Saturday, March 30, 2013

साँसों की डोर


साँसों की डोर पर इस जीवन के खेल,
उजियारे सुख अंधियारे दुखों का मेल।

न आना मर्ज़ी से और,न ही जाना मर्ज़ी से,
जीवन इक नाटक और पात्रों की खुदगर्ज़ी है।

माँ के आँचल का पालना,पित्र-छाया का संग,
भाई,बहन,सखा से,रूठने और मनाने का रंग।

यौवन की दहलीज़ पर,नए रंगों की पहचान,
आसमान छूने सरीखी,नए सपनों की उड़ान।

हांथों में बांधना वो,अपना सारा घर-संसार,
नए जीवनों का जन्म,सब सहेजने का सार।

फिर बिछड़ते बुजुर्गों के छूटने का असीम दर्द,
दुःख-सुख का भान,सांसारिक कर्मों का मर्म।

ये कैसा खेल है और ये है कैसी अजब कहानी,
ये कैसा आया मैं और है ये मेरी कैसी रवानी।

साँसों की डोर पर ये अजब  जीवन के खेल,
उजियारे सुख और अंधियारे दुखों का मेल।

                                                      ( जयश्री वर्मा )

Thursday, March 28, 2013

होली


इस होली पर्व के इंतज़ार में,
इस फागुनी सी हुई बयार में,
नव युवाओं के दिल भाव डोलें,
रह-रह के मन के राज़ खोलें।
जलती होलिका की आग में,
आपसी पुराने राग-द्वेष छोड़ें,
बिखरे से रिश्तों के तार जोड़ें,
सहृदय बन मीठे बोल बोलें।

हर छोटे,बड़े मित्रों का संग,
दहीबड़ा,पापड़,गुझिया,भंग,
आओ अबीर से मुट्ठी भर लें,
चलो टोली को संग कर लें।

पर इस पर्व में हुडदंग न हो,
प्यार,सम्मान बीच जंग न हो,
कालिख,कीचड़,पेंट की जगह,
बस आर्गेनिक अबीर,रंग हों।


रिश्तों की मर्यादा की आस,
तृप्त हो हर सम्मान की प्यास,
गाँव,शहर,वृन्दावन का रास,
ये होली सबके लिए है ख़ास।

बिखरे प्रकृति के हजार रंग,
सरसों,डहेलिया,गुलाब संग,
फागुन ऋतु के ये अजब ढंग,
होली में बसे हर मन उमंग।

                                              ( जयश्री वर्मा )






Saturday, March 23, 2013

न जाने कहाँ

तुम चले गए वहाँ, न जानूं मैं, कैसा,कौन सा सफर,
न जाने कैसी वो दुनिया,कैसे उसके शाम और सहर ?
बस कह दिया-चलता हूँ,कहा सुना सब माफ़ करना,
मैं हाथ पसारे ही रह गया,न कुछ कहना न सुनना। 


छूट गया मैं पीछे ही,तुम्हारी बहुत सी,यादों के सहारे,
रूठना-मनाना,वो अपनी बात रखना,वो बहाने सारे,
वो रंगों भरे दिन और वो अँधेरी,बहुत अपनों सी रातें,
तुम्हारे मेरे बीच,कही-अनकही,अनगिनत सी बातें।

पता नहीं क्यों ऐसा होता है,जब कभी किसी के लिए-
साँसें बेकल हों और मन कहे अब किसके लिए जियें,
कि छटपटाता हूँ मैं,अब तुम्हें कहीं से भी ढूंढ लाने को,
पर जानता हूँ कि,लोग जाते हैं वहां,कभी न आने को।

सत्य है जो भी आया यहाँ,वो इक न इक दिन जाता है,
इसीलिए तो शायद मनुष्य का,उस ईश्वर से नाता है,
कि अब भी सावन आएगा और बगिया भी महकेगी,
बेला और रात रानी भी तो अपने शबाब पे बहकेगी।

कि मेरी वीरान हो चुकी जिंदगी की कहानी भी चलेगी,
हर साल के मौसम में तुम्हारी रिक्तता के साथ ढलेगी,
इस शरीर के लिखे हुए,जीवन कर्म,तो करने ही होंगे,
बिन तुम्हारे,सूनी ही सही,रातों में ख्वाब भरने ही होंगे।
                                                                                            
                                                                                              ( जयश्री वर्मा )

Monday, March 18, 2013

रूमानी हो जाइये



होली के कई रंगों में,रंगों के छंद घोल,
छंदों संग बहक कर,होली गीत गाइए,
छोटा-बड़ा छोड़,अपनत्व बीज रोपकर,
हंसिये-हंसाइये,थोड़े रूमानी हो जाइये।


सुबह-सुबह उठ कर,रंग गुलाल भर कर,
साले घर जाइये,थोड़ा बेईमानी हो जाइये,
बिना किसी झिझक के,सलहज बुलाइये,
गाल गुलाल मल कर,पक्का रंग चढ़ाइए।


