देश्य है मेरा?ये जन्म क्यूँ है पाया ?
कब तक मैं हूँ यहां?और कहाँ मैं जाऊँगा ?
क्या छूटेगा मुझसे?और क्या मैं पाऊँगा ?
अपना कौन है मेरा?और पराया है कौन ?
किससे बोलूँ मैं?आखिर क्यों रहूँ मैं मौन ?
जिंदगी प्रश्नों से बुना इक जाल है।
हाँ !ज़िन्दगी इक सवाल है !
क्या जिन्दगी खूबसूरत है?
शायद ये ख़ूबसूरत है------
अनन्त ब्रह्माण्ड में विचरती पृथ्वी निराली ,
हर अँधेरी रात्रि उपरान्त सुबह की लाली ,
फूलों संग खेलते हुए ये भँवरे और तितली ,
सप्तरंगी इन्द्रधनुष और चंचल सी मछली ,
मधुर झोंकों संग झूमती बाग की हरियाली,
क्षितिज पे अम्बर से मिले धरती मतवाली।
हाँ !ज़िन्दगी खूबसूरत है !
क्या ज़िन्दगी प्यार है?
शायद ये प्यार है------
रिश्तों का प्यार और सारे बंधनों का सार ,
पाने और चाहने की इक मीठी सी फुहार ,
हौसलों से हासिल इक जीत का उल्लास ,
दुःख,सुख,प्रेम का है ये अनोखा अहसास ,
दोनों हाथों में भरके बहार को समेट लेना ,
कुछ प्यार बांटना कुछ हासिल कर लेना।
हाँ !ज़िन्दगी इक प्यार है !
शायद ये तलाश है ------
कभी खुद के अधूरेपन से सुलग सा गया मैं,
हाँ! ज़िन्दगी इक तलाश है!
क्या ज़िन्दगी कहानी है?
शायद ये कहानी है ------
अनादि काल से जीते-मरते असंख्य अफ़साने,
इतिहास के संग जो सुने-कहे गए जाने-अंजाने,
हर जीवन आपस में मिलती-जुलती कहानी है,
स्वयं से स्वयं को रचने की ये कथा अंजानी है,
हमारा भूत और भविष्य ही हमारी ज़िंदगानी है,
आज की हमारी कहानी ये,कल होनी पुरानी है,
हाँ !ज़िन्दगी इक कहानी है !
अपूर्ण,अतृप्त,अनभिज्ञ,क्यों महसूस होता है?
खूब पढ़ा,परखा फिर भी अजब ये रवानी है,
अब भी उतनी ही अनजानी है।
Monday, May 24, 2021
मैं सम्पूर्ण सार लिए
Monday, April 5, 2021
कह दीजिये
मित्रों ! मेरी यह रचना दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन प्रा० लिमिटेड द्वारा प्रकाशित पत्रिका " मुक्ता " में प्रकाशित हुई है ! आप भी इसे पढ़ें -
न आएगा यूँ ऐसा सन्देश,बार-बार प्यार का,
यौवन की उमंग और,ऐसा मौसम बहार का,
गर जो खिल रहा हो फूल जीवन की डाल पर,
तो झूमने,महकने और बहकने उसे दीजिए।
इन्तजार नहीं करता कोई किसी का उम्र भर,
रस में भीगे हुए पल,छिन,दिन,ये शामो-सहर,
समेट लो ये सब आंचल में,न बिखरने दो इसे,
गर हो अपनेपन का आभास,तो ठहर लीजिये।
नज़र उठ जाती है,और ठहर जाती है किसी पर,
के कुछ और नहीं है,ये संकेत है,कुछ कहता सा,
इन दौड़ते-हाँफते हुए,जीवन के सवालों के लिए,
स्वछंदता को किसी बंधन में,बंध जाने दीजिए।
जो होंठों तक गर कोई बात आई,तो कह दीजिये,
जो दिल कोई अपना सा लगे,उसमें रह लीजिए।
- जयश्री वर्मा
Thursday, February 25, 2021
सुखद एहसास
शब्दों का रह-रह कर के,यूँ बातों में बदलना,
यहाँ-वहाँ,दुनिया-जहान की,बातों का कहना,
यूँही शब्द-शब्द चुनना,और बात-बात बुनना,
तुम संग तुममें ढलना,इक सुखद एहसास है।
मंजिलों की राहें हैं,बड़ी ही उलझी-उलझी सी,
के कभी लगें बोझिल,तो कभी लगें सुलझी सी,
कदम-कदम साथ हो,संग गुँथे हाथों में हाथ हो,
तुम संग यूँ ही टहलना,इक सुखद एहसास है।
वर्षा की मधुर रिमझिम,कली-कली का जगना,
फूल-फूल महकना,और यूँ बगिया का सँवारना,
आना-जाना मौसमों का,क्षितिज का ये मिलना,
तुम संग ये सब देखना,इक सुखद एहसास है।
आकाश का अनंत प्यार,धरा पे खिलके पलना,
तुम संग ये सब समझना,इक सुखद एहसास है।
पंछियों के लौटते झुण्ड,दीप-बाती की सार्थकता,
साँसों के ये गीत-राग,और जीवन की ये मधुरता,
प्रेम की मिठास से भरा,छलकता सा प्रेम प्याला,
असंख्यों की भीड़ बीच,यूँ तुम्हारा मुझसे मिलना,
स्वप्न,प्रेम,ललक,तृप्ति का,अटूट ये बंधन बनना,
उस अदृश्य शक्ति समक्ष,जिसने जहान बनाया है,
तुम संग यूँ नतमस्तक होना,इक सुखद एहसास है।
- जयश्री वर्मा
Monday, September 7, 2020
