Thursday, October 4, 2018

आप चुप क्यूँ हैं ?

मित्रों मेरी यह रचना "दिल्ली प्रेस प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पत्रिका सरिता अप्रैल-प्रथम 2019" में
प्रकाशित हुई है आप भी इसे पढ़ें। -



कुछ कहिये कि आप,यूँ चुप क्यूँ हैं ?
बदले हुए हवाओ के,यूँ रुख़ क्यूँ हैं ?
ऐसा भी क्या यूँ गुमसुम सा हो जाना ?
कि मौसमों का जैसे,रूठ ही जाना ?

के आज हवाओं में,गुनगुनाहट नहीं है ,
फूलों का खो सा गया,निखार कहीं है ,
तितलियाँ भी,सुस्त सी नज़र आती हैं ,
भवरों की अठखेलियां,नहीं भाती है।

के आपसे ही तो हमारी,ज़न्नत है जुड़ी,
कैसे समझाऊं,दिल में,बेचैनी है बड़ी ,
यूँ समझिये कि,सूरज में तेज नहीं है ,
धुंध के रुख का,आभास भेज रही हैं।

कि ये मायूसी,नहीं खिलती है आप पे ,
जैसे छाए हैं बादल,रौशनी के नाम पे ,
आपको नहीं पता,ये पल दुःख भरे हैं ,
जैसे खिले न फूल,और मुरझा गिरे हैं।

कि अजी आपको,मुस्कुराना ही होगा ,
इस गम का सबब,तो बताना ही होगा ,
क्या खता कोई हुई है मुझ दीवाने से ?
या फिर कोई शिकायत है ज़माने से ?

क्या ठिठक गए हैं रास्ते क़दमों के तले ?
या कि बंधन समाज के पड़ गए हैं गले ?
कि गुज़र ही जाएंगे,ये मौसमों के झोंके ,
ज़माने से तो,छुपा लूँगा मैं,बाहों में लेके। 
            
                                                         - जयश्री वर्मा



Tuesday, June 5, 2018

फरेब कैसे हैं

वो जानते है सब कुछ,पर खुद पे गुमान किये बैठे हैं ,
दिलों के व्यापार खेलते हैं,और अनजान बने बैठे हैं ,
मेरे सब्र की इन्तहां भी,कोई कम नहीं,उनके हुस्न से ,
हम भी इंतज़ार में हैं,कब वो पूछें,अजी आप कैसे हैं ?


यूँ तो वो,रह-रह कर,चुपके,छुपके बेचैन नज़रों से देखें,
मिले नज़र तो,बेखयाली सी दिखा,अपने दुपट्टे से खेलें,
बनते यूँ हैं जैसे कि उन्हें,हमारी कोई तमन्ना ही नहीं ,
अजी जाने भी दीजिये,न पूछिए हुस्न के फरेब कैसे हैं।

माना हैं वो,नूरों में नूर,दिलकश ग़ज़ल,बहारों की बहार ,
हम इश्क हैं,उन्हें भी तो होगी हमारी नज़रों की दरकार ,
बेशक खुदा ने,बेशकीमती हीरे सा,हुस्न दिया है उनको ,
कम तो हम भी नहीं,पारखी हैं,हुनरमंद जौहरी जैसे हैं।

आखिर हम बिन,उनकी सारी खूबियां,किस काम की हैं,
कोई सराहने वाला न हो तो,ये रौनकें सिर्फ नाम की हैं,
यूँ तो चाहकर भी,हमारे वज़ूद को,वो नकार सकते नहीं,
अजी गर वो चाँद हैं,तो हम भी चकोर की चाह जैसे हैं।

                                                    -  जयश्री वर्मा









Saturday, March 24, 2018

ढल रहे हैं

आप पहली मुलाक़ात से ही,मेरे अपने से बन रहे हैं,
सुनहरे ख़्वाब मेरे,शब्द बनके कविता में ढल रहे हैं,
मेरे ख्यालों के शब्द,प्रश्न बनके मुझसे ही पूछते हैं,
ये प्रश्न मेरे जवाब बन,आपके लफ़्ज़ों में पल रहे हैं। 

आप हैं वो मंज़िल,जिसकी रही इस दिल को आस,
बुझती ही नहीं आप पे,ठहरी हुई निगाहों की प्यास,
कि कितना ही बहलाऊँ इन्हें,ये आप पे ही जाती हैं,
रूप आपका निहार के ये,अजब सी तृप्ति पाती हैं। 

आपके आने से,खुशनुमा हो जाए बोझिल सा समां,
क्या कहूँ कि इस दीवाने के लिए,आप हैं सारा जहाँ,
हर बार,हर महफ़िल में आपकी ही आवाज़ ढूंढता हूँ,
जितना चाहूँ दूर जाना,आपसे उतना ही जुड़ता हूँ। 

आपकी इस इक मुस्कराहट ने,सारे जवाब दे दिए हैं,
कि मेरे प्रश्न और,आपके जवाब बस मेरे ही लिए हैं,
आप नहीं समझेंगे कि मैं,अब क्या कुछ पा गया हूँ,
कि जैसे ठहरे से पानी में,इक तूफ़ान सा छा गया हूँ।  
ये तूफ़ान सिमट जाए बाहों में,बस यही है तमन्ना,
लाख रोके ज़माने की दीवारें,बस तुम मेरे ही बनना,
आपको नहीं पता,बिन बोले ही आप क्या कह रहे हैं,
ख्वाब मेरे हकीकत बन के,अफ़सानों में ढल रहे हैं।

                                                                                                         -  जयश्री वर्मा

Friday, February 2, 2018

हम करें तो गुस्ताखी

 मित्रों मेरी यह रचना "हम करें तो गुस्ताखी "सरिता जनवरी (द्वितीय) 2018 में प्रकाशित हुई है। यह आपके सम्मुख भी प्रस्तुत है। 

आते-जाते मेरी राहों पर,आपका वो नज़रें बिछाना, 
पकड़े जाने पे वो आपका,बेगानी सी अदा दिखाना,  
आप करें तो प्रेम मुहब्बत,जो हम करें तो गुस्ताखी। 

काजल,बिंदी,गजरा,झुमके,ये लकदक श्रृंगार बनाना,  
मन चाहे कोई देखे मुड़कर,देखे तो तेवर दिखलाना, 
आप सजें तो हक़ आपका,जो हम देखें तो गुस्ताखी।

भीनी खुशबू,भीनी बातें,भीनी-भीनी सी,हलकी हँसी,
जो खिलखिलाहटें गूँजी आपकी,मैखाने छलके वहीँ,  
हँसे आप तो महफ़िल रौनक,हम बहके तो गुस्ताखी।

प्रेम वृहद् है,प्रेम अटल है,प्रेम का पाठ है दिलों ने पढ़ा,  
प्रेम धरा है,प्रेम गगन है,प्रेम से सृष्टि का ये जाल बुना, 
इज़हार आपका,करम खुदा का,हम कहें तो गुस्ताखी।

                                                   - जयश्री वर्मा