Monday, August 26, 2019

तुम्हारे जाने के बाद

तुम क्या जानो के ऐसे,तुम्हारे जाने के बाद ,
कैसा बेबस सा हुआ,ये मेरा मन,ये मेरा तन ,
के देहरी पर निगाह,ठहर सी जाती है मेरी ,
जहाँ पे कि पग आहटें,पुकारती हैं तुम्हारी। 

गर कुछ भी न था,तो फिर ये संतति हमारी ,
जो है हमारे-अपने प्रेम की अमिट निशानी ,
जिस पर तुम्हारी,झलक का घना पहरा है ,
जो आधा तुम्हारा,और आधा मेरा अपना है।

न जाने कितनी ही रातें,आँखों में जागी हूँ मैं ,
बिन आँसू के रोई हूँ,ऐसी इक अभागी हूँ मैं ,
के दूर होकर भी,मेरे साथ सदा रहते हो तुम ,
मेरी यादों,बातों,साँसों में,सदा बसते हो तुम।

उफ़! इतनी विरक्ति के साथ तुम बने रहे मेरे ?
क्या सब झूठ था?वो समर्पण,वो बाहों के घेरे?
मैं तो स्वयं को हमेशा से ही,धन्य मानती रही,
तुम सिर्फ मेरे हो,बस ये एक सच जानती रही।

कुछ आभास तो हुआ था,पर हृदय न माना था ,
ये दृष्टिभ्रम है इक,मेरे अंतर्मन ने यही जाना था ,
ये नहीं जानती थी कि,यूँ अनहोनी बुला रही हूँ ,
खुद के अन्त की,मैं खुद ही,कहानी बना रही हूँ।

सदा दिल ने माना,मैं जिस्म और जान हो तुम ,
के मेरी इस जीवन-कहानी का,प्रमाण हो तुम ,
तुम्हारे ही साथ में,मैं अपने,ये दिन-रात ढालूँगी,
हाथों में हाथ ले,मैं जीवन के रास्ते निकालूँगी।

भरोसा था मुझे कि मेरा प्यार,कहीं नहीं जाएगा ,
के भला मुझ जैसा सच्चा दिल,कौन नहीं चाहेगा,
बड़ा ही गुरूर था खुदपे,के सब सम्हाल लूँगी मैं ,
नहीं जानती थी के ऐसे किस्मत उछाल लूँगी मैं।

न जाना था ये फरेब,मेरी ही कहानी बन जाएगी,
इस दिल की धड़कन से,भावनाएँ  दूर हो जाएँगीं,
अब जाना कैसे,आँखों के ख्वाब,बैरी हो जाते हैं,
और कैसे,जिस्म से,जिस्म के साए,गैर हो जाते हैं।
                                          
                                                     - जयश्री वर्मा








  




Monday, August 5, 2019

ये क्यों है ?

ये अपनों के ही दरमियान,खड़ी दीवार क्यों है ?
के आज आदमी ही,आदमी का शिकार क्यों है ?
मशीनी से जिस्म हुए,भावों के समंदर रीत गए ,
ये भाई-भाई के बीच में,खुली तकरार क्यों है ?

बचपन के दिन नहीं दिखते,अब बेफिक्र,सुनहरे ,
सबको ही शक से देखते हैं नवनिहालों के चेहरे ,
बोल फूटते ही,ये सीखते हैं,फरेबों के ककहरे ,
ये यूँ इक दूजे को,हराने की लगी कतार क्यों है ?

जवानी नहीं है अब,मासूम और शरमाई हुई सी ,
वादे,वफ़ा की बातें,अब करता नहीं है कोई भी ,   
सब कुछ ही खुलापन लिए,खुली किताब सा है ,
ये दो दिलों के बीच,बिछा हुआ व्यापार क्यों है ?

बुढ़ापे को निराश्रित होने के,भय की आहट है ,
बस-इंतज़ार,याद,आँसू वृद्धाश्रम की चौखट है ,
के सेवा-सम्मान कैसे,खो गया दुनिया में कहीं ?
ये जीते जी खोदी गई,रिश्तों की मज़ार क्यों है ?

शुष्क से माहौल में जन्मे-पले,बंजर दिल लोग ,
ये फूल-तितली,चाँद-तारों की,बातें नहीं करते ,
क्यूँ अपनी ही तलाश में,भटक रहा है हर कोई ,
के हर ज़िन्दगी को,ज़िन्दगी की तलाश क्यों है ?

ये सवाल कौंधते हैं,हर तरफ,सवालों को लिए ,
बुझते नहीं हैं,टिमटिमाते हुए,आशाओं के दिए ,
इन्हीं आशाओं के सहारे,कट जाती है हर उम्र ,
मुस्कुराहटों को ओढ़े,भविष्य की उम्मीद लिए।  

                                                   - जयश्री वर्मा