Tuesday, December 9, 2014

सब तिलिस्मयी

फूलों के रंगों की छटा कुछ हो चली है सुरमई,
वो भी दिल खोल के खिले जो थे पुष्प छुई-मुई,
कलियों की मुस्कुराहटें हो चलीं हैं रहस्यमयी,
भंवरों की गुनगुनाहट भी हो चली है मनचली।

हवाओं में भी कुछ-कुछ सिहरन सी जागी है,
बागों में बिखरीं चंचलताएं,संग नए साथी हैं,
हाथों में हाथ लिए गूढ़ विश्वास संग डोलते हैं,
साथ-साथ,जीने-मरने के वादे पक्के बोलते हैं।

धरा भी खुद पे रीझती,इठलाती सी है दिख रही,
यहाँ-वहाँ,जहाँ-तहाँ जादू सा जगाती फिर रही,
गेंदा,गुलाब,डहेलिया या गुलदाऊदी,सूरजमुखी,
रंग बिखेर दिए हैं सारे सब के सब तिलिस्मयी।

ऐसे में हर मन के भाव स्वतः ही खुल जाते हैं,
दिल की वीणा के तार स्वतः ही झनझनाते हैं,
बंधन सारे खुल गए,मन-तन्द्रा की तिजोरी के,
वो स्वप्न उजागर हुए,जो देखे थे कभी चोरी से।

मन में छुपाऊं उन्हें पर आतुर नैनों से झांकते हैं,
पारखी तो नैनों को पढ़ के प्रेम गहराई आंकते हैं,
स्वप्न हैं सजीले से कुछ लजीले व कुछ शातिर हैं,
ये वक्त की शिला पे चिन्ह लिखने को आतुर से हैं।

हृदय को मैं लाख रोकूँ कि भावों को यूँ न बहकाओ,
रह-रह के यूँ विचारों को तुम बेलगाम न भटकाओ,
पर दिल विवश हो कहता है कहीं से तुम आ जाओ,
के मेरे साथ सृष्टि की इन खूबसूरतीयों में खो जाओ।

                                                                                                     -  जयश्री वर्मा




Friday, November 28, 2014

शुक्रगुज़ार हूँ तुम्हारा !

आज तेरी यादों ने मन की राहों को ऐसे मोड़ा है ,
कि भरे जग में मुझे यूॅ वीरानियों में लाके छोड़ा है ,
घेरे हुए हैं मुझे चहुंओर से तेरे तमाम अफ़साने , 
वो तुम्हारा हॅसना,रूठना,मनाना जाने-अनजाने। 

ये मन तमाम कोशिशों बावजूद जकड़ता जाता है ,
बेबस हो तुम्हारी यादों का हाथ पकड़ता जाता है ,
चला आया हूँ जहां पे सारी कोशिशें बेमानी सी हैं ,
ये जग सारा और उसकी ये जीवंतता पानी सी है।  

कि इक सुख है अजीब इस बेरुखे एकाकीपन में ,
जहां मैं हूँ और बस साथ तेरे सपने हैं अंतर्मन में ,
लोग तो इसे मेरा अजीब दीवानापन ही कहते हैं ,
कुछ बेचारा,दुखियारा और कुछ परवाना कहते हैं। 

वो नहीं समझते कि जीवन का एक रूप यह भी है ,
हम जैसों के लिए मौसम की धूप-छाँव ऐसी भी है ,
इस मेरे कल्पनालोक में मेरे जन्मों का प्रेम रहता है ,
जो हम सरीखों के किस्से दोहराता और कहता है। 

यहां सुखद प्रेमभरी,अपनत्वभरी निजता की बातें हैं ,
जहां कुछ भी विलगाव नहीं बस उम्मीद से भरी रातें हैं ,
इस संसार में जहां विछोह,कटुता,धोखा और धृष्टता है ,
 पर ये मेरा प्रेम-संसार सिर्फ प्रेम में ही रचता-बसता है। 

मौसम,फूल,पंछी देखो सब के सब सुहाने से हो गए हैं ,
भागते हुए से विचार भी जहां के मनमाने से हो गए हैं ,
शुक्रिया है ऐ जमाने तेरा ! कि मुझे नए से तराने दिए हैं ,
शुक्रिया है तुम्हारा इस नई दुनिया से मिलाने के लिए। 

                                         
                                                                              - जयश्री वर्मा 



Thursday, November 13, 2014

ज़माना हमारा-तुम्हारा

वो पर्दों के अंदर चुपके-छुपके झांकती निगाहें,
लाज भरी खिलखिलाहटें औरसिमटी सी बाहें,
कहीं पे खो सा गया है शर्मिंदगी का वो उजाला,
आधुनिकता ने आज सबको बेबाक बना डाला।

अब बागों में है कुछ सहमी सी हवा की रवानी,
वो सूखे दरख्तो पे गूंजती हरियाली की कहानी,
वो भवरों का कलियों-फूलों में सुगंध को ढूंढना,
अब जैसे है बेरौनक फूलों की बुझी सी जवानी।

विवाह जोड़ मिलाना सुसम्पन्न वर-वधू प्यारे,
अब बेलगाम बातें हैं और बेलगाम से हैं इशारे,
क्यों बेरौनक से हो चले ख्वाब युवाओं के सारे,
लिहाज़ छोड़ अब बेशर्मी का समां सा छा गया।

न बड़ों का सम्मान है न छोटों से है कुछ लगाव,
बस दिखता है सिर्फ अपने सुख-दुःख का बहाव,
ज़माना कहाँ से चला था और अब कहाँ आ गया,
आज की उच्श्रृंखलता ने देखो अदब मार डाला।

न दादी की बातें हैं और न है अब नानी का प्यार,
न रहे खेल निश्छल निराले,न झूले और बरसात,
टी०वी०,कम्प्यूटर के हिंसक खेल के अब ज़माने,
ये बच्चे भटककर आज अनजाने ही कहाँ आ गए।

ये फिसलन है गहरी जो अब नहीं है रुकने वाली,
बस बेख़ौफ़ उच्श्रृंखलता और बात-बात में गाली,
स्वार्थ को सिर्फ जानते हैं परमार्थ से है किनारा,
अब खो गया है वो कहीं-ज़माना हमारा-तुम्हारा।

                                               ( जयश्री वर्मा )







Wednesday, October 29, 2014

मैंने कब कहा ?

मैंने कब कहा प्रिय कि मुझे तुमसे बेहद प्यार है ?
हर पल,हर घड़ी बस सिर्फ तुम्हारा ही इंतज़ार है,
वो तो निगाहें हैं जो कि उठ जाती हैं हर आहट पर,
ढूँढती हैं तुम्हारी छवि,इनका वश नहीं है खुद पर ,
कि जैसे आ ही जाओगे तुम कहीं से और कभी भी,
इक इच्छा सी है अंदर,कुछ जगी सी,कुछ बुझी सी।

मैंने कब कहा कि सबके बीच तुम्हें याद करती हूँ ?
कि बातों में तुम बसे हो तुम्हारा ही दम भरती हूँ,
वो तो ज़ुबान है की बरबस ही तुम्हारा नाम लेती है,
और मेरी बातों में दुनिया तुम्हारा अक्स देखती है,
न,न मैं तो जिक्र भी नहीं तुम्हारा करती हूँ कभी,
पशोपेश में हूँ मैं,न जानूँ ये गलत है या फिर सही।


मैंने कब कहा,मैंने अपना दिल तुमको है दिया ?
और इस जीवन भर का वादा तुमसे ही है किया,
ये तो मेरी रातें हैं जोकि मेरा मजाक सा उड़ाती हैं,
न जाने मुझे क्यूँ बरबस ही ये रात भर जगाती हैं,
ख्वाब भी जो थे मेरे,तुम्हारे ही साथ में हो लिए हैं,
तुम्हारी ही सूरत से जैसे सारे नाते जोड़ लिए हैं ।

पर शायद कुछ ऐसा हो रहा है,अंजाना सा मेरे संग,
घेर रहे हैं तुम्हारे याद बादल,ले के साजिशों के रंग,
ये बादल बेरहम मुझे तन्हा नहीं छोड़ते हैं कभी भी,
छाए रहते हैं मनमस्तिष्क पे हरपल और अभी भी,
पर फिर भी इसका मतलब,इसे इकरार न समझना,
मुझे तुमसे प्यार है ये हरगिज़-हरगिज़ न समझना।

                                                ( जयश्री वर्मा )



