Thursday, February 19, 2015

झूठ न बोलो

मित्रों! मेरी यह रचना दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन द्वारा प्रकाशित " सरिता " मार्च 2015 में प्रकाशित हुई है,आप भी इसे पढ़ें।
मित्रों! मेरी यह रचना जून  (द्धितीय ) 2017 में पुनः प्रकाशित हुई।

जब नज़र मिली तब था तुमने नज़रों को फेरा ,
पर रह-रह,फिर-फिर और रुक-रुक के देखा,
चेहरे पे अनजाने से थे भाव दिखाए ,
तुमने लाख छुपाए भाव मगर,
नज़रों में तो बात वही थी ।

महफ़िल में अनजाना सा था व्यवहार दिखाया,
तुम्हारी बातों में मेरा कोई भी जिक्र न आया,
तुम चहरे पर कोई शिकन भी न लाए,
पर जिन ग़ज़लों को छेड़ा तुमने ,
लफ़्ज़ों में तो बात वही थी ।

वही राहें सभी थीं पुरानी जानी और पहचानी,
जिन राहों पे कभी की थी हमने मनमानी,
तुम्हारा हर मोड़ पर रुकना और ठहरना,
फिर बोझिलता के संग कदम बढ़ाना,
बुझा-बुझा सा अहसास वही था।

चलो तुम्हारा यूँ नज़र फेरना मैंने माना जायज़,
तुम्हारे लफ्ज़ बेगाने थे ये भी माना जायज़,
राह बदलना चलो वो भी सब जायज़,
मगर ये झूठ न बोलो साथी कि-
तुमको मुझसे प्यार नहीं था।

तुमने नज़र जब फेरी थी तब आँसू थे उनमें,
लफ्ज़ भी तुम्हारे थे दर्द भरे और सहमे,
राहें जब बदलीं तब रुक-रुक के देखा,
पर ये सच तुम न छुपा सके थे,
कि-
तुमको मुझसे प्यार बहुत था,
अब सच कह दो न साथी-
तुमको मुझसे प्यार बहुत था।

                                          जयश्री वर्मा
                                                              

Monday, February 2, 2015

कुछ तो कहा है

कलियाँ अंगड़ाई भर-भर के मोहक रूप रख रहीं ,
फूलों की रंगीन सी छटा जैसे हर दृष्टि परख रही ,
खुशबू मनभावन सी भीनी-भीनी सी है बिखर रही ,
आखिर इन भवरों ने कलियों से कुछ तो कहा है।


हरियाली का जादू बिखेर देखो धरा श्रृंगार कर रही ,
पतझड़ की उदासीनता त्याग आँचल रंग भर रही ,
समृद्धि से भरी-भरी सी नव जीवनों को संवार रही ,
आखिर नीले एम्बर ने इस धरा से कुछ तो कहा है।

मेघों का अथक प्रयास है बूँदें वर्षा बन के झर रहीं ,
महीन-महीन धाराएं देखो नदियां बनके मचल रहीं  ,
कल-कल के सुर सजीले सजा के राग नए गुन रहीं ,
आखिर इस बदरिया से सागर ने कुछ तो कहा है।

केश काले उलझ-उलझ,उड़ चेहरे को हैं छेड़ रहे ,
बिंदिया,झुमके,कंगन,पायल यूँ शोर-जोर कर रहे ,
पलकें हैं झुकी-झुकी और मुखर शब्द क्यों मौन हैं ,
आखिर तो प्रियतम ने प्रिया से कुछ तो कहा है।

क्यों ऐसा लगे है सब तरफ जैसे साजिशें हजार हैं ,
चारों तरफ से घेर रही हो जैसे बहकी सी बयार है ,
मौसमों की हलचल में जैसे फितूर ही सा सवार है ,
सृष्टिकर्त्ता ने जैसे जवाँ दिलों से कुछ तो कहा है। 
                                 

                                                                                   ( जयश्री वर्मा )