वो पर्दों के अंदर चुपके-छुपके झांकती निगाहें,
लाज भरी खिलखिलाहटें औरसिमटी सी बाहें,
कहीं पे खो सा गया है शर्मिंदगी का वो उजाला,
आधुनिकता ने आज सबको बेबाक बना डाला।
अब बागों में है कुछ सहमी सी हवा की रवानी,
वो सूखे दरख्तो पे गूंजती हरियाली की कहानी,
वो भवरों का कलियों-फूलों में सुगंध को ढूंढना,
अब जैसे है बेरौनक फूलों की बुझी सी जवानी।
विवाह जोड़ मिलाना सुसम्पन्न वर-वधू प्यारे,
अब बेलगाम बातें हैं और बेलगाम से हैं इशारे,
क्यों बेरौनक से हो चले ख्वाब युवाओं के सारे,
लिहाज़ छोड़ अब बेशर्मी का समां सा छा गया।
न बड़ों का सम्मान है न छोटों से है कुछ लगाव,
बस दिखता है सिर्फ अपने सुख-दुःख का बहाव,
ज़माना कहाँ से चला था और अब कहाँ आ गया,
आज की उच्श्रृंखलता ने देखो अदब मार डाला।
न दादी की बातें हैं और न है अब नानी का प्यार,
न रहे खेल निश्छल निराले,न झूले और बरसात,
टी०वी०,कम्प्यूटर के हिंसक खेल के अब ज़माने,
ये बच्चे भटककर आज अनजाने ही कहाँ आ गए।
ये फिसलन है गहरी जो अब नहीं है रुकने वाली,
बस बेख़ौफ़ उच्श्रृंखलता और बात-बात में गाली,
स्वार्थ को सिर्फ जानते हैं परमार्थ से है किनारा,
अब खो गया है वो कहीं-ज़माना हमारा-तुम्हारा।
( जयश्री वर्मा )
लाज भरी खिलखिलाहटें औरसिमटी सी बाहें,
कहीं पे खो सा गया है शर्मिंदगी का वो उजाला,
आधुनिकता ने आज सबको बेबाक बना डाला।
वो सूखे दरख्तो पे गूंजती हरियाली की कहानी,
वो भवरों का कलियों-फूलों में सुगंध को ढूंढना,
अब जैसे है बेरौनक फूलों की बुझी सी जवानी।
विवाह जोड़ मिलाना सुसम्पन्न वर-वधू प्यारे,
अब बेलगाम बातें हैं और बेलगाम से हैं इशारे,
क्यों बेरौनक से हो चले ख्वाब युवाओं के सारे,
लिहाज़ छोड़ अब बेशर्मी का समां सा छा गया।
न बड़ों का सम्मान है न छोटों से है कुछ लगाव,
बस दिखता है सिर्फ अपने सुख-दुःख का बहाव,
ज़माना कहाँ से चला था और अब कहाँ आ गया,
आज की उच्श्रृंखलता ने देखो अदब मार डाला।
न दादी की बातें हैं और न है अब नानी का प्यार,
न रहे खेल निश्छल निराले,न झूले और बरसात,
टी०वी०,कम्प्यूटर के हिंसक खेल के अब ज़माने,
ये बच्चे भटककर आज अनजाने ही कहाँ आ गए।
ये फिसलन है गहरी जो अब नहीं है रुकने वाली,
बस बेख़ौफ़ उच्श्रृंखलता और बात-बात में गाली,
स्वार्थ को सिर्फ जानते हैं परमार्थ से है किनारा,
अब खो गया है वो कहीं-ज़माना हमारा-तुम्हारा।
( जयश्री वर्मा )
वो पर्दों के अंदर चुपके-छुपके झांकती निगाहें,
ReplyDeleteलाज भरी खिलखिलाहटें औरसिमटी सी बाहें,समाज के गिरते नैतिक मूल्यों पर अति सुन्दर! अभिव्यक्ति! साभार! आदरणीया जय श्री जी!
धरती की गोद
सादर धन्यवाद आपका संजय कुमार गर्ग जी !
Deleteये फिसलन है गहरी जो अब नहीं है रुकने वाली,
ReplyDeleteबस बेख़ौफ़ उच्श्रृंखलता और बात-बात में गाली,
बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति जयश्री जी ! मन को छू लेने वाले उद्गारों को बड़ी खूबसूरती से शब्दों का बाना पहनाया है आपने ... अति सुन्दर !
प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद संजय भास्कर जी !
Deleteकल 15/नवंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
सादर आभार आपका यशवंत यश जी !
Deleteसच अब तो प्यार जैसे देखा देखी का खेल बन कर रह गया है ...आज का जमाना और पहले के जमाने में जमीन आसमान का अंतर ....
ReplyDeleteसार्थक चिंतन कराती प्रस्तुति
आपका बहुत - बहुत शुक्रिया कविता रावत जी !
Deleteये फिसलन है गहरी जो अब नहीं है रुकने वाली,
ReplyDeleteबस बेख़ौफ़ उच्श्रृंखलता और बात-बात में गाली,
यहीं सच हैं आज युवा समाज का
http://savanxxx.blogspot.in
जी हाँ ! आप सही कह रहे हैं ये हमारे समाज की नियति सी बनती जा रही है। प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए धन्यवाद आप का सावन कुमार जी !
ReplyDeleteab nhi rahA WO zamana Jo jaane kya hora hAi lazaanaa....bahut sunder ahsaas...
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत शुक्रिया Pari M Shlok जी !
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