Wednesday, August 23, 2017

ऐ वक्त

ऐ वक्त तेरा आना और फिर,चुपके से गुज़र जाना,
आना हमसफ़र बनके और,चोरों सा निकल जाना,
ये वक्त,मेरा वक्त है कह,मैंने ही तुझे अपना माना,
पर ओ दगाबाज़,तू बना न मेरा,निकला तू बेगाना।
पहली किलकारी संग ही मैंने,तुझसे नाता था जोड़ा,
तब जाकर कहीं माँ की तरफ,अपना अस्तित्व मोड़ा,
यूँ अंतरंग होके कोई ऐसे भी,अनजान बनता है भला?
कितनी आसानी से कह दिया,तुमने अब मैं तो चला।

अपना हर लम्हा,हर क्षण,मैंने तेरे ही तो नाम लिखा,
बाल्यावस्था,तरुणाई,यौवन,हर वक्त तेरे साथ दिखा,
मैंने अपनी हर सांस का,हर पल,तुझ संग ही जिया,
तूने मुझे केवल,जन्मतिथि-पुण्यतिथि में दर्ज किया?

क्या मेरा साथ,कुछ भी याद नहीं,तुम बिलकुल भूले?
हंसना,रोना,छीनना,छिपाना,वो आम के बाग़ के झूले,
तितलियाँ पकड़ना,फूलों को गिनना कि कितने खिले,
दोस्तों संग खेल में,कितने जीत-हार के पॉइंट मिले।

दरवाजा खोल फ्रिज का,देखना कि बत्ती कब जली,
मेरी कागज़ की नाव,बहते पानी में,कितनी दूर चली,
कुछ गोपनीय बातें थीं,जो बस,मेरे तुम्हारे बीच रहीं,
कुछ राज़ भरी कहानियाँ,जो हमने किसी से न कहीं।

मेरे पीड़ा के भागीदार,आंसुओं के संग,तुम भी रहे,
प्रिया की खूबियों के,सारे किस्से,तुम संग ही तो कहे,
तुम जानते हो,कब मेरे घर में,संतान का फूल खिला,
और कब मुझे नौकरी,और प्रमोशन का सुख मिला।

फिर कहाँ चूक हुई मुझसे,जो तुमने यूँ साथ है छोड़ा,
मुझे दगा देके इस बेरुखी से,मुझ संग यूँ नाता तोड़ा,
फिर क्यों एहसास कराया,ऐसा,अब वक्त तुम्हारा है,
मैं खुल के खेला यह जान,कि मुझे तो तेरा सहारा है।

मैंने क्या,जमाने ने भरोसा कर,तुझे अपना माना है,
ऐ वक्त,तू तो किसी का भी न बना,सबका बेगाना है,
तू यूँ सदियों से,अपनेपन का,जाल बिछाता आया है,
हर जीव को फंसा इसमें,तुझे,खेल खेलना भाया है।

हम अनजाने में तुझे,अपना समझ धोखा खाते रहे,
तू फिसलता गया हाथ से,हम जन्मदिन मानते रहे,
हर आते त्यौहार को हमने,पूरी शिददत से है जिया,
और अनजाने ही,उम्र के,हर पड़ाव को कम किया।

ऐ वक्त,तू मीठी छुरी से,सबको ही हलाल करता है,
गलती मनुष्य की है,जो तेरे साथ का दम भरता है,
हर किसी का वक्त तो,उसके संग ही,गुज़र जाता है,
तू सबके साथ तो है,पर किसी से,निभा नहीं पाता है।

ऐ वक्त,तेरा चेहरा अपना नहीं,बिल्कुल ही बेगाना है,
मेरा होके भी मेरा न बना,तू एकदम ही अनजाना है,
ऐ वक्त!तेरा आना और,ऐसे यूँ चुपके से गुज़र जाना,
आना जीवन बनके,और मृत्यु बन के निकल जाना।
                                           
                                                                 - जयश्री वर्मा 

10 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 25 अगस्त 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. सादर धन्यवाद आपका यशोदा अग्रवाल जी!

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  2. वाह वाह...क्या बात है !!!!
    लाजवाब ...

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    1. रचना पसन्द करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सुधा जी!

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  3. आपको सूचित करते हुए बड़े हर्ष का अनुभव हो रहा है कि ''लोकतंत्र'' संवाद ब्लॉग 'मंगलवार' ९ जनवरी २०१८ को ब्लॉग जगत के श्रेष्ठ लेखकों की पुरानी रचनाओं के लिंकों का संकलन प्रस्तुत करने जा रहा है। इसका उद्देश्य पूर्णतः निस्वार्थ व नये रचनाकारों का परिचय पुराने रचनाकारों से करवाना ताकि भावी रचनाकारों का मार्गदर्शन हो सके। इस उद्देश्य में आपके सफल योगदान की कामना करता हूँ। इस प्रकार के आयोजन की यह प्रथम कड़ी है ,यह प्रयास आगे भी जारी रहेगा। आप सभी सादर आमंत्रित हैं ! "लोकतंत्र" ब्लॉग आपका हार्दिक स्वागत करता है। आभार "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आपका ध्रुव सिंह जी!

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  4. आपको सूचित करते हुए बड़े हर्ष का अनुभव हो रहा है कि ''लोकतंत्र'' संवाद ब्लॉग 'मंगलवार' ९ जनवरी २०१८ को ब्लॉग जगत के श्रेष्ठ लेखकों की पुरानी रचनाओं के लिंकों का संकलन प्रस्तुत करने जा रहा है। इसका उद्देश्य पूर्णतः निस्वार्थ व नये रचनाकारों का परिचय पुराने रचनाकारों से करवाना ताकि भावी रचनाकारों का मार्गदर्शन हो सके। इस उद्देश्य में आपके सफल योगदान की कामना करता हूँ। इस प्रकार के आयोजन की यह प्रथम कड़ी है ,यह प्रयास आगे भी जारी रहेगा। आप सभी सादर आमंत्रित हैं ! "लोकतंत्र" ब्लॉग आपका हार्दिक स्वागत करता है। आभार "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

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  5. हर आते त्यौहार को हमने,पूरी शिददत से है जिया,
    और अनजाने ही,उम्र के,हर पड़ाव को कम किया।
    ..........बेहतरीन पंक्तियाँ रची हैं जयश्री जी!

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    1. इस प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद संजय भास्कर जी !

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