कलियाँ कब,क्यों चुपके से,फूल बनके महकें ?
ये भँवरे गुन-गुन सुन ज़रा,क्या कुछ हैं कहते ?
तितलियाँ भी क्यों रंग जादुई,परों में हैं भरतीं ?
डाल-डाल क्यों रुकतीं,और फिर से हैं चलतीं ?
तितलियाँ भी क्यों रंग जादुई,परों में हैं भरतीं ?
डाल-डाल क्यों रुकतीं,और फिर से हैं चलतीं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।
कोयल कुहू-कुहू क्यों,मतवाले गीत है गए ?
पपीहे की पीहू-पीहू क्यों,यूँ शोर सा मचाए ?
डालियाँ पवन संग क्यों यूँ,झूम-झूम हैं जाएं ?
सर-सर के मदभरे से क्यों,गीत फ़ुसफ़ुसाएं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।
हरी-भरी चादर ओढ़ के.ये धरा क्यों इतराए ?
आकाश भी धरा पे क्यों,रीझा-रीझा सा जाए ?
क्षितिज पे लगें दोनों ही,साथ मिलते से जाएं ?
तराने प्रेम भरे से भला क्यों,ये संग गुनगुनाएं ?
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।
इक शून्य से ये जन्मी और,विराटता है इसने पाई ,
ये सृष्टि कहाँ से चली,और कहाँ तक हमें ले आई ,
उत्थान,पतन,अमरत्व की,अजब सी ये कहानियां ,
रीतों,गीतों की जीवंत,खिलखिलाती हुई जवानियाँ ,
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।
गुज़रता वक्त क्या है कहता,सुनो तो मन लगा के,
ध्यान से सुनो तो ज़रा,भावों का प्रेम-दीप जगा के,
कुछ आमंत्रण सा छुपा है,इन बहकती हवाओं में,
शायद राज़ उजागर हैं,हमारी-तुम्हारी वफाओं के,
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।
- जयश्री वर्मा