Wednesday, October 15, 2014

भविष्य नया ढूंढूंगी

लो मैंने तोड़ दिए अब,सब तुम्हारे ये बंधन ,
तुम्हारे दोषारोपण और तुमसे ये अनबन ,
अब और नहीं जागूंगी मैं और नहीं रोऊंगी,
काल की किताब के मैं पृष्ठ नए खोलूंगी।
अपनों का साथ छोड़,तुम्हारे संग मैं आई थी ,
आँखों में सपने और प्यार भी अथाह लाई थी ,
पर ये कैसा जीवन और कैसा ये संसार था ,
बाहों का सहारा नहीं,काँटों भरा यह हार था।

कैसा ये आँगन था और कैसा था ये घरबार ,
सब कुछ था यहाँ,न था अपनत्व और प्यार ,
आशीर्वाद की छाँव नहीं,था आँखों का अंगार ,
एक-एक कर बिखरा मेरा सपनों का संसार।

भले जग पुरुष प्रधान पर उतना ही हमारा है,
न हो कोई साथ पर संग में आत्मबल हमारा है,
बिन तुम्हारे सहारे,मैं भी कमजोर नहीं पड़ूँगी,
आक्षेप,कठिनाई कुछ भी हो सबसे ही लड़ूंगी।

माना इस संस्कृति में,जीवन दो हैं हर नारी के,
एक जन्म के संग मिला तो दूजा संग है शादी के,
हर हाल समझौता करना यही धर्म रीत सिखाई,
पूर्ण सामर्थ्य किया सब कुछ फिर भी बेवफ़ाई।

मैं भी हूँ मनुष्य और ये सुन्दर जग मेरा भी तो है,
जीवन माधुर्य सभी,मुझे भी महसूस तो करना है,
नहीं जाएगा जन्म निरर्थक ठानी है जब मन की,
मेरी भी जवाबदेही है आखिर मेरे इस जीवन की,

बस-बस-बस मुझे अब अति और नहीं सहना है ,
भावों के आवेश में मुझे अब और नहीं बहना है ,
बना लूंगी रास्ते और भविष्य अपना नया ढूंढूंगी ,
अस्तित्व नहीं खाऊँगी मैं अब कैसे भी जी लूंगी।


                                                                  ( जयश्री वर्मा )

Thursday, September 25, 2014

आप कहें तो

मित्रों मेरी यह रचना दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन द्वारा प्रकाशित गृहशोभा में प्रकाशित हुई है,आप भी इसे पढ़ें।


आप कहें तो आपको इस दिल की गहराइयों में बसाऊं,
आपकी कल्पनाओं को थाम के कई अफ़साने सजाऊं। 



आप कहें तो आपको सोते-जागते से ख़्वाबों के शहर में ,
गुनगुनाते,खोए-खोए,सुन्दर स्वप्न सजे,नित गाँव घुमाऊं। 

फूलों और तितलियों के रंगों में डूबे,गीतों से सजे सुरों में ,
बेबाक सुलझे-अनसुलझे सवालों की उलझनें सुलझाऊँ।  

पूस सी सर्द सिहरनभरी और जेठ सी तपती ख्वाबगाह में ,
आप का साथ पाके मैं इक महफूज़ अपना जहान बसाऊं। 

जग से चुरा लूँ आपको,टकरा जाऊं जमाने की हर शै से ,
अगर जो मैं आपका हमदम,हमसफ़र,हमराज़ कहलाऊं। 

आपको अपना बनाने के दरम्यान जमाने के हर सवाल पर , 
आपको आंच न आने दूँ,हर निगाह का जवाब मैं बन जाऊँ।  

आपके यूँ मुस्कुरा के निकल जाने की बेख़याल अदा को , 
अपने प्रेमपगे भावों संग गूंथ,कोई प्यारा,इक नाम दे जाऊं। 

आप कहें मनमीत तो मैं जीवनभर बस आपका ही होकर , 
खुशियों और उमंगों को समेटने में सारा ये जहान भुलाऊं ।

                                                                       ( जयश्री वर्मा )  





Thursday, September 11, 2014

जानम मैं हूँ न !


अपना बनाने की कला,जो तुमने है सीखी,
एम.बी.ए. की डिग्री भी,फेल मैंने है देखी,
आँखों के फंदे में ऐसा,तुमने मुझे फंसाया,
हाय ! ख़ुदा भी मेरा,न मुझे सम्हाल पाया,
सारे अस्त्र-शस्त्र प्रेम के,मारे हैं तुमने ऐसे,
ताउम्र का बांड निभाने को जानम मैं हूँ न !



मैं,मुन्नी,चिंटू सब हैं जैसे तुम्हारे सबॉर्डिनेट,
आर्डर देने में प्रिय तुमने,किया कभी न वेट,
चलाओ धौंस,पड़ोसियों से भी उलझ जाओ,
हक़ है तुम्हें मुकाबले में,जीत तुम ही पाओ,
ढाल हूँ मैं आखिर तुम्हारी,सुरक्षा ही करूंगा,
सारे बिगड़े मसले सुलझाने को जानम मैं हूँ न !


किटी पार्टी में जाओ तो,बहार बनके छाओ,
टिकुली,झुमका,सेंट,सारे श्रृंगार भरके जाओ,
हाउज़ी खेलने में प्रिय पैसे लगाना बेझिझक,
कहलाना न पिछड़ी,एक-दो घूँट लेना गटक,
हंसना है सेहतमंद,सो कहकहे खूब लगाना,
तुम्हारे ये सारे खर्च उठाने को जानम मैं हूँ न !



बटुए के पैसे ज़ेवर और साड़ियों पे लुटाओ,
पहन-पहन के सब,जबरन मुझे दिखाओ,
तारीफ़ न मिले जो,तुम्हारे मन के मुताबिक़,
रूठ जाना हक़ से,संग शब्दबाण अधिक,
मानना तभी,जब फरमाइश हो कोई पूरी,
आखिर तो नाज़ उठाने को जानम मैं हूँ न !


फिर भी हो जानम तुम,मेरे इस घर की रानी,
मेरे इस जीवन-जनम की,हो अमिट कहानी,
तुम रूठो,रिझाओ या मुझे बातों से बहकाओ,
खुशियों में सदा झूलो,हरदम खिलखिलाओ,
मैंने जीवन सौंपा तुम्हें,पूरे इस जन्म के लिए,
हर तरह की शै से जूझने को जानम मैं हूँ न !

                                                      ( जयश्री वर्मा )

Thursday, September 4, 2014

बहका गई

बादल जो बेख़ौफ़ उमड़े हैं,कैसे घनघोर घुमड़े हैं,
प्रकृति के वाद्य पर देखो,सुरीले गीत कई उमड़े हैं,
हलकी ठंडी-ठंडी बयार,और देखो बूँद-बूँद फुहार,
तन को भिगो गई,और मन में सपने भी संजो गई।
पपीहे की ये पिहु-पिहु,ये पक्षियों की चहक-चहक,
किलोल करते फूलों की,ये मदमाती महक-दहक,
सतरंगी इन्द्रधनुष की,रंगीली,रंगों भरी ये रंगधार,
कोरी ओढ़नी में रंग भर,प्रीत के गीत में डुबो गई।

ये कैसी फुसफुसाहट है,अजब सी सरसराहट है ?
ये कैसी कलियों के संग भंवरों की गुनगुनाहट है ?
फूलों के रंगों संग,फूट पड़ी धरती की बौराहटह,
अजब सी अनुभूति जागी,तन-मन उमंगें पिरो गई।

ऐसे में चुप-चुप रह बेपरवाह से सुर अनंत फूटे हैं,
कई राग-रंग अंग बिखेर दिए,सपनों ने जो लूटे हैं,
मन की सुर-वीणा की मधुर,नशीली सी ये झंकार ,
बौराए मन आँगन का देखो छोर-छोर भिगो गई।

कुछ भी न कहो ऐसे में बस निःशब्द ही रहने दो,
बोलने दो भावों को,ज़ुबान के बोल शांत रहने दो,
हृदय की विरह वेदना,पलकों से छलक जो पड़ी है ,
वर्षों की एकाकी जीवन व्यथा,दो बूंदो से कह गई।

                                                                                       ( जयश्री वर्मा )



Thursday, August 28, 2014

सदा बनी रहे

सूरज की लाली,पृथ्वी की हरियाली,
सागर का धैर्य,नदियों की लहरें मतवाली,
पंछियों का कलरव,भँवरों के गुनगुन का हौसला,
पुष्पों की रंगत और मनभावन ख़ुश्बू,सदा बनी रहे,बनी रहे।

