आज चाँद देखो तो,कुछ धुंधला हो चला है,
न जाने किन ख्यालों में,वो गुम हो चला है,
अनेक तारों स्वरुप उलझे,ख्यालों के संग,
टिम-टिम चमकते भाव,प्रेमजालों के रंग।
धरती के प्रति उसका है,ये इकतरफा प्यार,
वर्षों से धरा के चक्कर,लगा रहा बार-बार,
पर धरा है अनजानी,चन्द्र के इस प्यार से,
वह तो है अनभिज्ञ,चन्द्रमा के व्यवहार से।
अपनी परिक्रमाओं से,धरा को बस मतलब,
स्वच्छंद सा जीवन जिया,उसने है अब तक,
अपने ही रूप पे आल्हादित सी,सदा रहती है,
असंख्य जीव पोषण में ही,संतुष्ट दिखती है।
पर चन्द्रमा का प्रेम तो,है सर्वथा ही है निश्छल,
धरा को रिझाने की कोशिश,करता है पल-पल,
पन्द्रह दिन घटता है और पन्द्रह दिन बढ़ता है,
प्रेम के सोपान सम्हल कर,धीरे-धीरे चढ़ता है।
दिनभर धूप से जली धरती को,देता है शीतलता,
रात्रि भर की शीतलता और शान्ति सी पवित्रता,
चंदा को नहीं शिकायत,धरती के अनजानेपन से,
उसका प्रेम भले हो इकतरफा,पर है अंतर्मन से।
क्या सूरज भी ये प्रयास मुद्दतों से नहीं है कर रहा,
इस धरा को रिझाने की सदियों से है हामी भर रहा,
आसमान भी तो पुकारता है कि धरा मेरी जान है,
पर चाँद को अपने सच्चे प्रेम पे यकीन अभिमान है
मैं हूँ धरा का हितैषी,वो चाहे अनजान रहे कितना,
हमारा अमर बंधन रहेगा,चाहे बीते वक्त जितना,
वो तो बस धरा को देखेगा और बस उसको चाहेगा,
वो तो धरती का है सदा से और धरती का ही रहेगा।
( जयश्री वर्मा )
न जाने किन ख्यालों में,वो गुम हो चला है,
अनेक तारों स्वरुप उलझे,ख्यालों के संग,
टिम-टिम चमकते भाव,प्रेमजालों के रंग।
धरती के प्रति उसका है,ये इकतरफा प्यार,
वर्षों से धरा के चक्कर,लगा रहा बार-बार,
पर धरा है अनजानी,चन्द्र के इस प्यार से,
वह तो है अनभिज्ञ,चन्द्रमा के व्यवहार से।
अपनी परिक्रमाओं से,धरा को बस मतलब,
स्वच्छंद सा जीवन जिया,उसने है अब तक,
अपने ही रूप पे आल्हादित सी,सदा रहती है,
असंख्य जीव पोषण में ही,संतुष्ट दिखती है।
पर चन्द्रमा का प्रेम तो,है सर्वथा ही है निश्छल,
धरा को रिझाने की कोशिश,करता है पल-पल,
पन्द्रह दिन घटता है और पन्द्रह दिन बढ़ता है,
प्रेम के सोपान सम्हल कर,धीरे-धीरे चढ़ता है।
दिनभर धूप से जली धरती को,देता है शीतलता,
रात्रि भर की शीतलता और शान्ति सी पवित्रता,
चंदा को नहीं शिकायत,धरती के अनजानेपन से,
उसका प्रेम भले हो इकतरफा,पर है अंतर्मन से।
क्या सूरज भी ये प्रयास मुद्दतों से नहीं है कर रहा,
इस धरा को रिझाने की सदियों से है हामी भर रहा,
आसमान भी तो पुकारता है कि धरा मेरी जान है,
पर चाँद को अपने सच्चे प्रेम पे यकीन अभिमान है
मैं हूँ धरा का हितैषी,वो चाहे अनजान रहे कितना,
हमारा अमर बंधन रहेगा,चाहे बीते वक्त जितना,
वो तो बस धरा को देखेगा और बस उसको चाहेगा,
वो तो धरती का है सदा से और धरती का ही रहेगा।
( जयश्री वर्मा )
Beautiful poetry ....loved each line of it.....very well done +Jayshree....keep the good work going...wonderful **************
ReplyDeleteआपके इतने सुंदर प्रेरणादाई शब्दों के लिए आपका बहुत - बहुत धन्यवाद आशुतोष जी !
Deleteबहुत ही सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteमेरी इस कविता पर आपकी सराहना के लिए आपका बहुत - बहुत धन्यवाद राजेंद्र कुमार जी !
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