लो मैंने तोड़ दिए अब,सब तुम्हारे ये बंधन ,
तुम्हारे दोषारोपण और तुमसे ये अनबन ,
अब और नहीं जागूंगी मैं और नहीं रोऊंगी,
काल की किताब के मैं पृष्ठ नए खोलूंगी।
अपनों का साथ छोड़,तुम्हारे संग मैं आई थी ,
आँखों में सपने और प्यार भी अथाह लाई थी ,
पर ये कैसा जीवन और कैसा ये संसार था ,
बाहों का सहारा नहीं,काँटों भरा यह हार था।
कैसा ये आँगन था और कैसा था ये घरबार ,
सब कुछ था यहाँ,न था अपनत्व और प्यार ,
आशीर्वाद की छाँव नहीं,था आँखों का अंगार ,
एक-एक कर बिखरा मेरा सपनों का संसार।
भले जग पुरुष प्रधान पर उतना ही हमारा है,
न हो कोई साथ पर संग में आत्मबल हमारा है,
बिन तुम्हारे सहारे,मैं भी कमजोर नहीं पड़ूँगी,
आक्षेप,कठिनाई कुछ भी हो सबसे ही लड़ूंगी।
माना इस संस्कृति में,जीवन दो हैं हर नारी के,
एक जन्म के संग मिला तो दूजा संग है शादी के,
हर हाल समझौता करना यही धर्म रीत सिखाई,
पूर्ण सामर्थ्य किया सब कुछ फिर भी बेवफ़ाई।
मैं भी हूँ मनुष्य और ये सुन्दर जग मेरा भी तो है,
जीवन माधुर्य सभी,मुझे भी महसूस तो करना है,
नहीं जाएगा जन्म निरर्थक ठानी है जब मन की,
मेरी भी जवाबदेही है आखिर मेरे इस जीवन की,
बस-बस-बस मुझे अब अति और नहीं सहना है ,
भावों के आवेश में मुझे अब और नहीं बहना है ,
बना लूंगी रास्ते और भविष्य अपना नया ढूंढूंगी ,
अस्तित्व नहीं खाऊँगी मैं अब कैसे भी जी लूंगी।
( जयश्री वर्मा )
तुम्हारे दोषारोपण और तुमसे ये अनबन ,
अब और नहीं जागूंगी मैं और नहीं रोऊंगी,
काल की किताब के मैं पृष्ठ नए खोलूंगी।
अपनों का साथ छोड़,तुम्हारे संग मैं आई थी ,
आँखों में सपने और प्यार भी अथाह लाई थी ,
पर ये कैसा जीवन और कैसा ये संसार था ,
बाहों का सहारा नहीं,काँटों भरा यह हार था।
कैसा ये आँगन था और कैसा था ये घरबार ,
सब कुछ था यहाँ,न था अपनत्व और प्यार ,
आशीर्वाद की छाँव नहीं,था आँखों का अंगार ,
एक-एक कर बिखरा मेरा सपनों का संसार।
भले जग पुरुष प्रधान पर उतना ही हमारा है,
न हो कोई साथ पर संग में आत्मबल हमारा है,
बिन तुम्हारे सहारे,मैं भी कमजोर नहीं पड़ूँगी,
आक्षेप,कठिनाई कुछ भी हो सबसे ही लड़ूंगी।
माना इस संस्कृति में,जीवन दो हैं हर नारी के,
एक जन्म के संग मिला तो दूजा संग है शादी के,
हर हाल समझौता करना यही धर्म रीत सिखाई,
पूर्ण सामर्थ्य किया सब कुछ फिर भी बेवफ़ाई।
मैं भी हूँ मनुष्य और ये सुन्दर जग मेरा भी तो है,
जीवन माधुर्य सभी,मुझे भी महसूस तो करना है,
नहीं जाएगा जन्म निरर्थक ठानी है जब मन की,
मेरी भी जवाबदेही है आखिर मेरे इस जीवन की,
बस-बस-बस मुझे अब अति और नहीं सहना है ,
भावों के आवेश में मुझे अब और नहीं बहना है ,
बना लूंगी रास्ते और भविष्य अपना नया ढूंढूंगी ,
अस्तित्व नहीं खाऊँगी मैं अब कैसे भी जी लूंगी।
( जयश्री वर्मा )
सुंदर अभिव्यक्ति है पर दुख:द भी ।
ReplyDeleteजी हाँ ! सही कहा आपने सुशील कुमार जोशी जी,दुखद है,पर जीवन का एक सत्य भी और हार न मान कर नया भविष्य खोजने की आशा भी दर्शाती है यह रचना।
Deleteबहुत ही बढ़िया।।।
ReplyDeleteहर किसी को अपनी जिंदगी अपनी खुशी के लिए जीने का पूरा हक है और ये उसका फर्ज है कि वो खुद को हर खुशी दे।।।
आपकी टिप्पणी के लिए आपका बहुत - बहुत शुक्रिया अनुषा मिश्रा जी !
Deleteकल 17/अक्तूबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
आभार आपका यशवंत यश जी !
Deleteवाह।
ReplyDeleteबेहद सुन्दर लिखा है आपने
बहुत-बहुत धन्यवाद आपका स्मिता सिंह जी !
DeleteBahut hi peedadeh saty hai...apno ki upeksha bahut dukhdaayi hoti hai jinse pyar ki ummeed ho wo khanjar bhonk de pal -pal glaani se bhar de isse pahle hi har kisi ko ye zanzeer tod deni chahiye .... Bahut hi zabardast prastuti ..badhaayi :)
ReplyDeleteआप लोगों के द्वारा की गई प्रेरणादायी टिप्पणियाँ मुझे कुछ अलग और नए विषय पर लिखने के लिए प्रेरित करती हैं,आपका बहुत-बहुत धन्यवाद Pari M Shlok जी !
Deleteबहुत प्रेरणादायक प्रस्तुति ..............सच कहा आपने बस-बस-बस मुझे अब अति और नहीं सहना है ,
ReplyDeleteभावों के आवेश में मुझे अब और नहीं बहना है ,
बना लूंगी रास्ते और भविष्य अपना नया ढूंढूंगी ,
अस्तित्व नहीं खाऊँगी मैं अब कैसे भी जी लूंगी।
आपका बहुत-बहुत शुक्रिया प्रभात कुमार जी !
Deleteअपनों का साथ छोड़,तुम्हारे संग मैं आई थी ,
ReplyDeleteआँखों में सपने और प्यार भी अथाह लाई थी ,
बहुत सोचने पर
एक जवाब आता कहीं भीतर से
हो रहा है कुछ ऐसा
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बहुत सुंदर रचना
कविता के मर्म को समझने के लिए आपका धन्यवाद संजय भास्कर जी !
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