बच्चों का बचपन,माँ का ममत्व,दुलराना,
पिता की छत्रछाया,गुरु का जीवन संवारना,
शिष्यों में शिष्टाचार,दोस्तों का हो विश्वास,प्यार,
दादी,नानी की कहानियाँ हज़ार,सदा बनी रहें,बनी रहें।

पुरुषों में स्वाभिमान,ललनाओं का सम्मान,
बुज़ुर्गों का आशीर्वाद,सन्यासियों में हो साधुवाद,
आपसी भाईचारा,समाज सदा विकसित हो हमारा,
संस्कृति और सभ्यता की पहचान,सदा बनी रहे,बनी रहे।

बहन का रक्षाबन्ध,भाई की सौगंध,
त्योहारों के रंग,संस्कृतियों के नवीन ढंग,
गीतों की सुरलहरी और सीमा पर सजग प्रहरी,
कर्मठता के हौसलों की नित प्यास,सदा बनी रहे,बनी रहे।

 धर्मों की अनेकता,ईश्वर नाम की एकता,
भाषाओं में चाहे भिन्नता,भावों की समानता,
प्रेम,दया,सौहार्द,अपनत्व,सम्मान और स्वाभिमान,
सहिष्णुता,सदभावना की मिठास,सदा बनी रहे,बनी रहे।

राष्ट्र गान,राष्ट्र गीत,राष्ट्रीय चिन्ह,राष्ट्रीय खेल,
लोक गीत,लोक कलाएं,वीर गाथाओं की अमर बेल,
ग्रामीण जीवन,जल,जंगल,जमीन,विज्ञान का अद्भुत मेल,
जगत में भारत के इस तिरंगे की पहचान,सदा बनी रहे,बनी रहे।


                                                                                  -  जयश्री वर्मा

 


Tuesday, August 19, 2014

तो जी ही लूंगा

मुख फेर रहे हो क्यों मुझसे,जा रहे हो क्यूँ हाथ-साथ छोड़ कर ?        
सच है!जी नहीं पाओगे तुम भी इस तरह,राह अपनी मोड़ कर।

क्यों समेटे लिए जा रहे हो संग अपने,मेरे जीवन के सारे बसंत,
जियूँगा कैसे मैं पतझड़ सी वीरानी,बेखौफ़ ख़ामोशियों के संग।

बिन सहारे मैं तुम्हारे,न रह पाऊंगा,खुद ही से गैर हो जाऊँगा,
ख्यालों में छवि देखूंगा तेरी,लिखके तेरा नाम यूँ ही मिटाऊंगा।  

पर अगर इस तरह जाना ही है,तुम्हें यूँ मुझसे अंजाना बनकर,
ले जाओ सारी यादें अपनी,और फिर देखना न मुझे घूमकर।
  
करो मुझसे कुछ वादे,तुम्हें,तुम्हारे उन अपने लम्हों की कसम,
मेरा ज़िक्र भी नहीं लाओगे,कभी जुबां पर अपनी,ऐ मेरे सनम।

नहीं कमजोर पड़ूंगा,तुम्हारे लिए,जो जीना पड़ा तो जी ही लूंगा,
नहीं करूंगा अब प्रेम किसी से,न रोऊंगा न आहें ही भरूँगा।

शुभकामनाएं देता हूँ क्योंकि,सच्चा दिल सिर्फ दुआएं देता है,
राह में जो बिखरे हों कांटे तो उन्हें चुन के फूल बिछा देता है।

ईश्वर किसी दुश्मन को भी,कभी ऐसा,दर्द भरा दिन न दिखाए ,
कि जिस्म को रहना पड़े अकेले और जान उससे जुदा हो जाए। 

                                                     ( जयश्री वर्मा )


Wednesday, August 13, 2014

मैं हूँ युग युवा

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
मैं हूँ युग युवा,नित नयी लगन लगा,नव राहों पे बढ़ता जा हूँ,
शिक्षा की सीढ़ी,हौसलों के साथ,हर ऊँचाइयाँ चढ़ता जा  हूँ। 

राह में अनेक देवालय,मस्जिद,गिरजाघर और गुरूद्वारे मिले,
उन्हें शीश झुकाके,अंतर हृदय से,नमन मैं करता जा रहा हूँ। 

सभी ग्रंथों की शिक्षा,कुरान,बाइबिल,गुरुग्रंथ या पवित्र गीता,
उनकी सीख,सर-आँखों पे रख,मन ही मन गुनता जा रहा हूँ। 

अनेकता संग एकता में बसी,भारत की सुन्दर भिन्न संस्कृति, 
दोनों हाथों से अंगीकार कर,अंतर्मन से समझता जा रहा हूँ।

मैं भारत की नव तकदीर,मेरे लिए हर भारतीय एक सामान,
मैं मानवता का बीज लिए,हर जन के मन में रोपता जा रहा हूँ।

मुझे कहीं अन्यत्र न ढूंढो,मैं हर जागरूक सोच में बसा हुआ,
नव विकास की मशाल जला,ये राहें रौशन करता जा रहा हूँ। 

मैं इस हिन्दुस्तान का निर्भय युवा,मुझे बाधाओं से कैसा डर,
अपने इतिहास को धरोहर बना,नव भविष्य गढ़ता जा रहा हूँ।

मैं हूँ भारत की सच्ची तस्वीर,संसार पटल पर,अमरता लिख, 
आकाश-चाँद मुठ्ठी में बाँध,मंगल की जमीन छूने जा रहा हूँ।

मैं विकसित विचार,मैं हूँ युग युवा,उत्सुकता और हौसलों संग,
अपनी भारत माँ के आँचल के,नित नव सूत बुनता जा रहा हूँ।

                                                                 - जयश्री वर्मा



Wednesday, August 6, 2014

हे सुस्वादु टमाटर !

टमाटर का भाव 140 रुपए किलो होने पर !

 हे सुस्वादु टमाटर ! आओ जी ! 
मेरी झोली में भी आ जाओ जी !

दुकानों पर बैठ के इतराते हो,
क्यूँ दाम अपने बढ़ाते जाते हो,
हम भी तो तरस रहे तुम बिन,
बटुए में पैसे रखे थे गिन-गिन,
पहुँच से फिर भी बाहर दिखते,
बहुत ही ऊँचे बोल में बिकते।

हे सुस्वादु टमाटर ! आओ जी ! 
मेरी झोली में भी आ जाओ जी !

तुम बिन है सब्जी फीकी लागे,
तुम बिन है दाल न सुन्दर साजे,
सब्जियों पे तुम राज सा करते,
तुममें विटामिन भरपूर हैं बसते,
मेरी कढ़ाई की सब्जियों में भी,
लाली बन कर छा जाओ जी। 

हे सुस्वादु टमाटर ! आओ जी ! 
मेरी झोली में भी आ जाओ जी !

तुम बिन सलाद न पूरी खुद देखो,
ये बेरौनक बस्ती सी अधूरी देखो,
काश मेरी प्लेट में भी आ विराजो,
औ सूनी मांग में सिन्दूर सा साजो,
रईसों से ही न केवल नाता जोड़ो,
मेरी तरफ भी रुख अपना मोड़ो।

हे सुस्वादु टमाटर ! आओ जी ! 
मेरी झोली में भी आ जाओ जी !

जिस संग हो तुम वो मुस्काता है,
हो जिस संग नहीं वो झुंझलाता है,
काट-छांट के देखो बजट बनाया,
तुमको पाले में लाने को हरसंभव,
न जाने क्या-क्या है जुगत लड़ाया, 
पर तुम्हरा हिसाब समझ न पाया। 

हे सुस्वादु टमाटर ! आओ जी ! 
मेरी झोली में भी आ जाओ जी !

तुम्हारे आजकल ऐसे भाव बढ़े हैं,
कि दिन दूने रात चौगुने से चढ़े हैं,
हम भी तुम्हें बेहद पसंद करते हैं,
तुम्हें दूर से देखकर आहें भरते हैं,
किलो दो किलो की बात को छोड़ो, 
पाव भर रूप में ही आ जाओ जी। 

हे सुस्वादु टमाटर ! आओ जी ! 
मेरी झोली में भी आ जाओ जी !

                                           ( जयश्री वर्मा ) 





Wednesday, July 30, 2014

किस लिए है ?