ये बातें
बातों की क्या कहिये,बातों का है अनंत-अथाह संसार,
जन्म से मृत्यु तक शब्दों से ही,बंधा है जीने का आधार।
ये बातें तोतली ज़ुबान-मा,पा,डा से,शुरू जो होती हैं तो,
बुढ़ापे की बेचैन,अनमनी बुदबुदाहट पर ही,ठहरती हैं।
हर किसी के जीवन के,हर पहलू की,पहचान हैं ये बातें,
प्रेममयी,कभी तीखी और कभी चुगलखोर,भी हैं ये बातें।
ये स्कूल में,कालेज में,दफ्तरों में,शिकायत रूप बसती हैं,
यहाँ बस मेहनत और ज़िम्मेदारी की,पहचान हैं ये बातें।
ऑटो में,बस,ट्रेन,पार्कों और,किसी भी टिकट विंडो पर,
औपचारिक सी,अनजान सी और मेहमान सी हैं ये बातें।
अस्पताल में,कचहरी,थाने या के दैवीय प्रकोप के आगे,
बेबस सी,सहमी हुई,आंसू संग,सिसकती हुई हैं ये बातें।
जीत की ख़ुशी भरी ठिठोली हो,या महफ़िलें सजीली हों,
तो उत्साह,उमंग में बहकती सी,खिलखिलाती हैं ये बातें।
पार्कों के झुरमुटों में,एकांत या दरवाजों और पर्दों के पीछे,
फुसफुसाती,लजाती,प्रेम के आवेग की परवान हैं ये बातें।
बातों के बादलों से ढंका,इंसान का ये जीवन आसमान है,
जोड़ती हैं कभी रिश्ते,सुलझाती-उलझाती भी हैं ये बातें।
उस परवरदिगार से जब भी,किसी को संपर्क साधना हो,
गीता,कुरआन,बाइबिल या गुरुग्रंथ में,समाधान हैं ये बातें।
- जयश्री वर्मा
Tuesday, August 18, 2020
जो उनकी याद आई
Monday, July 27, 2020
खुद पे गुरूर
ये तन-मन भिगा के,नई चेतना जगाने लगे हैं,
सुलगते हुए भावों को यूँ,शीतल कर डाला है,
उम्मीद की नई कोंपल,मन में,उगाने लगे हैं।
भागती-हाँफती राहें,अब ठहरने सी लगी हैं,
नई राहों के निशान,इंगित करने सी लगी हैं,
के बिखरने लगे थे लम्हे,सम्हलने की चाह में,
अब रुकने की इक छाँव,नज़र आने लगी है।
मौसमों की रुखाई ने,नया रुख जो मोड़ा है,
जीवंतता की तरफ,दिल का नाता जोड़ा है,
मुस्कानों ने उदासियों को,कहीं पीछे छोड़ा है ,
बागों से रिश्ता,अब बन रहा थोड़ा-थोड़ा है।
मौसमों की सरसराहटें,सन्देश नया लाईं हैं,
मन में सोई सी उम्मीदें,फिर से सुगबुगाई हैं,
फिर से बहक जाने को,मन मचलने लगा है,
अरसे बाद अरमां जागे हैं,जुबां गुनगुनाई है।
मुरझाया सा जीवन,शीतल फुहार चाहता था,
ये रातों के वीरानों में,स्नेहिल पनाह मांगता था,
अंगड़ाई ले मन मयूर,फिर मचलना चाहता है।
अपनी निगाहों से,आपने कहा तो कुछ ज़रूर है ,
मन पर काबिज़ हुआ आपके वज़ूद का सुरूर है ,
के इक हलचल सी रंगों की,जीवन पे मेरे छाई है ,
आखिर यूँ ही नहीं हो चला,मुझे खुद पे गुरूर है।
- जयश्री वर्मा
Saturday, June 27, 2020
छलकते से सागर
सुनो तो! लफ्ज़ हैं अनेकों,और ये बातें हैं असंख्य ,
तुम्हारे,मेरे हृदय के बीच,धड़कते भाव है अनंत ,
इन भावों को मिल जाने दो,न रहने दो अनजान ,
धरा की रहस्यमई,अंगड़ाइयों के ये नवीन से ढंग ,
के चलो गुनगुनाएं तराने,इन वादियों में खो जाएं ,
रात-दिन,और इस साँझ संग,धुंधलके का घुलना ,
कहना इक दूजे से,कि तुम हरदम ही संग रहना ,
विचारों में,मुझ संग बहोगे,तो एहसास होंगे और।
ये बेख़याली,हक़ जताना और ये रूठना-मनाना,
मेरे नाम करोगे तो ज़िन्दगी के गीत ढलेंगे और।
मुझे सौंप दो,ये ख़ूबसूरती के,छलकते से सागर ,
मैं परवाना नहीं,जो बीच राह,साथ छोड़ूँ तुम्हारा ,
साया बनूँगा,संग चलूँगा,राहें खुशनुमा होंगी और।
कुछ भी कहो ये दिलीभाव समझते तो तुम भी हो,
मौसम के प्यार की पुकार परखते तो तुम भी हो,
इस कदर अनजान बनके छुपने से क्या फायदा ,
अपने दिल की सुनोगे तो बंधन के रंग बनेंगे और।
Friday, June 19, 2020
हमने छोड़ दिया
Thursday, June 4, 2020
जुस्तजुएँ हज़ार हैं
मित्र संग अटूट गलबहियों के हार की ,
हंसी,खेल,लड़कपन,आनंद हो अपार,
बचपन न सहे कभी भी दुःखों का भार,
चाहे बस खुशियों से भरा जीवन संसार
आशा,उम्मीदों से सजा भविष्य का द्वार,
