Thursday, September 25, 2014

आप कहें तो

मित्रों मेरी यह रचना दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन द्वारा प्रकाशित गृहशोभा में प्रकाशित हुई है,आप भी इसे पढ़ें।


आप कहें तो आपको इस दिल की गहराइयों में बसाऊं,
आपकी कल्पनाओं को थाम के कई अफ़साने सजाऊं। 



आप कहें तो आपको सोते-जागते से ख़्वाबों के शहर में ,
गुनगुनाते,खोए-खोए,सुन्दर स्वप्न सजे,नित गाँव घुमाऊं। 

फूलों और तितलियों के रंगों में डूबे,गीतों से सजे सुरों में ,
बेबाक सुलझे-अनसुलझे सवालों की उलझनें सुलझाऊँ।  

पूस सी सर्द सिहरनभरी और जेठ सी तपती ख्वाबगाह में ,
आप का साथ पाके मैं इक महफूज़ अपना जहान बसाऊं। 

जग से चुरा लूँ आपको,टकरा जाऊं जमाने की हर शै से ,
अगर जो मैं आपका हमदम,हमसफ़र,हमराज़ कहलाऊं। 

आपको अपना बनाने के दरम्यान जमाने के हर सवाल पर , 
आपको आंच न आने दूँ,हर निगाह का जवाब मैं बन जाऊँ।  

आपके यूँ मुस्कुरा के निकल जाने की बेख़याल अदा को , 
अपने प्रेमपगे भावों संग गूंथ,कोई प्यारा,इक नाम दे जाऊं। 

आप कहें मनमीत तो मैं जीवनभर बस आपका ही होकर , 
खुशियों और उमंगों को समेटने में सारा ये जहान भुलाऊं ।

                                                                       ( जयश्री वर्मा )  





Thursday, September 11, 2014

जानम मैं हूँ न !


अपना बनाने की कला,जो तुमने है सीखी,
एम.बी.ए. की डिग्री भी,फेल मैंने है देखी,
आँखों के फंदे में ऐसा,तुमने मुझे फंसाया,
हाय ! ख़ुदा भी मेरा,न मुझे सम्हाल पाया,
सारे अस्त्र-शस्त्र प्रेम के,मारे हैं तुमने ऐसे,
ताउम्र का बांड निभाने को जानम मैं हूँ न !



मैं,मुन्नी,चिंटू सब हैं जैसे तुम्हारे सबॉर्डिनेट,
आर्डर देने में प्रिय तुमने,किया कभी न वेट,
चलाओ धौंस,पड़ोसियों से भी उलझ जाओ,
हक़ है तुम्हें मुकाबले में,जीत तुम ही पाओ,
ढाल हूँ मैं आखिर तुम्हारी,सुरक्षा ही करूंगा,
सारे बिगड़े मसले सुलझाने को जानम मैं हूँ न !


किटी पार्टी में जाओ तो,बहार बनके छाओ,
टिकुली,झुमका,सेंट,सारे श्रृंगार भरके जाओ,
हाउज़ी खेलने में प्रिय पैसे लगाना बेझिझक,
कहलाना न पिछड़ी,एक-दो घूँट लेना गटक,
हंसना है सेहतमंद,सो कहकहे खूब लगाना,
तुम्हारे ये सारे खर्च उठाने को जानम मैं हूँ न !



बटुए के पैसे ज़ेवर और साड़ियों पे लुटाओ,
पहन-पहन के सब,जबरन मुझे दिखाओ,
तारीफ़ न मिले जो,तुम्हारे मन के मुताबिक़,
रूठ जाना हक़ से,संग शब्दबाण अधिक,
मानना तभी,जब फरमाइश हो कोई पूरी,
आखिर तो नाज़ उठाने को जानम मैं हूँ न !


फिर भी हो जानम तुम,मेरे इस घर की रानी,
मेरे इस जीवन-जनम की,हो अमिट कहानी,
तुम रूठो,रिझाओ या मुझे बातों से बहकाओ,
खुशियों में सदा झूलो,हरदम खिलखिलाओ,
मैंने जीवन सौंपा तुम्हें,पूरे इस जन्म के लिए,
हर तरह की शै से जूझने को जानम मैं हूँ न !

                                                      ( जयश्री वर्मा )

Thursday, September 4, 2014

बहका गई

बादल जो बेख़ौफ़ उमड़े हैं,कैसे घनघोर घुमड़े हैं,
प्रकृति के वाद्य पर देखो,सुरीले गीत कई उमड़े हैं,
हलकी ठंडी-ठंडी बयार,और देखो बूँद-बूँद फुहार,
तन को भिगो गई,और मन में सपने भी संजो गई।
पपीहे की ये पिहु-पिहु,ये पक्षियों की चहक-चहक,
किलोल करते फूलों की,ये मदमाती महक-दहक,
सतरंगी इन्द्रधनुष की,रंगीली,रंगों भरी ये रंगधार,
कोरी ओढ़नी में रंग भर,प्रीत के गीत में डुबो गई।

ये कैसी फुसफुसाहट है,अजब सी सरसराहट है ?
ये कैसी कलियों के संग भंवरों की गुनगुनाहट है ?
फूलों के रंगों संग,फूट पड़ी धरती की बौराहटह,
अजब सी अनुभूति जागी,तन-मन उमंगें पिरो गई।

ऐसे में चुप-चुप रह बेपरवाह से सुर अनंत फूटे हैं,
कई राग-रंग अंग बिखेर दिए,सपनों ने जो लूटे हैं,
मन की सुर-वीणा की मधुर,नशीली सी ये झंकार ,
बौराए मन आँगन का देखो छोर-छोर भिगो गई।

कुछ भी न कहो ऐसे में बस निःशब्द ही रहने दो,
बोलने दो भावों को,ज़ुबान के बोल शांत रहने दो,
हृदय की विरह वेदना,पलकों से छलक जो पड़ी है ,
वर्षों की एकाकी जीवन व्यथा,दो बूंदो से कह गई।

                                                                                       ( जयश्री वर्मा )