ये झरनों की झर-झर,कुछ-कुछ कहती सी क्यूँ है?
ये सब नदियां भी कल-कल मचलतीं सी क्यूँ हैं?
यूँ बीहड़ सी राहों और रोड़ों संग टकराते-बलखाते,
क्यूँ गंतव्य से मिलने की हैं,अजब-विकल चाहतें?

फूलों का डोल-डोल खिलना आखिर है क्यूँ ?
यूँ रंगों का बौराना,बिखरना आखिर है क्यूँ?
यूँ आकर्षित करना,और ये खुशबुएँ फैलाना ,
यूँ भवरों को आखिर क्यों रह-रह के रिझाना ?

ये सूरज की किरणों की नित गुनगुनी सी रीत ,
ये पंछियों का कलरव,सुबह का मधुर संगीत ,
ये सूरज का यूँ अद्भुत,किसके लिए है प्रयास?
क्यूँ धरा को रिझाने की है अनकही सी आस?

तमाम रोज कोशिशें हैं,तमाम रोज हैं ये बातें,
रोज मीठी खिलाहटें हैं,और बहुत सारे हैं वादे,
वादों में उलझाना और ये बहलाना,फुसलाना,
आखिर किस लिए क्यों और किसके लिए है?

यूँ मौसमों का बदलना यूँ प्रकृति का निखरना,
कभी गर्मी की उलझन कभी ठंड का सिहरना,
कभी बरखा की टिप-टिप और रिमझिम फुहार,
जादुई मौसमों से गूंजती सी तिलस्मयी पुकार।

कुदरत के ये अजब राज तो,ये कुदरत ही जाने,
हर किसी को चाहिए पूर्णता,जाने या अनजाने,
ये तो महज साजिशें हैं महज प्रेम के हैं बहाने,
ताकि इस धरा पे गूंजें सदा ही जीवन के तराने।

                                                                        ( जयश्री वर्मा )






Monday, July 21, 2014

मैं चाहती हूँ


मैं अपने लिए भी ये जहान चाहती हूँ,
इस खुले आसमान में उड़ान चाहती हूँ,
जन्मी तो माँ से इक बेटे के सदृश्य ही,
पर हक़ और ख़ुशी का सैलाब चाहती हूँ, 
जो खुश हो बढ़ के बाहों में ले-ले मुझे,
ऐसी बाबुल की स्नेहिल बाँह चाहती हूँ।  

पोषित हो सकूँ मैं सुरक्षित छाया के तले,
घर की वो अपनत्वभरी पनाह चाहती हूँ,
बड़ी होके जब पढ़ने को निकलूं मैं बाहर,
खतरा हो न कोई,और न कैसा भी हो डर,
जहाँ पे बेख़ौफ़ होकर पंख फैला सकूँ मैं,
ऐसा अपने लिए भी मैं आसमां चाहती हूँ। 

शादी के बंधन में बंधकर के जब मैं जाऊं,
वहाँ अपने हिस्से का अपनत्व भी मैं पाऊं,
भूल पिछला अंगना,मैं नव घर को सहेजूँ,
नित विकास,उन्नति की नव राहें मैं खोजूं,
कर्तव्यों के निर्वहन के बदले में बस मैं तो,
परिवार और पिया से बस प्यार चाहती हूँ।

अपने लिए ही नहीं इस समाज की खातिर,
सुरक्षित माहौल हो हैवानियत न हो शातिर,
नारी ही तो है रीढ़ इस सामाजिक ढाँचे की,
न बिगाड़ो यूँ सूरत इस दैवीय से साँचे की,
ये छोटी सी इच्छा तो बिलकुल है जायज़, 
हर पुरुष की निगाह में सम्मान चाहती हूँ।

मुझको भी मौकों की उतनी ही दरकार है,
शिक्षा,परवरिश,प्यार पे पूरा अधिकार है,
नारी के वजूद बिन तो नहीं समाज है पूरक,
नारी,पुरुष दोनों हैं एक दूसरे के अनुपूरक,
बेटे-बेटी को गर जो समान नहीं समझेंगे,
हम कुदरती असंतुलन के गुनहगार होंगे।

बेटा ही है पहचान,वो तो है वंश बेल हमारा,
बेटी तो किसी पराए घर,का बनेगी सहारा,
इस फ़र्क करने का मैं परिणाम जानती हूँ,
परिवेश के लिए मैं स्वस्थ विचार चाहती हूँ,
मैं तो बस अपने लिए भी ये जहान चाहती हूँ,
इस खुले आसमान में इक उड़ान चाहती हूँ।

                                                  -  जयश्री वर्मा



Monday, July 7, 2014

अंग दान,स्वयं दान,महा दान

हर सुबह की साँझ है और हर रात का है सवेरा,
ये जो जन्म पाया है हमने,चाहे मेरा हो या तेरा,
आना भी रुलाई संग,और जाना भी रुलाई संग,
इसी बीच भरने हैं जीवन के सुख-दुःख के रंग।

ये पाया जो शरीर,उसे चलाने के कुछ नियम हैं,
सार है सिर्फ मानवता,और जीना संग संयम है,
परिवार,रिश्तों को चलाने में है सर्वश्रेष्ठ दे डाला,
खुद की सलामती संग जग में स्नेह बुन डाला।

जीने के संग जब,जीवन अपनों के काम आये,
तो मृत्यु के उपरान्त ये शरीर,व्यर्थ में क्यों जाए?
अपने शरीर अंगों का,महत्व जरा कुछ समझो,
व्यर्थ न हो जाए ये तन,अंधविश्वास में न उलझो। 

ये लोक ही सत्य है,जीवन है साँसों की कहानी,
परलोक नहीं है कुछ भी,ये सब बातें हैं अंजानी,
यहीं जन्मा बढ़ा शरीर,अन्य लोक नहीं जाना है,
ये शरीर ही पहचान हमारी,ये यहीं छूट जाना है।

ये काया है कीमती कुछ तो करें इसका उपाय,
नष्ट क्यों करें इसे,क्यों न हम अमूल्य इसे बनाएं,
जीवित रहते हुए जब सारे ख़ास रिश्ते हैं निभाए,
इक रिश्ता है मानवता,क्यों न उसे भी निभाएं।

मौत के बाद,ये शरीर तो मिटटी में बदलना है,
गर मृत्यु के बाद भी,स्वयं को जीवित रखना है,
तो मजबूत करो खुद को,जीते जी लिख जाओ,
बस अंग दान,स्वयं दान,महा दान कर जाओ।

जीवन के बाद भी,जीने का है यह अनूठा एहसास,
आपका अंग नहीं हुआ व्यर्थ,है ज़रूरतमंद के पास,
गर आप मुझसे हैं सहमत तो,यह संकल्प उठाओ,
जागरूकता फैलाओ,स्वयं से अंगदान कर जाओ। 

                                                           - जयश्री वर्मा 



Thursday, June 26, 2014

देखा जाएगा आखिर

आज उड़ चला दिल मेरा,न जाने किस ओर किस डगर,
मंजिल मिलेगी या नहीं,इक सवाल है पर फिर भी मगर,
चल दिया जो अनजानी राह पर,तो फिर लौटना कैसा ?
मंजिल आखिर मिलेगी ही,कभी न कभी,किसी मोड़ पर। 


उनकी इक ठहरती सी निगाह ने,समां कुछ ऐसा बाँधा है,
कि मेरे विचारों-ख्यालों ने,विश्वास ही कुछ ऐसा साधा है,
कि आखिरकार सूनी शाख पे भी,फूल कभी तो खिलता है,
जज़्बात की गर्मी से पत्थर भी,कभी न कभी पिघलता है।


जानता हूँ समाज की दीवार,बहुत कठोर है राह मुश्किल,
लेकिन जब ठान ही लिया तो,मान ही लूँगा अब दिल की,
मैं उनकी राहों के कांटे चुनकर,फूल बिछाऊंगा कुछ ऐसे,
निगाह रहमत की उठेगी उनकी,आखिर मुझपे न कैसे ?