गर ससुराल पहुचें तो,जहाँ कहीं छुपी हों,
सालियों को ढूँढ-ढूँढ के,आँगन में लाइए,
पत्नी का डर छोड़,लाल-पीले तेवर भूल,
रंग खूब लगाइये,ससुराल में छा जाइये।


लस्सी में भंग घोल,भंग संग डोल-डोल,
फगुआ की तान पर,थिरक-थिरक गाइये,
गुझिया की मिठास में,राग द्वेष भूलकर,
बस खाइए-खिलाइये,मेहमानी हो जाइये।



मर्यादाओं का रहे ख्याल और रिश्तों का हो मान,
बच्चों का हो स्नेह और बुजुर्गों का रहे सम्मान,
रिश्ते नए बनाइये और साथ पुराने भी निभाइए,
दिल रहें साफ़,रंग हों हाथ और होली मनाइये।                                         

                                                                        ( जयश्री वर्मा )

Wednesday, March 13, 2013

बापू मुझे आने दो


हंसने दो हँसाने दो,नए गीत सार्थक बनाने दो,
सृष्टि की देन हूँ मैं,मुझे जीवन गुनगुनाने दो,
नन्ही सी निर्दोष हूँ,पापा-मम्मी तो बुलाने दो,
बेटी को सहेजो,अपनी पहचान तो बन जाने दो,
बापू मुझे आने दो।

पापा कह बोलूंगी,मम्मी आँचल संग खेलूंगी,
उंगली पकड़ तुम्हारी मैं ठुमक-ठुमक डोलूँगी,
मुझको मत रोको,अरे मुझको भी तो जीने दो,
इस जीवन संगीत में,सुर बनके घुल जाने दो,
बापू मुझे आने दो।

बच्चों संग मैं भी तो स्कूल पढ़ने जाऊँगी,
बड़ी होकर तुम्हारा मैं सम्मान ही बढ़ाऊँगी,
टीचर,पायलट या नेता बन के दिखाऊँगी,
डाक्टर,इंजीनिअर या फिर सेना में जाने दो,
बापू मुझे आने दो।


न रहूंगी मैं तो,राखी त्यौहार का क्या होगा ?
बेटी न होगी तो, बहन शब्द भी कैसे होगा ?
तुम्हारे आँगन की चिड़िया बन गुनगुनाने दो,
रंग -बिरंगे कपड़ों में, मुझे सपने सजाने दो,
बापू मुझे आने दो।

बेटी न होगी तो सोचो,देहरी बारात कैसे आएगी ?
कन्यादान और हल्दी की तो रस्म ही टूट जायेगी,
गर बेटी न हुई तो,घर में कभी बहू भी न आएगी,
दादी-नानी के नाम का मतलब तो आगे बढ़ाने दो,
बापू मुझे आने दो।

बेटी बन जनमूँगी संग रौनक भी तो लाऊंगी,
मीठी-मीठी बातों से तुम्हारी थकान मिटाऊँगी,
कन्या भ्रूण हत्या,ये अपराध खुदसे न होने दो,
अपनी ही रचना को,स्वयं से ही खो न जाने दो,
बापू मुझे आने दो।

                                                     ( जयश्री वर्मा )



Monday, March 4, 2013

पुनर्जन्म

पत्ता-कांपा,टूटा,बिछड़ा,गिरा,उड़ चला कहीं डाल से दूर,
बोला-नियति में साथ अपना इतना ही,मैं हूँ अब मजबूर,
जा रहा हूँ वहां,जहाँ मुझे खुद भी नहीं मंजिल का पता,
न दिशा,न दशा,कुछ भी तो नहीं,तुमको सकता मैं बता।













क्या पता किसी पांव तले आकर,चरमरा के बिखर जाऊं,
क्या पता किसी जलधार के साथ,कहीं बहता चला जाऊं,
क्या पता किसी वनचर की क्षुधा,मिटाने के काम मैं आऊं,
क्या पता किसी पंछी के,नीड़ के लिए,सहेज लिया जाऊं।

क्या पता कि मिट्टी में मिल के मैं अपना वजूद ही मिटा दूँ,
क्या पता कि किसी नन्हे से जीव को मैं बहने से बचा लूँ,
क्या पता कि किसी दावानल में झुलस के भस्म हो जाऊं,
क्या पता किसी कवि के पन्ने की जिन्दा नज़्म बन जाऊँ।

नहीं-नहीं,मेरी याद में न उदास होना,न आंसू बहाना तुम,
मैं पुनर्जन्म को मानता हूँ,बस सच्चे दिल से बुलाना तुम,
कि मेरे इस तरह से जाने को मेरा इक सफ़र ही समझना, 
मेरी याद में,न बेकल होना,न रोना,न मन करना अनमना।

चारों तरफ जब सावन की रिमझिम फुहारें नेह बरसाएंगी,
और धरती पुराना त्याग अपने कलेवर को रंगीन बनाएगी,
कि यकीन मानो जब बहार आएगी फ़िज़ा में फैलेगा सुरूर,
तुम्हारी ही डाल पे कोपल बन के मैं खिलखिलाऊंगा जरूर।
     
                                                     ( जयश्री वर्मा )