ये ज़िन्दगी है इक स्वप्निल उड़ान,और जुस्तजुएँ हजार हैं।
जवाँ सपनों संग जवाँ सारा जहान है ,
आसमान से ऊँचे दिल के अरमान हैं ,
हँसी दिलकश कोई,अंतर्मन झिंझोड़े ,
पीढ़ियाँ सहेजकर,उनको सम्हालना ,
अपना सब भूल उनके ख्वाब पालना,
ये ज़िन्दगी बनी इक ज़िम्मेदारी और जुस्तजुएँ हज़ार हैं।
बीती जवानी और बीते दिन सुनहरे,
ख़ुशी की चाहत थी,घाव मिले गहरे,
तोलता हूँ जब जीवन,कैसा बीता है,
कितना ये भरा और कितना रीता है,
घूमा इन हांथों में रेत सा समय लिए,
प्रयास अथक,पर हाथ खाली से हुए,
ये ज़िन्दगी बनी इक रिक्तता और जुस्तजुएँ हजार हैं।
आँखें हैं मुंद रहीं,धुंधलाते से विचार हैं,
फरेब सब लग रहा,कैसी जीत-हार है,
कैसे हक़ से रहा मेरा-मेरा कहते हुए,
ऐसा क्यों लग रहा मुद्दतें हुईं जिए हुए,
सब यहीं छूट रहा ये मन क्यूँ रंजीदा है,
मेरा क्या था जग में,सवाल ये जिन्दा है,
के ये साँसें हैं गिनी चुनी और सवाल कई हज़ार हैं।
Wednesday, April 15, 2020
आना-जाना लगा रहेगा
हँस लो,खेलो,उमंगें भर लो,
दीप जलाओ,पुष्प बिछाओ,
मिल जुल,एक दूजे के साथ,
बाँटो खुशियाँ,मौज उड़ाओ,
हरियाला सावन,पतझड़ सूना,ये आना-जाना लगा रहेगा।
कुछ पल ही,ठहरेगा ये भी,
धैर्य धरना,मन हार न जाना,
आंसू आएँ,तो बह जाने दो,
रात अँधेरी फिर सुबह सुनहरी,ये आना-जाना लगा रहेगा।
दुःख इसपार,तो सुख उसपार
संतुलन साधो,सब सध जाएगा,
इस बीच की कहानी,लिखनी है,
मन माफिक,जो गढ़ ली जैसी,
वो गाथा,बस वैसी ही बननी है,
जन्म के सोहर,मृत्यु से बिछड़न,ये आना-जाना लगा रहेगा।
अपनाना,ठुकराना,रिश्ते बुनना,
हठ,स्नेह,दगा,दोस्ती,राहें चुनना,
प्यार,त्याग,मिलना,खोना,पाना,
कहना,सुनना,रूठना,समझाना,
जीवन है अनुभव,ये बातें गुनना,
साँसों का चलना,साँसों का थमना,ये आना-जाना लगा रहेगा।
सुख-दुःख हैं जीवन के साथी,ये आना-जाना तो लगा रहेगा।
- जयश्री वर्मा
Wednesday, March 25, 2020
मैं तुमसे मिली थी
मैं तुमसे मिली थी-
सूरज की लाली की गर्माहट में,
पुष्प-पंखुड़ी की मुस्कराहट में,
कैनवास के रंगों की लकीरों में,
शरारत से भरे नयनों के तीरों में,
झरने से उड़ती हुई शीतलता में,
मन की कमजोर सी अधीरता में,
गीतों की सुरीली सी सुरलहरी में,
दहकते गुलमोहर की दोपहरी में,
कल्पना की आसमानी उड़ान में
संध्याकाल धुंधले से आसमान में,
यादों की सड़क के हर मोड़ में,
क्षितिज के मिले-अनमिले छोर में,
मैं तुमसे मिली थी-
रात इठलाते चाँद की चमक में,
नदिया की लहरों की दमक में,
तितली के तिलस्मयी से पंखों में,
इंद्रधनुष के जादुई सप्त-रंगों में,
नवयौवना की खिलखिलाहट में,
कहानी की अंतरंग लिखावट में,
फूलों से महकती हुई अंजुरी में,
पेड़ से मदहोश लिपटी मंजरी में,
तालाब में तैरती हुई कुमुदनी में,
पंछी कतार छवि मनमोहिनी में,
हरसिंगार के दोरंगे से फूलों में,
और यौवन की मीठी सी भूलों में,
जब भी खूबसूरती की बात हुई-
मैं सच कहती हूँ-
मैं तुमसे मिली थी-
क्या तुमने अब भी नहीं पहचाना,
अरे मैं! हृदय की कोमल भावना।
- जयश्री वर्मा
Wednesday, March 11, 2020
फर्क कहाँ है ?
जब उसका नाम गुलाब ही रहेगा तो फिर फर्क कहाँ है ?
जो जन्मा है वो जाएगा भी इस जग से कभी न कभी,
जब तब्दील मिट्टी में ही होना है तो फिर फर्क कहाँ है ?
दीप मंदिर,मस्जिद को करे रौशन या गिरजाघर को,
जब उसे उजियारा ही फैलाना है तो फिर फर्क कहाँ है ?
पूजा में हाथ जोड़ें,हाँथ बांधें,या दुआ में ऊपर उठाएं,
जब मांगते सभी सलामती ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?
अम्मी कहें,मॉम या के माँ पुकारें अपनी जननी को,
जब माँ की ममता सामान ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?
मनाई जाए ईद,क्रिसमस या त्यौहार हो दिवाली का,
जब उल्लास-उमंग एक सा ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?