आखिर तो सदियों से ज़माना,चला ही है इस राह पर ऐसे,
वर्ना पीढ़ियों का वजूद न होता,जीवन न बढ़ता धरा पे ऐसे,
मैं भी जो चल निकला हूँ,इन अनजानी अँधेरी सी राहों पर,
कभी तो छंटेगा अँधेरा,जीत जाएगी सुबह वीरानी रात पर।


इक अनदेखी अनचीन्ही सी डोर है,सिर्फ जिसका सहारा है,
दिल यूँ ही नहीं कहता-वही तो साथी,वही सनम तुम्हारा है,
मैं भी क्या बेकार में ही यूँ हाँ-ना की,संशयभरी बातें ले बैठा,
देखा जाएगा आखिर जो होगा,आगे जब मन में ठान बैठा।

                                                        ( जयश्री वर्मा )


 

Wednesday, June 18, 2014

सर्वस्व समर्पण

हारता सा यह मन,प्रिय आज मेरा ,
बन रही हूँ आज मैं कण्ठ-हार तेरा ।


भावातुर इस हृदय की भाव-सरिता ,
ऋतुओं की बनकर मैं आज कविता ।

मुक्ति छोड़ आज मैं बंधने को तत्पर ,
पाने को अनेकों गूढ़ प्रश्नों के उत्तर ।

श्यामल भाल की बिंदी का कौमार्य ,
यौवन-ताप के अछूते भार का सार ।

सृष्टि की गंध संग,अतृप्ति की तृप्ति ,
मौन के गुनगुनाते संगीत की वृष्टि ।

थरथराते कदम रूप की बहती धारा ,
अमर अदृश्य प्रेम की अदभुत कारा ।

कराने को पान यह जीवन रस अमृत ,
लुटाने को सर्वस्व अपना मैं उदधृत ।

चुप-चुप चंचल हो,यह विश्व समीर जब ,
अर्पण हो मेरा सब अस्तित्व तुझे तब ।

पाने को आतुर मैं तुम्हारे हृदय में शरण ,
हे नाथ!मेरा यह जीवन करो तुम वरण ।

जब कल के प्रभात का रवि मुस्कुराएगा ,
देने को मुझमें तब नव,कुछ न रह जाएगा ।

                                               ( जयश्री वर्मा )
 






Thursday, June 12, 2014

दोस्त - दोस्ती

दोस्त वो जो दोस्ती की हर रस्म निभा ले,
साथ दे सदा,दिल से अटूट बंधन बना ले,
आपकी उन्नति से जिसे खुशी मिले अपार,
आपकी खुशियों को जो अंतर्मन से सम्हाले।

आपके आंसुओं से द्रवित हों जिसकी निगाहें,
जो दुःख दर्द में आपको अपने सीने से लगा ले,
जो साथ न छोड़े चाहे हों लाख विपरीत हवाएं,
जो कठिनाइयों में आपको पर्वत सा सम्भाले।

दोस्त वो जिसको समझाने में वक्त न लगे ,
दोस्त वो जो चेहरा पढ़ दिल के हाल बता ले ,
दोस्त वो जिससे हर बात बेरोकटोक हो सके,
जो छोटी - छोटी बात का बतंगड़ न बना ले।

दोस्त नहीं मिला करते हैं हर किसी को दोस्तों,
मिले जो कोई दोस्त तो दोस्ती की रस्म निभा लें,
दोस्त हैं आपके आस-पास  भरे हुए,पर शर्त है ये -
कि आप खुद को दोस्ती की परिभाषा सिखा लें।

                                                                                                                   ( जयश्री वर्मा )

                                                       









Friday, June 6, 2014

सब याद है मुझे

मित्रों मेरी यह रचना दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पत्रिका " गृहशोभा " में प्रकाशित हुई है ,आप भी इसे पढ़ें।


कुछ-कुछ याद है मुझे,वो बीते वक्त की मीठी बातें, 
बेकाबू सी दिल की धड़कन,और वो सुवासित साँसें,
जीवन की जद्दोजहद के बीच,बेसाख्ता भागते हुए से,
तुमने कुछ कहा था,और मैंने उन लम्हों को बुना था।

कुछ मीठी सी सुर लहरियाँ थीं,तुमने जो गुनगुनाई थीं,
मेरे करीब जैसे बहुत से वादे,बहुत सी कसमें खाईं थीं,
जैसे बहुत सारे नज़ारे,बहुत सारी खिली सी बहारें थीं,
तुम्हारे कहे उन तमाम छंदों को,मैंने गीतों में सुना था।

कुछ सपने थे रंगीले-सजीले से,जो तुमने ही दिखाए थे,
हांथों में हाथ ले अपने जो तब,तुमने मुझे समझाए थे,
वो अटूट विश्वास और नयी आस में,रचे-बसे से सपने,
उन सपनों का रंग मेरी उन,जागती रातों में ढला था ।

कुछ नए रास्ते थे जो गुज़ारे थे,तुमने-हमने संग में,
क़दमों से कदम मिला सँवारे थे,तुमने-हमने संग में,
वो मौन रह कही गयी बहुत सारी बातें और किस्से,
उन रास्तों का अपनापन मेरी मंज़िलों में ढाला था।

ये धड़कनें भी एक थीं,और अपनी चाहतें भी एक थीं,
ईश्वर का संग था और,ज़माने की निगाहें भी नेक थीं,
इसी लिए तो आज हम साथ हैं,ऐ मेरे प्यारे हमसफ़र,
अब ज़िन्दगी हमारी है और,हमारे हैं सारे सांझ-सहर।

सब कुछ याद है वो बीते वक्त का,गुज़ारना चुपके,
शुरूआती उहापोह में बढ़ना और सम्हालना छुपके,
तुम्हारी इक नज़र पर,मेरे अरमानों का वो मचलना,
उन इशारों को मैंने,दिल की गहराइयों से गुना था।

                                                                                            ( जयश्री वर्मा )





Monday, May 26, 2014

क्या इसी तरह से

सामाजिक रस्मों के साथ अपना बना कर,
बाबुल के आँगन से अपने आँगन में लाकर,
उसकी पलकों के ख़्वाबों में रंग बसा कर, 
संग साँसों का रिश्ता जोड़ संगिनी बता कर,
अपने किये वादों से क्यूँ साफ़ मुकर जाते हैं,
क्या इसी तरह से महिला दिवस मनाते हैं ?



गैरों से तुलना और बात-बात पर चीखना,
जरा-जरा सी बात पर दुत्कारना-झींखना,
पूरे घर का काम करा यूँ निकम्मा बताना,
तीखी बातों से ज़लील करना और सताना,
खुशियों की जगह दुःख के आँसू रुलाते हैं,
क्या इसी तरह से महिला दिवस मनाते हैं ?



तुम्हें सर्वस्व मान माथे सिन्दूर लगाती है,
तुम्हारे नाम की पाँव में बिछिया सजाती है,
बेटी को जन्मने पर क्यूँ दोषी ऐसे ठहराना,
कमजोर शरीर उसपर तीखे तेवर दिखाना,
बात-बात में छोड़ने की धमकियाँ सुनाते हैं,
क्या इसी तरह से महिला दिवस मनाते हैं ?


धन की अतृप्त चाह में मानवता बलि चढ़ाना, 
मायके से पैसे लाने को जोर देना और सताना,
सहचरी के माँ,पिता,भाई को डराना-धमकाना,
अपना बनाकर गैरों से बद्तर जीवन बनाना,
धन और पुनर्विवाह के लिए आग में जलाते हैं,
क्या इसी तरह से महिला दिवस मनाते हैं ?


आखिर कहो तो जरा उसका गुनाह क्या है ?
क्या अपराध है ये जो तुमसे किया ब्याह है ?
कितने व्रत उपवासों के बाद पाया था तुम्हें,
क्या इसी गुनाह की ऐसी सजा मिलेगी उसे,
जो जीवनपर्यंत सहेज रही उसे ही ठुकराते हैं,
क्या इसी तरह से महिला दिवस मनाते हैं ?

