जानते हो तुम ? कि जिस दिन तुम छोड़ गए थे,
मेरे प्यारे सुनहरे से स्वप्न,मुझसे ही रूठ गए थे,
कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा मैंने तुम्हें,सब ओर यहाँ-वहाँ,
कैसे-कैसे लांछन नहीं सहे मैंने,सबसे जहाँ-तहाँ।
देहरी कि हर आहट पे,तुम्हारे आने की थी ख्वाहिश,
तुम्हारे न दिखने पर,आँखों से बेचारगी की बारिश,
तुम क्या गए रातों की नींद,दिन की दुनिया ही रूठी,
तुम्हारी परित्यक्ता बन,मानो मेरी किस्मत ही फूटी।
तुम नहीं समझोगे मेरी यह पीड़ादाई व्यथा क्या है,
रात-दिन सुलगते रहने की अधूरी सी कथा क्या है,
कैसी पीड़ा उठती थी जब तुम्हारी याद सताती थी,
बिन बात के कहीं भी-कभी भी रुलाई आ जाती थी।
अब आए हो जब वक्त ने,तन पे झुर्रियां बना दी हैं,
कुछ भी न सुहाने की,अजीब आदत सी लगा दी है,
अब नहीं है कोई शिकवा,न कोई शिकायत तुमसे,
देखो जरा अब मेरी आँखें भी,नहीं भीगी हैं नमीं से।
पर चलो इस बंजर मन में,कहीं कोई कोंपल उगी है,
तुम्हें देख तुम्हारी सुनने की,इक आस सी जगी है,
आज सामने हो तुम,निरीह दशा,दृष्टि याचना संग,
धोखा देकर मुझे,तुमने भी,सहे हैं जैसे वक्त के ढंग ।
चलो अब मैंने माफ़ किया तुम्हें तमाम गल्तियों पर,
संग काट लेंगे जो रह गई है मेरी-तुम्हारी जीवन डगर,
थके से हो तुम शायद,मन-ग्लानियों ने झुलसाया है,
रह लो छाँव तले,जब तक कि तुम संग मेरा साया है।
( जयश्री वर्मा )
मेरे प्यारे सुनहरे से स्वप्न,मुझसे ही रूठ गए थे,
कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा मैंने तुम्हें,सब ओर यहाँ-वहाँ,
कैसे-कैसे लांछन नहीं सहे मैंने,सबसे जहाँ-तहाँ।
देहरी कि हर आहट पे,तुम्हारे आने की थी ख्वाहिश,
तुम्हारे न दिखने पर,आँखों से बेचारगी की बारिश,
तुम क्या गए रातों की नींद,दिन की दुनिया ही रूठी,
तुम्हारी परित्यक्ता बन,मानो मेरी किस्मत ही फूटी।
तुम नहीं समझोगे मेरी यह पीड़ादाई व्यथा क्या है,
रात-दिन सुलगते रहने की अधूरी सी कथा क्या है,
कैसी पीड़ा उठती थी जब तुम्हारी याद सताती थी,
बिन बात के कहीं भी-कभी भी रुलाई आ जाती थी।
अब आए हो जब वक्त ने,तन पे झुर्रियां बना दी हैं,
कुछ भी न सुहाने की,अजीब आदत सी लगा दी है,
अब नहीं है कोई शिकवा,न कोई शिकायत तुमसे,
देखो जरा अब मेरी आँखें भी,नहीं भीगी हैं नमीं से।
पर चलो इस बंजर मन में,कहीं कोई कोंपल उगी है,
तुम्हें देख तुम्हारी सुनने की,इक आस सी जगी है,
आज सामने हो तुम,निरीह दशा,दृष्टि याचना संग,
धोखा देकर मुझे,तुमने भी,सहे हैं जैसे वक्त के ढंग ।
चलो अब मैंने माफ़ किया तुम्हें तमाम गल्तियों पर,
संग काट लेंगे जो रह गई है मेरी-तुम्हारी जीवन डगर,
थके से हो तुम शायद,मन-ग्लानियों ने झुलसाया है,
रह लो छाँव तले,जब तक कि तुम संग मेरा साया है।
( जयश्री वर्मा )
Bejod Rachna.....
ReplyDeleteख़ुशी होती है यह देख कर कि आप मेरी रचनाओं को ध्यान से पढ़ती हैं और अपनी प्रतिक्रिया द्वारा अवगत भी करातीं हैँ ! धन्यवाद डॉ. मोनिका शर्मा जी !
Deleteअनुभूतियों और भावनाओं का सुंदर समवेश इस खूबसूरत प्रस्तुति में
ReplyDeleteबहुत - बहुत धन्यवाद ! आपकी बहुमूल्य टिप्पणी के लिए संजय भास्कर जी !
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