Saturday, April 7, 2012

कर्तव्यबोध

तुम विराट सत्ता के स्वामी,
मैं जल की क्षीण रेख सा हूँ,
तुम शिला सरीखे आ जाओ,
मुझको तो राह बनानी है।


आज कैद मुठ्ठी का अंकुर हूँ,
तुम कितना गहरा गाड़ोगे,
कल धरा फोड़ मुस्काऊंगा,
मुझको तो राह बनानी है।


तम साम्राज्य के शासक तुम,
गहन अन्धकार बन छा जाओ,
मैं दीपक की लौ बन जाऊँगा,
मुझको तो राह बनानी है।



छोटों को क्या कुचलोगे तुम ,
तूफानों से कब उखड़ा है कुश,
झुककर के बच जाऊँगा मैं,
मुझको तो राह बनानी है।


तुम सामंत वर्ग तुम पूज्य वर्ग,
तुम जकड़े समाज के बंधन में,
डर होगा तुम्हें प्रतिष्ठा का,
मुझको तो राह बनानी है।
                              
                                      जयश्री वर्मा 

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