कुरान की आयत,कैरोल या के गाएं रामायण चौपाई,
जब कहलाती वो सब प्रार्थना ही है तो फिर फर्क कहाँ है ?
इन पूजास्थलों के झगड़ों में लोग आए और चले भी गए,
जब कोई कभी न लौटा,न ही लौटेगा तो फिर फर्क कहाँ है ?
ये धर्म-जाति की अनर्गल बातें,बीमार सोच से जन्मी हैं ,
जब सुख-दुःख सबके सामान ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?
हिन्दू,मुस्लिम,ईसाई,बहाई या के हो पारसी समुदाय ,
जब कहलाते सब हिन्दुस्तानी ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?
सूरज की तपन और चाँद की शीतलता में भेद नहीं है,
जब ये हम सबके लिए सामान ही हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?
हम इंसान हैं और इंसानियत ही बने पहचान हमारी,
जब हम ये आत्मसात कर सकते हैं तो फिर फर्क कहाँ है ?
- जयश्री वर्मा
Wednesday, February 26, 2020
मैं स्पंदन हूँ
इस पूर्ण सत्य का पूर्ण किस्सा हूँ,
मैं हर स्त्रीलिंग की पहचान में हूँ,
मैं भूत से भविष्य की जान में हूँ ,
मैं स्त्रीलिंग हूँ,सृष्टि को सहेजे हुए,
मैं कई सभ्यताओं को समेटे हुए,
मैं अहँकारी के मान का भंजन हूँ,
मैं हर जीवित-जीव का स्पंदन हूँ,
मैं श्रेष्ठ श्रृंगार बिछिया-सिन्दूर हूँ,
मैं जितनी पास हूँ उतनी दूर भी हूँ,
- जयश्री वर्मा
Tuesday, February 18, 2020
आओगे के न आओगो
और पलकों संग ख़्वाबों की,लुका-छिपी की हलचल ,
के इन हवाओं का बहना,बिना बंधन हो के बेपरवाह ,
इंतज़ार है तुम्हारा,तुम आओगे या के न आ पाओगे।
मेरे पहलू में बैठो तो ज़रा,बातें कहो-सुनो तो ज़रा ,
मेरे और अपने दिल के,जज़्बातों को,गुनो तो ज़रा ,
कुछ पल अपने ये,मेरे नाम लिख कर के तो देखो ,
फिर नहीं पुकारूंगा,रुकोगे या के न रुक पाओगे।
कुछ अपनी,मौसमों,और इन पंछियों की बात करो ,
के मेरे जज़्बात संग,अपने विश्वास की हामी तो भरो ,
कुछ कदम तो साथ चलो,फिर रहा फैसला तुम्हारा ,
मेरी धड़कनों को सुन पाओगे या के न सुन पाओगे।
ऐसा नहीं है कि,हर कोई ही,गुनहगार हो दुनिया में ,
ये वादा रहा,खुशियाँ ही उगाऊंगा,जीवन बगिया में ,
खरा ही उतरूंगा,हर कदम,अब मर्ज़ी तुम्हारी आगे ,
चाहा तुमने भी है,कह पाओगे या के न कह पाओगे।
यूँ तो तुम्हारे ठिठके कदम भी,अब आगे बढ़ते नहीं हैं,
तुम्हारे ख्वाब भी जो थे तुम्हारे,अब वो तुम्हारे नहीं हैं,
तुम्हारी मन वीणा का,हर तार ही पुकार रहा है मुझे,
अब है फैसला तुम्हारा,लौटोगे या के न लौट पाओगे।
के आ भी जाओ इस दुनिया की राहें बड़ी बेरहम हैं ,
जहाँ बिछड़े,उसी मोड़ पे,इंतज़ार में अबतक हम हैं ,
इतनी भी कमजोर नहीं है मेरी मुहब्बत की ये ज़मीन,
खाली न जाएगी दिल की पुकार,तुम आ ही जाओगे।
Thursday, February 6, 2020
ऐसा कुछ भी नहीं
शायद ख़यालात एक जैसे,मिलते हों तुम्हारे-हमारे,
के जो कोई पल बेचैन कर गया हो,तुम्हारे दिल को,
शायद वैसा लम्हा मैने भी अपने ज़ेहन में जिया हो।
और तुम्हारी टूटन की आवाज़,जो है अंदर दबी हुई ,
हमदर्द कोई न मिला तभी,कसक किसी से न कही,
मेरी भी तो अपनी दास्तान,कुछ-कुछ ऐसी ही रही।
लगता है हमारे तुम्हारे,एक से शिक़वे और गिले हैं,
रिश्ते सबके ही स्नेह भरे,अपनत्व पूर्ण तो नहीं होते,
वर्ना भला क्यों अरमान,दिल के दिल में ही सुलगते।
वर्ना क्या ऐसे,एकांत का हाथ थामे,कोई दिखता है?
वीराने में जैसे इक उम्मीद का,फूल खिल आया है,
शायद वक्त ने हताशा से,बचाने को,हमें मिलाया है।
सोच की धुंध को धुल के,नई जीने की राह दिखाएंगे,
कि ऐसा कुछ भी नहीं,जिसे वापस न लाया जा सके,
उदास चेहरे पे मुस्कान को,पुनः खिलाया न जा सके।
फूल आज भी तो खिले हैं,सवेरा आज भी तो उगा है,
के रात बेरहम गुज़री है अभी,चाँद पुराना हो चला है,
क्या अँधेरा कभी रोक सका है,सुबह की लालिमा को?
यूँ ही वक्त भी मिटा देगा,इन लम्हों की कालिमा को।
क्यूँ नहीं भुला सकते,जो भविष्य हमने ही लिखा था ?