                                            ( जयश्री वर्मा )










Monday, May 19, 2014

प्रेम और जीवन

प्यार अनूठा एहसास है,बड़ा ही प्यारा,बहुत ही सुंदर ,
यह रहता हर किसी की,दिल की गहराइयों के अंदर ।

धर्म-जात की ऊंची-ऊंची दीवारें,न साध सकीं इसको ,
किसी भी देश-जहान की सीमाएं,न बाँध सकीं इसको।

यह निश्छल,निर्बाध,पवित्र बहती हुई सरिता सा है ,
यह ओस बूँद संग खिली हुई,मासूम कलिका सा है ।

यह सुखद स्वप्न रात्रि और भावों से भरा मेला सा है ,
यह शीतल दिन और आनंदित शाम की बेला सा है।

यह जेठ की अगन में,शीतल बयार के झोंके सरीखा ,
यह पूस की ठिठुरती ठंडक में,गुनगुनी धुप के जैसा।

प्रेम बंधन वो है,जो सभी रिश्तों को,कस के रखता है ,
गर संग हो मीत जीवन सुख बगिया सा खिलता है।

इसने अमीरी-गरीबी,रंग-रूप,वर्ण कोई भेद न जाना ,
इस राह की कैसी भी दुर्गम कठिनाइयों को न माना।

यह ईश्वर-अंश है,सभी जीवों में,सामान ही पलता है ,
जिसकी जैसी सोच के सांचे,ये उसी रूप में ढलता है।

इस भाव बिन तो सबका जीवन,जैसे गरल बन जाए ,
मानव हृदय में जैसे मानवता और सरलता मर जाए।

                                                           ( जयश्री वर्मा )








Saturday, May 10, 2014

पेंटिंग






मित्रों मेरे द्वारा बनाई गई यह पेंटिंग आज के समाचार पत्र NBT नवभारत टाइम्स ( दिनॉंक -10 /5 /2014 )के नई दिल्ली /लखनऊ संस्करण में पेज नंबर 13 पर छपी है। आप भी देखें।




                                                                                                   -  जयश्री वर्मा

Tuesday, April 29, 2014

चलो माफ़ किया

जानते हो तुम ? कि जिस दिन तुम छोड़ गए थे,
मेरे प्यारे सुनहरे से स्वप्न,मुझसे ही रूठ गए थे,
कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा मैंने तुम्हें,सब ओर यहाँ-वहाँ,
कैसे-कैसे लांछन नहीं सहे मैंने,सबसे जहाँ-तहाँ।

देहरी कि हर आहट पे,तुम्हारे आने की थी ख्वाहिश,
तुम्हारे न दिखने पर,आँखों से बेचारगी की बारिश,
तुम क्या गए रातों की नींद,दिन की दुनिया ही रूठी, 
तुम्हारी परित्यक्ता बन,मानो मेरी किस्मत ही फूटी।

तुम नहीं समझोगे मेरी यह पीड़ादाई व्यथा क्या है,
रात-दिन सुलगते रहने की अधूरी सी कथा क्या है,
कैसी पीड़ा उठती थी जब तुम्हारी याद सताती थी,
बिन बात के कहीं भी-कभी भी रुलाई आ जाती थी। 

अब आए हो जब वक्त ने,तन पे झुर्रियां बना दी हैं,
कुछ भी न सुहाने की,अजीब आदत सी लगा दी है,
अब नहीं है कोई शिकवा,न कोई शिकायत तुमसे,
देखो जरा अब मेरी आँखें भी,नहीं भीगी हैं नमीं से।

पर चलो इस बंजर मन में,कहीं कोई कोंपल उगी है,
तुम्हें देख तुम्हारी सुनने की,इक आस सी जगी है,
आज सामने हो तुम,निरीह दशा,दृष्टि याचना संग,
धोखा देकर मुझे,तुमने भी,सहे हैं जैसे वक्त के ढंग ।

चलो अब मैंने माफ़ किया तुम्हें तमाम गल्तियों पर,
संग काट लेंगे जो रह गई है मेरी-तुम्हारी जीवन डगर,
थके से हो तुम शायद,मन-ग्लानियों ने झुलसाया है,
रह लो छाँव तले,जब तक कि तुम संग मेरा साया है।

                                                                       ( जयश्री वर्मा )

                                                                       





Wednesday, April 23, 2014

लकीर और वज़ूद

वक्त के साथ -
संसार में तो -
चला आया मैं,
क्यों आया ?किस लिए आया ?
सवाल - जवाबों के साथ,और,
समाज की खींची लकीरों के साथ,
सामंजस्य बिठा कर बड़ा हुआ।
कुछ - कुछ समझा उन लकीरों को,
कभी ठीक तो कभी,
उबाऊ सा लगा -
चलना उन खींची हुई लीकों पर !
लीक बदलकर मैंने -
नई लकीर खींची,अपने लिए,
कुछ ने सराहा,
कुछ ने विरोध किया !
मैंने ये जाना -
लीक से हट कर नई लकीर खींचने वाले,
सफल लोग कहलाते हैं - पथ प्रदर्शक !
और जो -
उन नई लकीरों से भी आगे -
कोई नई लकीर खींच लें जाएं -
वो कहलाते हैं -
युग दृष्टा,अनुकरणीय,पूजनीय !
कोशिश कर रहा हूँ,
मैं कौन सी लकीर खींच कर,
किस पर,
कहाँ तक चल सकूंगा !
इसी कोशिश में
मैं लकीरें -
खींच और मिटा रहा हूँ,
अपना वजूद बना रहा हूँ।

                                         ( जयश्री वर्मा )


 

Thursday, April 10, 2014

बंधु ! सब समान हैं


ये चेहरे अलग-अलग से हैंं दिखते,
पर अपने तो इनमें कोई न लगते,
ये मोदी,राहुल,माया,केजरीवाल हैं,
ये पार्टियां वादों की घालमघाल हैं,
वो बोलें कि हम यह सब कर देंगे,
ये कहें नहीं हम ही अब सत्ता लेंगे,
इसको भी देखा और उसको जाना,
बंधु!सब सामान हैं,सब सामान हैं।


पुरानी पार्टियां तो हनक में रहतीं,
नवजात पार्टियां झाँक के कहतीं,
हम ही हैं इस भारत के कर्णधार,
अब हम करेंगे देश का बेड़ा पार,
भले राजनीति में कुछ भी न जानें,
पर पूरे देश उद्धार को सीना तानें,
इस कुर्सी वजूद की हाथा-पाई में,
बंधु!सब समान हैं,सब समान हैं। 

बातें सबकी बस चिकनी-चुपड़ी,
कितनी ही बार तो हमने पकड़ीं,
कई घपले-घोटालों में ये फँसते,
ठेंगा जनता को दिखाकर हँसते,
ये कुर्सी हथियाते ही देश को भूलें,
ये सत्ता-सुख के मधुर झूले झूलें,
गर अंदर से इनको झाँक के देखो,
बंधु!सब समान हैं,सब समान हैं।

इक पार्टी से तो जनता अब डरती,
दूजी सब संवारने की हामी भरती,
कुछ गठबंधन की गाँठ से बंधी हैं,
सबमें गामा-कुश्ती सी ठनी हुई है,
वोट हाथ में लेकर असमंजस में,
ये जनता बेचारी अनमनी खड़ी है,
ये झूठा है या वो नेता सच्चा था ? 
बंधु!सब समान हैं,सब समान हैं।

पर तुम अपना अधिकार न खोना,
बाद पार्टियों का फिर रोना न रोना,
जाना जरूर पोलिंग बूथ को जाना,
मतदान है हक़ ताल ठोंक जताना,
वोट है नागरिक होने का अधिकार,
आगे कौन जीता और किसकी हार,
हम हों जागरूक तो यह देश बचेगा,  
वर्ना बंधु!सब समान हैं,सब समान हैं।

पर यह कटु सत्य हर कोई ही जानें,
भ्रष्टाचार,महंगाई की महिमा मानें,
जनता ही पिसती और मरती रहती,
नेताओं को कोस-कोस के वो कहती,
तुम्हारा वादा और दावा कहाँ गया ?
देश में क्या होना था क्या हो गया ?
कोई नहीं इस देश,जनता का मीत,
बंधु!ये सब समान हैं,सब समान हैं।

                                                  - जयश्री वर्मा









Tuesday, March 11, 2014

बदल रहे हैं हम

अब आज देखिये कुछ-कुछ तो बदल रहे हैं हम,
वक्त के तकाज़े पे कुछ-कुछ सम्हल रहे हैं हम,
कुदरत से की जो छेड़-छाड़ तो अच्छा नहीं होगा,
माता-पिता कहलाने का हक़ सच्चा नहीं होगा।

माता-पिता के प्यार पे हक़ दोनों का ही है समान,
फ़िर इस सच से भला हम क्यों बन रहे अनजान,
जो दिया ईश्वर ने,दोनों हाथों से उसे स्वीकारिये,
बेटा हो अथवा हो बेटी,दोनों को सामान संवारिये।

कल का भरोसा नहीं कोई?वृद्धावस्था की सोचते हैं,
भविष्य के भयवश हो वर्तमान को क्यों कोसते हैं ?
आँगन में चहकती चिड़िया के खेल सुखद निराले हैं,
कल्पना के डर से क्यूँ रोकें,सुख जो आने वाले हैं।

