Tuesday, March 11, 2014

बदल रहे हैं हम

अब आज देखिये कुछ-कुछ तो बदल रहे हैं हम,
वक्त के तकाज़े पे कुछ-कुछ सम्हल रहे हैं हम,
कुदरत से की जो छेड़-छाड़ तो अच्छा नहीं होगा,
माता-पिता कहलाने का हक़ सच्चा नहीं होगा।

माता-पिता के प्यार पे हक़ दोनों का ही है समान,
फ़िर इस सच से भला हम क्यों बन रहे अनजान,
जो दिया ईश्वर ने,दोनों हाथों से उसे स्वीकारिये,
बेटा हो अथवा हो बेटी,दोनों को सामान संवारिये।

कल का भरोसा नहीं कोई?वृद्धावस्था की सोचते हैं,
भविष्य के भयवश हो वर्तमान को क्यों कोसते हैं ?
आँगन में चहकती चिड़िया के खेल सुखद निराले हैं,
कल्पना के डर से क्यूँ रोकें,सुख जो आने वाले हैं।

गर सच्चे हों आप तो दोनों नाम आपका कर जायेंगे,
बेटी को बनाया समर्थ तो,आप ही धन्य कहलाएंगे,
समर्थ बेटी भी बेटे के सामान घर का गौरव बढ़ाएगी,
परिवार,समाज और देश को नई राहों पे ले जाएगी।

देवियों के श्रद्धा रूप में ही न सिर्फ,नारियों को पूजिये,
उनके जीवन,उपस्थिति,सार्थकता को भी तो बूझिये,
सृष्टि की निगाह में तो,धर्म-जाति हैं सिर्फ स्त्री-पुरुष,
उत्तर तो स्वतः ही मिलेगा यदि बनकर सोचें मनुष्य।

                                                                                      ( जयश्री वर्मा )










Thursday, March 6, 2014

बस रखो विश्वाश

बसे-बसाए घर क्यूँ बन रहे बंजर,
बिखरते हुए लोग,बुझी हुई सी सहर,
धीरज तो धर बहेगी,शान्ति की लहर,
थम ही जाएगा ये,आखिर तूफ़ान ही तो है।

झुलसता बदन,चिलचिलाती तपन,
तड़पते हुए लोग,और तार-तार मन,
तृप्त करने को,सावन आएगा जरूर,
कब तक जलेगी ये,आखिर अगन ही तो है।

जरूर होगा दूर ये,फैला हुआ अँधेरा,
हार जाती है रात,जब आ जाता सवेरा,
सिमटेगा जरूर ये,बिखरता हुआ बसेरा,
अंततः भरेगा जरूर,आखिर ज़ख्म ही तो है।

छोड़ना मत हाथ से,आशा कि डोर,
ठान ले संकल्प और,लगा दे ज़रा जोर,
चीर कर अँधेरा तू,उगा दे आशा कि भोर,
गुज़रेगा जरूर ये,आखिर बुरा वक्त ही तो है।

मत छोड़ आस,क्यों होता तू निराश,
आएगी ख़ुशी,तुम बस रखो विश्वाश,
जरूर झूमेगा आँगन,खुशियों का पलाश,
मिलेगा जीवन जल,ये गर तेरी सच्ची तलाश है।

                                                                                ( जयश्री वर्मा )


Monday, March 3, 2014

अब आ जाओ

तुम आओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।


सूनी हो गईं गलियां सारी ,
अँखियाँ सूने पनघट सी हैं ,
सूनी गगरी सा मन मेरा ,
मन भाव सभी अब हारे हैं।

तुम आओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।

मूक हो गई हंसी अब मेरी ,
सहमे होंठों के बोल सभी ,
खुशियां रूठ चुकीं  मुझसे ,
गम के सब ओर खजाने हैं,

तुम आओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।

स्वप्न हुआ बसंत का खिलना ,
पतझड़ का सा साम्राज्य हुआ ,
ये मन-तरु सूख चूका है मेरा ,
अब फिर से पुष्प खिलाने हैं ,

तुम आओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।

हरी भरी थी डाल कभी यह ,
पंछी भी अक्सर आ जाते थे ,
गाये थे बुलबुल ने जो गीत ,
वो ही गीत मुझे दोहराने हैं ,

तुम आओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।

मैं अभिशप्त दुःखी सीता सी ,
तुम कभी तो मिलने आओगे ,
जो भूल गए हो मनमीत मेरे ,
वो ही किस्से तुम्हें सुनाने हैं ,

अब आ जाओ कि तुम बिन ,
मेरे सभी गाँव वीराने हैं।

                                       ( जयश्री वर्मा )