हे माँ धरती !
अब रोक ले सभ्यता निगलती,गरजती,अपनी गंगा ये ,
और अब तू थाम ले,अपने फिसलते ऊँचे-ऊँचे पर्वत ये।
हमने अज्ञानता में आकर,जो कुछ हानि तुझे है पहुंचाई,
ये अविवेकी काम गलत था,ये बात समझ हमें न आई।
हमने विकास के नाम माता,स्व विनाश रचना कर डाली,
नदियाँ रोकीं ये पर्वत फोड़े,तेरी छाती छलनी कर डाली।
मत दे सब जीवों को हे माँ!यूँ तू असमय प्रहार काल का,
न छीन साँसें,सपने और अपने,न दे यूँ श्राप अकाल का।
माना हमने अविवेकी सोच से माँ!तेरे हरेभरे वृक्ष हैं काटे,
पर्यावरण खिलवाड़ कर हमने,तुझको दर्द ही दर्द हैं बांटे।
माना हम मानव दोषी हैं तेरे,फिर भी आखिर बच्चे हैं तेरे,
अब क्रोध रोक ले माँ तू अपना, क्षमा दान हमें अब दे दे।
सुन ले रुदन,क्रंदन माँ सबका,अब रोक ले अपना क्रोध,
विकास की दौड़ में नहीं था,हमको इस विनाश का बोध।
हे माँ!हमको नहीं था-इस विनाश का बोध।
उत्तराखंड की आपदा पर, धरती माँ अब रहम कर !
( जयश्री वर्मा )
हे शिव-
रोक ले अपनी गरजती गंगा अब
और समेट ले बिखरी जटाएं सब
सम्हाल इन बिखरते किनारों को
मत छीन अब मेरे जीवन सहारों को
न छीन यूं रिश्तों का प्यार दुलार
न कर अब और निष्ठुर व्यवहार
हे केदार !हे श्रृष्टि विचारक !अब रहम कर
क्रोधित होकर देव भूमि तू यूँ मरघट न कर
अब रोक दे अपना क्रोध-
विकास की दौड़ में हमें नहीं था विनाश का बोध।
हे शिव -हमें नहीं था विनाश का बोध।
उत्तराखंड की आपदा पर !शिव से याचना !
( जयश्री वर्मा )
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