गर सच्चे हों आप तो दोनों नाम आपका कर जायेंगे,
बेटी को बनाया समर्थ तो,आप ही धन्य कहलाएंगे,
समर्थ बेटी भी बेटे के सामान घर का गौरव बढ़ाएगी,
परिवार,समाज और देश को नई राहों पे ले जाएगी।

देवियों के श्रद्धा रूप में ही न सिर्फ,नारियों को पूजिये,
उनके जीवन,उपस्थिति,सार्थकता को भी तो बूझिये,
सृष्टि की निगाह में तो,धर्म-जाति हैं सिर्फ स्त्री-पुरुष,
उत्तर तो स्वतः ही मिलेगा यदि बनकर सोचें मनुष्य।

                                                                                      ( जयश्री वर्मा )










Thursday, March 6, 2014

बस रखो विश्वाश

बसे-बसाए घर क्यूँ बन रहे बंजर,
बिखरते हुए लोग,बुझी हुई सी सहर,
धीरज तो धर बहेगी,शान्ति की लहर,
थम ही जाएगा ये,आखिर तूफ़ान ही तो है।

झुलसता बदन,चिलचिलाती तपन,
तड़पते हुए लोग,और तार-तार मन,
तृप्त करने को,सावन आएगा जरूर,
कब तक जलेगी ये,आखिर अगन ही तो है।

जरूर होगा दूर ये,फैला हुआ अँधेरा,
हार जाती है रात,जब आ जाता सवेरा,
सिमटेगा जरूर ये,बिखरता हुआ बसेरा,
अंततः भरेगा जरूर,आखिर ज़ख्म ही तो है।

छोड़ना मत हाथ से,आशा कि डोर,
ठान ले संकल्प और,लगा दे ज़रा जोर,
चीर कर अँधेरा तू,उगा दे आशा कि भोर,
गुज़रेगा जरूर ये,आखिर बुरा वक्त ही तो है।

मत छोड़ आस,क्यों होता तू निराश,
आएगी ख़ुशी,तुम बस रखो विश्वाश,
जरूर झूमेगा आँगन,खुशियों का पलाश,
मिलेगा जीवन जल,ये गर तेरी सच्ची तलाश है।

                                                                                ( जयश्री वर्मा )


Monday, March 3, 2014

अब आ जाओ

तुम आओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।


सूनी हो गईं गलियां सारी ,
अँखियाँ सूने पनघट सी हैं ,
सूनी गगरी सा मन मेरा ,
मन भाव सभी अब हारे हैं।

तुम आओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।

मूक हो गई हंसी अब मेरी ,
सहमे होंठों के बोल सभी ,
खुशियां रूठ चुकीं  मुझसे ,
गम के सब ओर खजाने हैं,

तुम आओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।

स्वप्न हुआ बसंत का खिलना ,
पतझड़ का सा साम्राज्य हुआ ,
ये मन-तरु सूख चूका है मेरा ,
अब फिर से पुष्प खिलाने हैं ,

तुम आओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।

हरी भरी थी डाल कभी यह ,
पंछी भी अक्सर आ जाते थे ,
गाये थे बुलबुल ने जो गीत ,
वो ही गीत मुझे दोहराने हैं ,

तुम आओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।

मैं अभिशप्त दुःखी सीता सी ,
तुम कभी तो मिलने आओगे ,
जो भूल गए हो मनमीत मेरे ,
वो ही किस्से तुम्हें सुनाने हैं ,

अब आ जाओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।

                                       ( जयश्री वर्मा )

Monday, February 17, 2014

चाँद का धरा प्रेम

आज चाँद देखो तो,कुछ धुंधला हो चला है,
न जाने किन ख्यालों में,वो गुम हो चला है,
अनेक तारों स्वरुप उलझे,ख्यालों के संग,
टिम-टिम चमकते भाव,प्रेमजालों के रंग।

धरती के प्रति उसका है,ये इकतरफा प्यार,
वर्षों से धरा के चक्कर,लगा रहा बार-बार,
पर धरा है अनजानी,चन्द्र के इस प्यार से,
वह तो है अनभिज्ञ,चन्द्रमा के व्यवहार से।

अपनी परिक्रमाओं से,धरा को बस मतलब,
स्वच्छंद सा जीवन जिया,उसने है अब तक,
अपने ही रूप पे आल्हादित सी,सदा रहती है,
असंख्य जीव पोषण में ही,संतुष्ट दिखती है।

पर चन्द्रमा का प्रेम तो,है सर्वथा ही है निश्छल,
धरा को रिझाने की कोशिश,करता है पल-पल,
पन्द्रह दिन घटता है और पन्द्रह दिन बढ़ता है,
प्रेम के सोपान सम्हल कर,धीरे-धीरे चढ़ता है।

दिनभर धूप से जली धरती को,देता है शीतलता,
रात्रि भर की शीतलता और शान्ति सी पवित्रता,
चंदा को नहीं शिकायत,धरती के अनजानेपन से,
उसका प्रेम भले हो इकतरफा,पर है अंतर्मन से।

क्या सूरज भी ये प्रयास मुद्दतों से नहीं है कर रहा,
इस धरा को रिझाने की सदियों से है हामी भर रहा,
आसमान भी तो पुकारता है कि धरा मेरी जान है,
पर चाँद को अपने सच्चे प्रेम पे यकीन अभिमान है

मैं हूँ धरा का हितैषी,वो चाहे अनजान रहे कितना,
हमारा अमर बंधन रहेगा,चाहे बीते वक्त जितना,
वो तो बस धरा को देखेगा और बस उसको चाहेगा,
वो तो धरती का है सदा से और धरती का ही रहेगा।

                                                         ( जयश्री वर्मा )





Tuesday, February 11, 2014

कैसी ये रीत

दिल मेरा और राज़ आपका,कैसी ये रीत है ,
मेरी ही हार इसमें,और आपकी ही जीत है ,
मन के तारों का जुड़ना,इक मीठा संगीत है ,
ये जीवन कि मधुरता,ये मेरे मीत-प्रीत है।
आपके पलकों के भंवर,बहुत कुछ कहते हैं ,
आपके दिल के भेद,इनमें साफ़ दीखते हैं ,
ये इधर-उधर डोलते से,झूठे ही भटकते हैं ,
जानता हूँ मैं,ये मुझे ढूंढ,मुझपे ही ठहरते हैं।

आपकी ये जो मुस्कराहट है,लजीली बड़ी है ,
आपकी ये खिलखिलाहट,हठीली सी बड़ी है ,
लाख रोकूँ खुद को पर ये दिल में उतरती है ,
मेरे ख्यालों,और रातों में सजती संवरती है।

आपकी पायल की रुनझुन,हृदय सहलाती है ,
कहीं पर भी हों आप,आसपास नज़र आती हैं ,
आपके क़दमों संग ये,कितनी ही दूर चली जाएँ ,
बरबस वापस आ,मुझसे नज़दीकियां जताती हैं।

अरे!प्रेम के इन सारे इशारों को,मैं भी समझता हूँ ,
पर मेरे लिए आसान नहीं है,थोड़ा सा झिझकता हूँ ,
आपको कुदरत ने शिकार को,तीर बहुत से दिए हैं ,
ये आसपास से चलते हैं,मेरा दिल घायल किये हैं ।

                                                                                     ( जयश्री वर्मा )

Thursday, February 6, 2014

कब तक

एक और नया दिन,
मैं बैठी हूँ
लाइब्रेरी में
आज मेरी बारी है-
लाइब्रेरी सम्हालने की,
काश !
सोचने की भी
कोई बारी होती
कोई सीमा होती,
दो कूलर और
छः पंखे भी
असमर्थ हैं-
मेरे दग्ध हृदयको
शांत करने के लिए
उफ़ !
कितना गर्म
धधगता हुआ हृदय
कितने लोग बैठे हैं यहाँ
फिर भी
कितनी शान्ति
फिर - मेरे मन में क्यों नहीं ?
कभी - कभी
सोचते - सोचते
मन खाली हो जाता है
एकदम शून्य
सूने आकाश की तरह
पर शांत नहीं
वो खालीपन भी
हलचल युक्त !
तेज गति से
तुम्हारे पीछे
भागता मन !
मैं और तुम्हारी स्मृति बस
स्मृतियों के जाले
और उसमें उलझी मैं
असमर्थ मकड़े की तरह
जो अपने जाल में
खुद ही फंस गया हो !
किसी तरह खुद को
छुड़ा कर भागती हूँ
भागती जाती हूँ
मीलों
इस दुनिया से दूर
बहुत दूर
थक कर चूर हो जाती हूँ
लेकिन हाथ कुछ नहीं आता
केवल मृगतृष्णा
कब तक दौड़ती रहूंगी
न जाने
यूँ ही
तुम्हें पानी समझ कर।