क्यूँ न गुज़री बात मान लें,जो रिश्ता अटूट दिखा था ?
Friday, November 29, 2019
चाहत हो जाती हूँ
सप्तरंगी इंद्रधनुष,
खुश्बुएं हजार किस्म,
भिन्न रूप-आकार लिए,
खिलती हूँ,खिलखिलाती हूँ,
प्रकृति के फूलों की महक सी,
मनमोहक बनके दिलों में समाती हूँ,
जन्म से अंत तक बस रौनकें जगाती हूँ,
जब कभी मैं पुष्प सी मनोकामना हो जाती हूँ।
अपने मन-पंखों में,
यहाँ-वहाँ पवन सुगंध-संग,
घूम-घूम,दूर पुष्पों में रम जाना,
इतराना,खुद में ही खोए हुए इठलाना,
नयनों की इक कोमल कामना हो जाती हूँ,
के नेत्रों के रास्ते उतर,सभी दिलों में समाती हूँ,
जब कभी भी मैं तितली सी शोख़ चंचल हो जाती हूँ।
मधुर से गीत-सुर,
जादुई शब्द-जाल बुन,
लहरियों के उतार-चढ़ाव,
ऊँचे से ऊँचे और नीचे से नीचे,
हर जन मानस की मन-तन्द्रा पे छा जाती हूँ,
जब मैं मधुर संगीत की इक सुरलहरी हो जाती हूँ।
ऊँचे पर्वतों के हौसले,
गहरी सी सागर कि साँसें,
वृक्ष,पुष्प,झरने,बादलों का बहकना,
डूबते सूरज के रंग संग,पवन का महकना,
जीवनपूर्ण रिमझिम के संग खुशियां बढ़ाती हूँ,
जब मैं प्रेम और त्यागमयी धरती सी बन जाती हूँ।
- जयश्री वर्मा
Friday, November 8, 2019
बहुत कुछ अनकही
रात बड़ी खामोश थी पर,बहुत कुछ अनकही कह गयी,
उफ़ भी न बोली और , बहुत कुछ असहनीय सह गयी ।
माँ की आधी लोरी के बीच,सोया हुआ नन्हा सा बच्चा,
प्रिय का किया वादा,थोड़ा सा झूठा और थोड़ा सच्चा।
मंत्रियों की राजनीतिक बातें,और बातों की गहरी घात,
दिन भर की झिकझिक,रात शराब संग हुई बरदाश्त।
बेला की मादक खुशबू,घुंघरूओं की छलिया छन-छन,
हर वर्ग के आदत से लाचार,पहुँच जाते हैं वहां बन-ठन।
मन की गन्दगी के वशीभूत,तन की गन्दगी में लोटते हैं,
घर पर राह तकती पत्नी के,मन में डर के घाव फूटते हैं।
रौशनियों में डूबी,खिलखिलाहटों की दर्द भरी रवानी है,
पलभर खुशी की तलाश की,लुटने-लुटाने की कहानी है।
किसी के हाथ मेहँदी सजी,कोई विवाह के नाम जल गयी,
जीवन संगिनी थी,तो फिर क्यों,दहेज की बलि चढ़ गयी ।
बड़े-बड़े खिलाड़ियों के खेलों की,होती करोड़ों की सेटिंग,
कौन कितना खेलेगा उसके ही,हिसाब से है उसकी रेटिंग।
कभी राज़ को राज़ रखने के बदले,कोई जान ली जाती है,
फिर अगले दिन उजाले में,झूठी तहकीकात की जाती है।
दशहरा,दुर्गापूजा,रमजान,क्रिसमस के,जश्न भी तो होते हैं,
कहीं बहुतों को समेटे गोद में,सुलगते शमशान भी रोते हैं।
कहीं घरों में चुपचाप खौफ़नाक,इरादों संग लुटेरे घुसते हैं,
निरीह,एकाकी बुज़ुर्ग,लाचार उनकी,दरिंदगी में पिसते हैं।
कहीं पे झाड़-फूंक,गंडे-ताबीजों की,तांत्रिक लीलाएं होती हैं,
कहीं धूनी रमाते बाबाओं की,खौफ़नाक रासलीलाएँ होती हैं।
सड़कों पर रातों में दौड़ती,100 नंबर पुलिस गश्त करती है,
मगर वो वारदातियों को कभी भी,रंगे हाथों नहीं पकड़ती है।
रात बड़ी खामोश थी पर,बहुत कुछ कहा,अनकहा कह गयी,
उफ़ भी न बोली ये,और बहुत कुछ,असहनीय सा सह गयी ।
( जयश्री वर्मा )
Tuesday, September 17, 2019
कुछ-कुछ जाना है
तितलियाँ भी क्यों रंग जादुई,परों में हैं भरतीं ?
डाल-डाल क्यों रुकतीं,और फिर से हैं चलतीं ?
कोयल कुहू-कुहू क्यों,मतवाले गीत है गए ?
पपीहे की पीहू-पीहू क्यों,यूँ शोर सा मचाए ?
डालियाँ पवन संग क्यों यूँ,झूम-झूम हैं जाएं ?
सर-सर के मदभरे से क्यों,गीत फ़ुसफ़ुसाएं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।
हरी-भरी चादर ओढ़ के.ये धरा क्यों इतराए ?
आकाश भी धरा पे क्यों,रीझा-रीझा सा जाए ?
क्षितिज पे लगें दोनों ही,साथ मिलते से जाएं ?
