Monday, July 21, 2014

मैं चाहती हूँ


मैं अपने लिए भी ये जहान चाहती हूँ,
इस खुले आसमान में उड़ान चाहती हूँ,
जन्मी तो माँ से इक बेटे के सदृश्य ही,
पर हक़ और ख़ुशी का सैलाब चाहती हूँ, 
जो खुश हो बढ़ के बाहों में ले-ले मुझे,
ऐसी बाबुल की स्नेहिल बाँह चाहती हूँ।  

पोषित हो सकूँ मैं सुरक्षित छाया के तले,
घर की वो अपनत्वभरी पनाह चाहती हूँ,
बड़ी होके जब पढ़ने को निकलूं मैं बाहर,
खतरा हो न कोई,और न कैसा भी हो डर,
जहाँ पे बेख़ौफ़ होकर पंख फैला सकूँ मैं,
ऐसा अपने लिए भी मैं आसमां चाहती हूँ। 

शादी के बंधन में बंधकर के जब मैं जाऊं,
वहाँ अपने हिस्से का अपनत्व भी मैं पाऊं,
भूल पिछला अंगना,मैं नव घर को सहेजूँ,
नित विकास,उन्नति की नव राहें मैं खोजूं,
कर्तव्यों के निर्वहन के बदले में बस मैं तो,
परिवार और पिया से बस प्यार चाहती हूँ।

अपने लिए ही नहीं इस समाज की खातिर,
सुरक्षित माहौल हो हैवानियत न हो शातिर,
नारी ही तो है रीढ़ इस सामाजिक ढाँचे की,
न बिगाड़ो यूँ सूरत इस दैवीय से साँचे की,
ये छोटी सी इच्छा तो बिलकुल है जायज़, 
हर पुरुष की निगाह में सम्मान चाहती हूँ।

मुझको भी मौकों की उतनी ही दरकार है,
शिक्षा,परवरिश,प्यार पे पूरा अधिकार है,
नारी के वजूद बिन तो नहीं समाज है पूरक,
नारी,पुरुष दोनों हैं एक दूसरे के अनुपूरक,
बेटे-बेटी को गर जो समान नहीं समझेंगे,
हम कुदरती असंतुलन के गुनहगार होंगे।

बेटा ही है पहचान,वो तो है वंश बेल हमारा,
बेटी तो किसी पराए घर,का बनेगी सहारा,
इस फ़र्क करने का मैं परिणाम जानती हूँ,
परिवेश के लिए मैं स्वस्थ विचार चाहती हूँ,
मैं तो बस अपने लिए भी ये जहान चाहती हूँ,
इस खुले आसमान में इक उड़ान चाहती हूँ।

                                                  -  जयश्री वर्मा



2 comments:

  1. बेहद उम्दा रचना!
    जितना अधिक दुनिया देखती हूँ उतना ही लगता है की एक स्त्री की इन सब ख्वाहिशों में से अधिकतर हमेशा ख्वाहिशें ही बनी रहेंगी . भले ही समाज कितना भी पढ़-लिख गया हो परन्तु एक स्त्री के साथ व्यवहार में बदलाव बस नाममात्र ही आया है. अफ़सोस की हम फिर भी खुद को modern कहते हैं.

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    1. लोगों की सोच और विचारों को बदलने में सदियाँ बीत जाती हैं , नाममात्र ही सही बदलाव तो है ऋचा जी ,धन्यवाद आपका मेरी रचनाओं में रुचि दिखाने के लिए !

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