                               ( जयश्री वर्मा )

Tuesday, January 28, 2014

शायद जान लूं तुम्हें

आपके ख्यालों की इक अजनबी,अनजानी सी डोर ,
खिंच चला मन मेरा बरबस,बेबस सा आपकी ओर।

आप ऐसे हैं,वैसे हैं,कैसे हैं,या फिर चाहे जैसे भी हैं ,
मेरे ख़्वाबों,ख्यालों की बातों के,मित्र खास जैसे हैं ।

मन ही मन सवाल करती,जवाब भी खुद ही देती हूँ ,
अनदेखी उसकी छवि में,सतरंगी रंग खुद ही भर्ती हूँ।

रूठती,मनाती,गुनगुनाती,मुस्काती हुई तस्वीरों में ,
कसमसाती सी यादें हैं,ज्यों बंधी प्रेम कि जंजीरों में ।

आपको तो इल्म भी नहीं होगा,क्या किया है आपने ,
किस कदर मेरे कोरे मन पर,जाल बिछाया है आपने।

तुम्हारे दिल की अनंत तहों का,कुछ पता नहीं है हमें ,
फिर भी पन्ने पलटती जाती हूँ,शायद जान लूं तुम्हें ।

                                                    ( जयश्री वर्मा )










Monday, January 20, 2014

तुम सही थे मैं गलत


तुम धारा के विपरीत चलने की आदत के अनुसार,
उतर पड़े जानने को कि न जाने क्या है नया उस पार ।

मैं ताकता,मन मसोसता और सोचता ही रह गया,
अजब डर को पकड़े दिल को कचोटता ही रह गया ।

तुमने गहराई में उतरकर कुछ खोया खुछ पाया,
मुझे डराता रहा हरपल अंजाना,अनहोनी का साया ।

आज तुम्हारे हाथों में कुछ हार तो कुछ जीत है,
कुछ मिले कुछ बिछड़े और कुछ नए पुराने मीत हैं ।

तुमने समय बहुमूल्य समझ निभाया अपना धर्म,
खोज लिया जानी,कुछ अनजानी,घटनाओं का मर्म।

तुमने भविष्य पीढ़ियों के लिए मार्ग बनाया सुगम,
कहलाये तुम पथप्रदर्शक हर किसी ने किया नमन।

ईश्वर ने भी कर्मशील का सहयोग सदा ही है किया,
विपरीतताओं ने भी प्रयत्नशील को हाथों-हाथ लिया।

मैं पुरानी परिपाटी की लीक पर ही रहा सदा खड़ा,
अपने डर,उसूल और कुंठाओं संग सदा ही रहा अड़ा।

अपने भीतरी भय और रूढ़ियों संग सिमटा ही रहा,
विधाता,काल,भाग्य और बुरे वक्त को कोसता ही रहा ।

तुमने बंधन तोड़ पुराने,नया आसमान है अपनाया,
और आने वाली पीढ़ी को है नई ऊंचाई तक पहुंचाया ।

बाद तुम्हारे फिर आयेंगे तुम सरीखे कुछ मतवाले,
तुम्हारे छोड़ी ऊंचाइयों को और भी आगे बढ़ाने वाले।

समझा मैं जीवन है नव नीतियों को खोजना सतत,
आज सोचता हूँ कि ऐ मेरे मित्र तुम सही थे मैं गलत ।

                                                        (  जयश्री वर्मा )







Monday, January 13, 2014

फ़र्क तो है


बेटा जन्मा तो -
लड्डू बंटेंगे ,थाली बजाई जाएगी,
ढोलक की थाप पर सोहर भी गई जाएगी,
दादा-दादी हर्षेंगे,कि उनकी वंशबेल बढ़ जाएगी,
खानदान बढ़ा है आगे अब न्योच्छावर बांटी जाएगी।

बेटी जन्मी तो -
मायूसी भरी ख़ुशी फैल जाएगी,
माँ-बाप को तुरंत दहेज़ समस्या सताएगी,
बेटी पराया धन संबोधन से बातें बताई जाएंगी,
जच्चा-बच्चा की भी ठीक से देख-भाल नहीं की जाएगी।

बेटा चार वर्ष का होने पर  -
सबसे अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाया जाएगा,
स्कूल डोनेशन में लोन ले तमाम धन लगाया जाएगा,
उसके बड़ा होकर अफसर बनने का दंभ दिखाया जाएगा,
बड़ा होकर बाप का नाम रौशन करने का ख़याल बुना जाएगा।

बेटी चार वर्ष की होने पर  -
घर के नज़दीक स्कूल में नाम लिखाया जाएगा,
पूरे समय उसकी रखवाली कर डर-डर के पाला जाएगा,
उसके सवाल "आखिर क्यों" पर उसे चुप भी कराया जाएगा,
भाई तो आखिर लड़का है ये अहसास बार-बार कराया जाएगा।

बेटा सोलह वर्ष का होने पर -
हाई स्कूल के बाद ज़िद्द पर उसे बाइक दिलाई जाएगी,
उसकी खुशी का ध्यान रख उसकी पॉकेटमनी बढ़ाई जाएगी,
स्टंट,इश्क की बातों पर लड़का है कह उसकी गलतियाँ दबाई जाएंगी,
पढ़ने में फिसड्डी होने पर भी उसके अफसर बनने की आस लगाईं जाएगी।

बेटी सोलह वर्ष की होने पर -
उसके उठने-बैठने पर सलीके की मोहर लगाई जाएगी ,
घर में भी खुल कर हंसने,बोलने पर उसके रोक बढ़ाई जाएगी ,
पराए घर जाने का वास्ता दे घर-गृहस्थी की बातें सिखाई जाएंगी ,
गलती से इश्क कर बैठी तो कुलच्छिनी,कलमुंही कहकर पीटी जाएगी।

बेटे के विवाह पर -
सुन्दर,सुशील,गृहकार्य दक्ष,रईस बहू ढूंढी जाएगी,
बेटे की आयुवृद्धि को करवाचौथ,वट सावित्री कराई जाएगी,
जल्दी से जल्दी पोता देने की बार- बार बात दोहराई जाएगी,
किसी कारणवश बहू चल बसी तो दूसरी की जुगत लगाई जाएगी,

बेटी के विवाह पर -
विवाह बाद बोझ हल्का हुआ कह गंगा नहाई जाएगी,
ससुराल से अब अर्थी निकले यही सोच समझाई जाएगी,
सुहागन मरी तो बैकुंठ अधिकारिणी कह बात भुलाई जाएगी,
और कहीं यदि विधवा हो गई तो भाई-भाभी पर बोझ ही कहलाएगी।

आखिर ऐसा क्यों ?
भारतीय समाज में सदा ही ये तुलना सोची जाएगी,
लड़का सहजोर छुरी तो लड़की कमजोर कददू ही कहलाएगी,
बेटे को खुला आसमान और बेटी पंख कतर पिंजरे में पाली जाएगी,
ये सोच न पहले बदली थी,न अब बदली है और न आगे बदली जाएगी।

                                                                   
                                                                            ( जयश्री वर्मा )


Wednesday, January 8, 2014

नववर्ष की भोर

वो देखो तो चीर कर अन्धकार घनघोर ,
थामे हांथों में चमकती किरणों कि डोर ,
दौड़ती आ रही लहरों के रथ पर  सवार,
बीती रात्रि को हरा आ रही नवेली भोर।

पंछी हँसते कर कलरव,किलोल,शोर ,
इस धरती का देखो झूम उठा मनमोर ,
पूरी सृष्टि को सूरज लाली में बोर-बोर ,
रंगती जाती हर पल,क्षण हर पोर-पोर।

थामें हुए हाथों में सूरज किरणों कि डोर ,
आती आलिंगन करने नववर्ष की भोर।
नव वर्ष में नव तरंग संग नए गीत हम गाएं,
नए वर्ष में नए विचार संग नए उत्थान हम लाएं। 


                                   ( जयश्री वर्मा )



मित्रों विलम्ब से ही सही मेरी तरफ से -
नव वर्ष आप सभी के लिए मंगलमय हो !!!
यह नव वर्ष आप सभी के लिए खुशियां,
उन्नति,संपन्नता और सुकून लेकर आए !!!