तराने प्रेम भरे से भला क्यों,ये संग गुनगुनाएं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।
इक शून्य से ये जन्मी और,विराटता है इसने पाई ,
ये सृष्टि कहाँ से चली,और कहाँ तक हमें ले आई ,
उत्थान,पतन,अमरत्व की,अजब सी ये कहानियां ,
रीतों,गीतों की जीवंत,खिलखिलाती हुई जवानियाँ ,
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।
गुज़रता वक्त क्या है कहता,सुनो तो मन लगा के,
ध्यान से सुनो तो ज़रा,भावों का प्रेम-दीप जगा के,
कुछ आमंत्रण सा छुपा है,इन बहकती हवाओं में,
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।
Monday, September 2, 2019
ज़िन्दगी में ढली मैं
पिता की बाहों के पालने में,खेली-पली मैं ,
आँगन की चिरैया सी,चहक-चहक डोली ,
मीठी सी मुस्कान संग,खिलौनों की झोली।
भाई-बहन के रिश्ते का,पाया ढेर सारा प्यार ,
सखियों संग सवालों,और जवाबों की बहार ,
हर पल-दिन गुज़रा,ढलीं चांदनी सी रातें भी ,
यूँ बदले कई मौसम,गुज़रीं कई बरसातें भी।
ख़्वाब हुए जवान जब,यौवन ने रंग दिखाया,
कल्पनाओं ने तिलस्मयी,जहान इक बनाया,
सपने क्या थे बस,इक जादुई सी दुनिया थी ,
सतरंगी ख़्वाबों से भरी,दिल की पुड़िया थी।
फिर माँ की चिंता और बाबुल का था हिसाब ,
पसंदी न पसंदी के,अजीब से सवाल-जवाब ,
फिर सात फेरों संग,बेटियां पराई बनाने की ,
ऐसी ही तो ये रीत है,घर-आँगन छुड़ाने की।
संग आई थी प्रीत लिए,हर रिश्ता निभाने को ,
पर दिखीं तौलती सी निगाहें,बातें उलझाने को ,
तमाम उम्मीदें थीं,जिम्मेदारियों का बोझ था ,
बात-बात पे टिप्पणी थी,ताना और क्रोध था।
ख़ुशी,उत्साह,ख़्वाबों ने,जैसे उदासियाँ ओढ़ीं ,
प्रश्न,प्रश्न और प्रश्नों ने,उम्मीदें सारी ही तोड़ीं,
अकेले ही चलना था,अकेले ही सम्हलना था ,
ससुराल के नियमों में,अकेले ही ढलना था।
जो अपना बनाने को लाए थे,तो अपना बनाते ,
पराया कह पुकारा,क्यों ये शिकवा,शिकायतें,
बेटे संग उसकी सहचरी को भी,गले से लगाते ,
वंश बढ़ाने वाली का,काश सम्मान भी बढ़ाते।
तो न घटतीं बेटियां,न चढ़तीं दहेज़ की बलि ,
बेटी पैदा होने पे,घरों में न मचती यूँ खलबली ,
न समाज में असुरक्षित यूँ,माहौल ही मिलता ,
दोयम दर्जे का अहसास,यूँ मन में न पलता।
तो जीवन के मायने,अलग ही कुछ और होते ,
बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप,यूँ कभी न रोते ,
बेटी के आगमन पे भी,घरों में जश्न खूब मनाते ,
गर बहू-बेटियों को भी,हम बेटों सा अपनाते।
- जयश्री वर्मा
Monday, August 26, 2019
तुम्हारे जाने के बाद
कैसा बेबस सा हुआ,ये मेरा मन,ये मेरा तन ,
के देहरी पर निगाह,ठहर सी जाती है मेरी ,
जहाँ पे कि पग आहटें,पुकारती हैं तुम्हारी।
गर कुछ भी न था,तो फिर ये संतति हमारी ,
जो है हमारे-अपने प्रेम की अमिट निशानी ,
जिस पर तुम्हारी,झलक का घना पहरा है ,
जो आधा तुम्हारा,और आधा मेरा अपना है।
न जाने कितनी ही रातें,आँखों में जागी हूँ मैं ,
बिन आँसू के रोई हूँ,ऐसी इक अभागी हूँ मैं ,
के दूर होकर भी,मेरे साथ सदा रहते हो तुम ,
मेरी यादों,बातों,साँसों में,सदा बसते हो तुम।
उफ़! इतनी विरक्ति के साथ तुम बने रहे मेरे ?
क्या सब झूठ था?वो समर्पण,वो बाहों के घेरे?
मैं तो स्वयं को हमेशा से ही,धन्य मानती रही,
तुम सिर्फ मेरे हो,बस ये एक सच जानती रही।
कुछ आभास तो हुआ था,पर हृदय न माना था ,
ये दृष्टिभ्रम है इक,मेरे अंतर्मन ने यही जाना था ,
ये नहीं जानती थी कि,यूँ अनहोनी बुला रही हूँ ,
खुद के अन्त की,मैं खुद ही,कहानी बना रही हूँ।
सदा दिल ने माना,मैं जिस्म और जान हो तुम ,
के मेरी इस जीवन-कहानी का,प्रमाण हो तुम ,
तुम्हारे ही साथ में,मैं अपने,ये दिन-रात ढालूँगी,
हाथों में हाथ ले,मैं जीवन के रास्ते निकालूँगी।
भरोसा था मुझे कि मेरा प्यार,कहीं नहीं जाएगा ,
के भला मुझ जैसा सच्चा दिल,कौन नहीं चाहेगा,
बड़ा ही गुरूर था खुदपे,के सब सम्हाल लूँगी मैं ,
नहीं जानती थी के ऐसे किस्मत उछाल लूँगी मैं।
न जाना था ये फरेब,मेरी ही कहानी बन जाएगी,
इस दिल की धड़कन से,भावनाएँ दूर हो जाएँगीं,
अब जाना कैसे,आँखों के ख्वाब,बैरी हो जाते हैं,
और कैसे,जिस्म से,जिस्म के साए,गैर हो जाते हैं।
- जयश्री वर्मा
Monday, August 5, 2019
ये क्यों है ?
