बिना अश्क के कोई नेत्र कहाँ ?
बिन रंगों के उत्सव भला कैसा,
बिना कहकहे उल्लास कहाँ ?
बिन पिता के पहचान है कैसी,
बिना जननी के है जन्म कहाँ ?
बिन मित्रों के खेल भला कैसा,
बिना क्रीड़ा के बाल्यकाल कहाँ ?
बिन साधना कोई शिक्षा कैसी,
बिना गुरु के है कोई ज्ञान कहाँ ?
बिन भूल का कोई यौवन कैसा,
बिना भ्रमर भला कमल कहाँ ?
बिन आध्यात्म साधू है कैसा,
बिना मानव भला ईश कहाँ ?
बिन साँस कोई जीवन कैसा,
बिना जल के कोई मीन कहाँ ?
बिन तरुवर के हरियाली कैसी,
बिना भाव के कोई हृदय कहाँ ?
बिन पाठक कोई लेखक कैसा,
बिना लेखक भला इतिहास कहाँ ?
बिन विछोह प्रेम-परख है कैसी,
बिना व्याकुलता के तृप्ति कहाँ ?
तुम बिन ओ प्रिय-प्रियतम मेरे,
तो फिर मेरा है अस्तित्व कहाँ ?
( जयश्री वर्मा )
तुम बिन ओ प्रियतम मेरे,
ReplyDeleteफिर मेरा है अस्तित्व कहाँ....सुन्दर प्रस्तुति! साभार! आदरणीया जय श्री जी!
धरती की गोद
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद संजय कुमार गर्ग जी!
Deleteअंतिम दो पंक्तियाँ प्रेम की पराकाष्ठ लिए ...
ReplyDeleteसुन्दर ...
इस बहुमूल्य टिप्पणी के लिए धन्यवाद आपकाDigamber Naswa जी !
Deleteवाह बहुत सुंदर ...
ReplyDeleteबिन विछोह है तृप्ति कहाँ ?
तुम बिन ओ प्रियतम मेरे,
फिर मेरा है अस्तित्व कहाँ ?
बधाई ...
बहुत - बहुत धन्यवाद आपका मोहन सेठी जी!
Deleteआज 18/मार्च/2015 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
सादर आभार यशवंत यश जी!
Deleteachchhe rachna
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत धन्यवाद अपर्णा त्रिपाठी जी !
Deletewah bahut sundar likha hai....antim line man ko bha gayi
ReplyDeleteसादर आभार आपका रेवा जी !
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ReplyDeleteएक-दूजे के बिना ही सबकुछ है ..बहुत सुन्दर ..
जी हाँ एक-दूजे का महत्व ही एक दूजे के साथ है ! धन्यवाद कविता रावत जी !
Deleteकविता की आखिरी पंक्तियाँ काफी कुछ कह गईं...
ReplyDeleteइस बहुमूल्य टिप्पणी के लिए धन्यवाद आपका संजय भास्कर जी !
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