सुबह के सूरज ने,
किरणों की बाहें फैलाईं,
और कहा- उठ
नए दिन, नए जीवन का,
मैंने आंखें खोलीं,
नए उत्साह और किलकारियों के साथ,
इस अजीबोगरीब दुनिया का
सब कुछ जान लेने को उत्सुक,
मैं उठा,नेत्रों में जिज्ञासा,
और हृदय में उत्साह लिए,
इतने में दोपहर आई और बोली,
यौवन राहस्य जानना चाहते हो ?
यह कह उसने,छलकता हुआ -
मादकता का प्याला बढ़ाया,
मैंने पिया और बहकता चला गया,
अपनी ही रौ मैं बहता चला गया,
तभी संध्या ने ताना मारा-
सारे दिन भटके,
क्या हासिल किया ?
मैंने पाया-
मेरे तो हाथ खाली थे,
चेहरे पर भटकन की झुर्रियां,
शिथिल शरीर के साथ,
अन्यमनस्क सा सोचता रहा,
काश मैं भी किसी के लिए जिया होता,
आज कोई तो होता जो कहता-
मैं तेरा हूँ , तू मेरा है,
कितनी नीरव और एकाकी है,
यह वीरानी संध्या,
मैंने चाहा - सचेत करना,
आने वाली पीढ़ी को -
की जिओ पर सिर्फ अपने लिए ही नहीं-
औरों के लिए भी सीखो-त्याग,
औरों के लिए भी सीखो-जीना,
मगर-
उम्र धोखा दे गई,
रात्रि आई ,बोली-
चल मेरे साथ,
तेरा अध्याय समाप्त हुआ ।
( जयश्री वर्मा )
वाह! बहुत खूब जीवन यात्रा को अच्छी तरह से कविता में समेटा है,
ReplyDeleteआपका बहुत - बहुत धन्यवाद प्रदीप जी ! रचना पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ !
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