के आज आदमी ही,आदमी का शिकार क्यों है ?
मशीनी से जिस्म हुए,भावों के समंदर रीत गए ,
ये भाई-भाई के बीच में,खुली तकरार क्यों है ?
बचपन के दिन नहीं दिखते,अब बेफिक्र,सुनहरे ,
सबको ही शक से देखते हैं नवनिहालों के चेहरे ,
बोल फूटते ही,ये सीखते हैं,फरेबों के ककहरे ,
ये यूँ इक दूजे को,हराने की लगी कतार क्यों है ?
जवानी नहीं है अब,मासूम और शरमाई हुई सी ,
वादे,वफ़ा की बातें,अब करता नहीं है कोई भी ,
सब कुछ ही खुलापन लिए,खुली किताब सा है ,
ये दो दिलों के बीच,बिछा हुआ व्यापार क्यों है ?
बुढ़ापे को निराश्रित होने के,भय की आहट है ,
बस-इंतज़ार,याद,आँसू वृद्धाश्रम की चौखट है ,
के सेवा-सम्मान कैसे,खो गया दुनिया में कहीं ?
ये जीते जी खोदी गई,रिश्तों की मज़ार क्यों है ?
शुष्क से माहौल में जन्मे-पले,बंजर दिल लोग ,
ये फूल-तितली,चाँद-तारों की,बातें नहीं करते ,
क्यूँ अपनी ही तलाश में,भटक रहा है हर कोई ,
के हर ज़िन्दगी को,ज़िन्दगी की तलाश क्यों है ?
ये सवाल कौंधते हैं,हर तरफ,सवालों को लिए ,
बुझते नहीं हैं,टिमटिमाते हुए,आशाओं के दिए ,
इन्हीं आशाओं के सहारे,कट जाती है हर उम्र ,
मुस्कुराहटों को ओढ़े,भविष्य की उम्मीद लिए।
- जयश्री वर्मा
Saturday, July 27, 2019
ऐसे कितने ही जाधव
आँखों में झाइयाँ,शरीर है ढांचा,पर बेड़ियों में कसे हैं।
ये गालियों और लातों की रोटी से,मन का पेट भरते हैं ,
कल की आशाएं संजोए ये,रोज तिल-तिल के मरते हैं।
ये रात-रात,दर्द-दहशत संग,ख्यालों में जागा करते हैं ,
और दिन-दिन भर,जान-रहम की,दुआ माँगा करते हैं।
हर त्यौहार,सपनों में ही ये,अपनों के संग-साथ जीते हैं ,
उनके घर भी होली,क्रिसमस,बैसाखी,ईद कहाँ मनते हैं?
घर की दहलीज़ पे,उनकी आहट की उम्मीद पलती है,
पत्नियाँ उहापोह में,तीज-करवाचौथ कर मांग भरती हैं।
कितने बच्चों को अपने पिता की स्मृति ही नहीं कुछ भी,
दया-तिरस्कार ही नियति है,यही उनका जीवन सत्य भी।
बच्चे भी सुनी बातों,और फोटो के संग,यूँ ही पल जाते हैं ,
हालात के संग वे सब,खुद-ब-खुद,बस यूँ ही ढल जाते हैं।
ये बच्चे मन की उम्मीदों को,मन में ही दफ़न कर लेते हैं,
नहीं है पिता का साया,जान के कोई सवाल नहीं करते हैं।
बूढ़े माँ-बाप की आँखों के,उमड़ते समुंदर भी सूख जाते हैं,
अंतिम क्षण में औलाद को,देख पाने के ख्वाब टूट जाते हैं।
देशों की सरकारों के प्रयास भी नाकाम ही साबित होते हैं,
मीडिया वाले बस उम्मीद,कभी असमर्थता का राग रोते हैं।
ऐसे ही,कितने ही जाधव,न जाने,कितनी ही जेलों में फंसे हैं,
जिनका शरीर उनके साथ है,पर दिल अपने देशों में बसे हैं।
- जयश्री वर्मा
Monday, July 1, 2019
कहाँ से लाओगे ?
जो गर चाहोगे भूलना तो भी,भुला नहीं पाओगे ,
के हमारा हंसना,रूठना,उलझना,मान-मनुहार ,
बंध गए हो जिस बंधन में,वो कैसे काट पाओगे ?
वो मेरा इंतज़ार करना,रूठना,फिर मान जाना ,
फिर तुम्हारी इक इच्छा पे,वो मेरा कुर्बान जाना ,
तमाम पहरों को तोड़,मैं तुम तक चली आती थी ,
दुस्साहसपूर्ण ये सब बातें,तुम कैसे भूल पाओगे ?
मुहब्बत में दूरियां,बेचैनियाँ बढ़ाएंगी,मैंने माना ,
अगर राहें जिक्र करें मेरा,तो तुम लौट ही आना ,
के फूल,बाग़,नदी,और गलियां पूछेंगे बार-बार ,
अपने ही क़दमों के खिलाफ,कैसे बढ़ पाओगे ?
ऐसे किसी के जज़्बात से,खिलवाड़ नहीं करते ,
गर किसी से हो प्यार तो,यूँ तकरार नहीं करते ,
छुड़ाया जो हाथ हमसे,हम रो ही देंगे कसम से ,
मेरी नींदें उजाड़,अपने ख्वाब कैसे बसा पाओगे ?
