विवाह-
जन्मों का बंधन,पर उसके कैसे हैं ये ढंग?
जीना था मुझको भी अपने सपनों के संग,
पंख क्यों काटे और क्यों छीन ली उड़ान,
मेरा भी हक था,क्यों छीना ये आसमान ।
ये धरती,ये अम्बर और झरनों की झर-झर,
ये चिड़ियों का चहकना ये हवा का बहकना,
ये पत्तों की सरसराहट ये मौसम की आहट,
फूलों का खिलना और दिन-रात का ढलना,
बच्चों की भाषा और उनके बढ़ने की आशा,
ये माँ-माँ पुकारना,ये बिखेरना,वो संवारना,
अपनों से मिलना,और रिश्तों को सिलना,
ईश्वर ने साँसों से सबको बराबर नवाज़ा है,
तुम्हारा ही हक नहीं,ये उतना ही हमारा है,
फिर क्यों बंदिशें हैं? तब क्यों ये रंजिशें हैं?
क्यों प्रश्नों की कारा में,यूं छोड़ रहे हो मुझे,
जोड़ना था खुदसे,क्यों यूँ तोड़ रहे हो मुझे,
प्रश्नों के जाल में यूँ क्यों छोड़ रहे हो मुझे,
मुझको भी ये जीवन रस, घूँट-घूँट पीना है,
मुझको भी ये जीवन रस, घूँट-घूँट पीना है,
मुझको भी तो तुम संग हर कदम जीना है।
(जयश्री वर्मा )