ओ प्रिये मेरी ! संगिनी मेरी ! ओ मेरे सपनों की रानी,
तुम बनी हो जब से मेरे इस जीवन की अमिट कहानी,
मैंने पाकर तुम्हें अपने साथ में धन्य खुद को है माना,
तुम बनी हो जब से मेरे इस जीवन की अमिट कहानी,
मैंने पाकर तुम्हें अपने साथ में धन्य खुद को है माना,
पर आसान नहीं है विवाह बंधन को यूँ निभा ले जाना ।
जैसे कंगन,हार या झुमके पे ही टिकी हो मेरी ये प्रीत,
उस उपहार की कीमत से मेरा प्यार परखा था तुमने,
तुम्हारी मधुर मुस्कराहट पे दिल हार दिया था हमने।
तुम्हारी मधुर मुस्कराहट पे दिल हार दिया था हमने।
विवाह के साथ ही जैसे ये हक़ लेकर के तुम थीं आईं,
मैंने जुटाया मेहनत से,और मालकिन तुम कहलाईं,
आते ही टोका-टाकी संग मुझे जीने के ढंग सिखाए,
सज्जनता,सलीके से रहने के पाठ भी नए थे पढ़ाए।
मैं क्या खाऊंगा,पहनूंगा क्या,सबपे रही नज़र तुम्हारी,
मैं कहाँ गया,किससे बोला,इन सबपे बिठाई पहरेदारी,
ज़रा टाल-मटोल करने पे तुमने तेवर तीखे से दिखलाए,
बाहर अफ़सर,घर में क्या हूँ,इसके फर्क मुझे समझाए।
आसान नहीं था तुमसे कोई भी बात छिपा ले जाना,
किससे सीखा गुर ये तुमने,खुद में ही जासूस जगाना ?
कितनी बार कुरेद-कुरेद के कई सच तुमने उगलवाए,
हमें शर्मिंदा करके चेहरे पे विजय मुस्कान तुम लाए।
पर जब गलती खुद से होती,झट भोली तुम बन जातीं,
तब हर-हाल में रो-रो के तुम अपनी ही बात मनवातीं,
रूठ जाओ तुम तो तुम्हें मनाना भी तो आसान नहीं है,
हर ख़ुशी के पीछे छिपी,ब्लैकमेलिंग की अदा कहीं है।
इस समाज में खुद को अच्छा पति बन करके दिखलाना,
के जिम्मेदार हुआ प्रिये मैं,तुम्हारे ही संग में चलते-चलते,
किनारा भी दिखने लगा यूँ उम्मीदों के संग पलते-पलते।
मैं प्रिये अब हुआ हूँ वृद्ध,तुम्हारे साथ में जीते और मरते,
मैं प्रिये अब हुआ हूँ वृद्ध,तुम्हारे साथ में जीते और मरते,
कभी मैं हँसा,झुंझलाया कभी,कटी कभी तू-तू,मैं-मैं करते,
अब ओ प्रिये!मुझे तो तुम झुर्रियों संग भी भली लगती हो,
के मेरे इस जीवन में तुम,नित-नव आशाओं सी जगती हो।
मैंने जीवन में अब जाकर बहुमूल्य मोल तुम्हारा है जाना,
धूप-छाँव और सुबह-साँझ के सुखमय मेल को पहचाना,
तुम दूर न जाना ओ प्रिये मेरी इन पलकों से ओझल होके,
मेरे लिए तो ओ प्रिये!अब तुम हो,मुझमें मुझसे भी बढ़ के।
- जयश्री वर्मा
अब ओ प्रिये!मुझे तो तुम झुर्रियों संग भी भली लगती हो,
के मेरे इस जीवन में तुम,नित-नव आशाओं सी जगती हो।
मैंने जीवन में अब जाकर बहुमूल्य मोल तुम्हारा है जाना,
धूप-छाँव और सुबह-साँझ के सुखमय मेल को पहचाना,
तुम दूर न जाना ओ प्रिये मेरी इन पलकों से ओझल होके,
मेरे लिए तो ओ प्रिये!अब तुम हो,मुझमें मुझसे भी बढ़ के।
- जयश्री वर्मा
जीवन कहानी लिख दी इन सुन्दरता से पिरोये शब्दों में ...दिल को छूते हुए शब्द ...
ReplyDeleteसादर धन्यवाद आपका Digamber Naswa जी !
Deleteबहुत सुंदर रचना ...और लाजवाब बोलती तस्वीर ..
ReplyDeleteआपने मेरी कविता के साथ मेरे द्वारा बनाई गई तस्वीर को भी पसंद किया शुक्रिया कविता रावत जी !
Deleteसुंदर!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आपका कृष्ण मिश्रा जी !
Deleteअमिट प्रेम .... जीवन के यौवन - परिणय सूत्र बंधन से निरन्तर चौथी अवस्था तक अविरल प्रेम प्रवाह वर्णन आपकी इस कविता में पढ़ने को माला ।
ReplyDeleteसुंदर शब्द-मोतियों की माला गुथी गई है जो आपके इस चित्र की ही तरह है । सुंदर-अतिसुंदर ।
इस सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद जगदम्बा डिमरी जी !
ReplyDeleteजीवन सफ़र कठिन था,हंसना-रोना,रूठना और मानना,
ReplyDeleteइस समाज में खुद को अच्छा पति बन करके दिखलाना,
वाह क्या पंक्तियाँ हैं ... बहुत गहरे एहसास :))
धन्यवाद आपका संजय भास्कर जी !
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