ढूंढोगे लाख उम्र के बीते लम्हे,पर ढूंढें न मिलेंगे ,
बीते मौसम जैसे फूल,दूसरे मौसमों में न खिलेंगे ,
किसने कहा के काँच,टूट के फिर जुड़ सकता है ?
टूटी हुई उम्मीदों की लौ,फिर कैसे जगा पाओगे ?
के गर जा ही रहे हो,इक बार मुड़ कर देख लेना ,
मेरी आँखों की हसरत,इक पल को महसूस लेना ,
ये चाहत की ख्वाहिश,दोनों तरफ बराबर ही थी ,
ये सच झुठलाने की हिम्मत,तुम कहाँ से लाओगे ?
- जयश्री वर्मा
Wednesday, May 29, 2019
बनाते नहीं हैं
सच्चाई,सुकून,भरोसा,ये जीवन की खुश्बुएं हैं,
किसी से गर जो मिले,तो उसे भुलाते नहीं हैं,
ख्वाबों में जो खोया निश्छल,मुस्कुरा रहा हो,
ऐसी नींद से,उसको कभी भी,जगाते नहीं हैं।
जो कोई रात-रात जागा हो,इंतज़ार में तुम्हारी,
उससे मुख मोड़के,कभी भी कहीं जाते नहीं हैं,
जिसकी हँसी में,बसी हों,सारी खुशियाँ तुम्हारी,
उसके माथे पे,शिकन कभी भी,बनाते नहीं हैं।
जो साया बनकर आया हो,जन्म भर के वास्ते,
दोष उसके,कभी भी किसी से,गिनाते नहीं हैं ,
तुम्हारे घर की इज़्ज़त,तुम्हारी ही तो पहचान है,
सड़क पे उसकी बात कभी भी,लाते नहीं हैं ।
धोखा,झूठ और फरेब,जीवन के कलंक ही हैं,
प्रेम की नाव को मझधार कभी,डुबाते नहीं हैं ,
के गलत काम करने से पहले,सोचना कई बार ,
इंसानियत को कभी भी,दागदार बनाते नहीं हैं।
गम को भले ही भुला देना,काली रात जान के,
ख़ुशी के,उजले-लम्हे कभी भी,भुलाते नहीं हैं,
के दोस्ती के नाम,जो हाजिर हो,हर वक्त पर,
ऐसे रिश्ते में,शक़ की दीवार,यूँ उठाते नहीं हैं।
सुख-दुःख के दिन-रात तो,आते-जाते ही रहेंगे,
कभी हिम्मत नहीं हारते,कभी घबड़ाते नहीं हैं,
के तमाम ज़ख्म दिए हों,जिन रिश्तों ने बार-बार,
उन रिश्तों को गाँठ जोड़-जोड़,चलाते नहीं है।
( जयश्री वर्मा )
Monday, April 29, 2019
चिट्ठी तेरे नाम लिखी
इक दिन सूना,और अधूरी इक रात लिखी,
के जिसमें है व्यथा,कुछ कही,अनकही सी,
कुछ तो है सहनीय,और कुछ अनसही सी।
तमाम हलचल में भी,सूना सा दिन है बीता,
हंसी-ठहाकों बीच,मन का कोना रहा रीता,
यूँ कलियों,भवरों की,अठखेलियां थीं बड़ी,
पर मेरी ये मन बगिया तो,है सूनी सी पड़ी।
शाम लहरों के संग,खेलती देखी इक नैया,
कैसी बेफिक्र डोलती थी,संग था खेवईया,
भीड़-भरे जग में,है मेरा मन अकेला यहाँ,
बेबस सी नज़रें मेरी,तुम्हें ढूँढतीं यहाँ-वहाँ।
रात को चाँद के संग,तारों की ठिठोली थी,
पतंगे ने रौशनी संग,कई कसमें बोलीं थीं,
कैसे-कैसे ख़याल मचले,जो के न हुए पूरे,
रातें गुजरीं पलकों में,ख्वाब भी रहे अधूरे।
रोज के ये दिन रात मेरे,ऐसे ही गुज़रते हैं,
मेरे मन के भाव यूँ ही,वक्त से झगड़ते हैं,
तुम आओ तो जीवन की,ये जंग जीत लूँ मैं,
अपनी सारी प्रीत देकर,तुम्हें खरीद लूँ मैं।
मन उड़ेल दिया सारा,कुछ भी न सुहाता है,
तुम बिन तो मुझे,अब ये जहान नहीं भाता है,
सुन प्रिय! मैंने इक चिट्ठी,तेरे नाम है लिखी,
इस अधूरे से मन की,अधूरी सी चाह लिखीं।
- जयश्री वर्मा
Friday, March 15, 2019
सुंदर ख्वाब
ये दिल जो खिला है तो,खिल भी जाने दो,
ये इक तिलस्मयी,दुनिया का आगाज़ है,
चाहत को मीठे सपनों में,खो भी जाने दो।
नवप्रेम की इस पुकार को,ये नहीं जानेगी,
दुःख देने में तो इसे,बड़ा ही मज़ा आता है,
छोड़ो इसे,नया अफसाना,बन भी जाने दो।
ये फूलों का खिलना,सबको नहीं है दिखता,
बागों की खुश्बूएँ भी,सबको नहीं हैं रिझातीं,
कसमों,वादों की रातें,सबको नहीं हैं भातीं,
सबके कदमों पे,यूँ इंद्रधनुष नहीं हैं झुकते,
सब नहीं जानते,अमर है,प्रेम की परिभाषा,
पतझड़ के रूठे हुओं को,रंगों से क्या आशा,
के ये जन्मों संग,जीने और मरने की बातें हैं,
क़दमों पे रखे फूल,दिल से लग भी जाने दो।
दिलों की ये भाषा तो,दिलवाले ही जानते हैं,