Tuesday, January 28, 2014

शायद जान लूं तुम्हें

आपके ख्यालों की इक अजनबी,अनजानी सी डोर ,
खिंच चला मन मेरा बरबस,बेबस सा आपकी ओर।

आप ऐसे हैं,वैसे हैं,कैसे हैं,या फिर चाहे जैसे भी हैं ,
मेरे ख़्वाबों,ख्यालों की बातों के,मित्र खास जैसे हैं ।

मन ही मन सवाल करती,जवाब भी खुद ही देती हूँ ,
अनदेखी उसकी छवि में,सतरंगी रंग खुद ही भर्ती हूँ।

रूठती,मनाती,गुनगुनाती,मुस्काती हुई तस्वीरों में ,
कसमसाती सी यादें हैं,ज्यों बंधी प्रेम कि जंजीरों में ।

आपको तो इल्म भी नहीं होगा,क्या किया है आपने ,
किस कदर मेरे कोरे मन पर,जाल बिछाया है आपने।

तुम्हारे दिल की अनंत तहों का,कुछ पता नहीं है हमें ,
फिर भी पन्ने पलटती जाती हूँ,शायद जान लूं तुम्हें ।

                                                    ( जयश्री वर्मा )










2 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कि प्रस्तुति, आभार आपका।
    एक बार यहाँ भी आयें और अवलोकन करें, धन्यबाद।
    भूली-बिसरी यादें

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  2. धन्यवाद और आभार आपका राजेन्द्र कुमार जी , मेरी रचना पर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए !

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