ये कहना कुछ चाहें,कुछ और ही कह रहे हैं,
आपके ये दो नैना अब,दगाबाज़ हो चले हैं,
तभी तो सबसे नज़रें मिलाने से कतराते हैं,
ये कुछ-कुछ शातिर,और बेईमान हो चले हैं।
के होठों ने शब्दों की,जादूगरी नई सीखी है,
आपकी बातें,कुछ रहस्यमई सी हो चली हैं,
बोल कम हैं,अब मुस्कान से काम ज्यादा है,
मुस्कान भी कुछ अलग अंदाज़ हो चली है।
गुनगुनाने,खिलखिलाने का,नया सा अंदाज़ है,
चूड़ियाँ और पायल भी,जालसाज़ हो चलीं हैं,
खूबसूरतियाँ जैसे,तलाशती हों अपने ही मायने,
ये माथे पर झूलती लट,इक ग़ज़ल हो चली है।
के पलक क्या उठी,ये मौसम बहक सा गया है,
और होंठों पर जैसे,सुर्ख पलाश दहक रहा है,
लौंग का लश्कारा भी तो,हक से दमक रहा है
आप आज के वक्त की,नई पहचान हो चले हैं।
यूँ उठ जाना बीच महफ़िल,चल देना बेख़याल,
के आप जहाँ से गुज़रे,अजब समां बाँध चले हैं,
ज़न्नती फ़रिश्ते भी,नहीं ठहरते हैं,आपके आगे,
आप शायर की,छलकती सी रुबाई हो चले हैं।
के खूबसूर्तियों ने गढ़ी है,शख्सियत ये आपकी,
ये माथे पर झूलती लट,इक ग़ज़ल हो चली है।
के पलक क्या उठी,ये मौसम बहक सा गया है,
और होंठों पर जैसे,सुर्ख पलाश दहक रहा है,
लौंग का लश्कारा भी तो,हक से दमक रहा है
आप आज के वक्त की,नई पहचान हो चले हैं।
यूँ उठ जाना बीच महफ़िल,चल देना बेख़याल,
के आप जहाँ से गुज़रे,अजब समां बाँध चले हैं,
ज़न्नती फ़रिश्ते भी,नहीं ठहरते हैं,आपके आगे,
आप शायर की,छलकती सी रुबाई हो चले हैं।
के खूबसूर्तियों ने गढ़ी है,शख्सियत ये आपकी,
जैसे बात बेला-ख़ुश्बू,चाँद-तारों भरी रात की,
कलम न लिख सकेगी,ऐसा रूप तिलस्मयी सा,
आप इस कवि की,कल्पना से इतर हो चले हैं।
- जयश्री वर्मा
आप इस कवि की,कल्पना से इतर हो चले हैं।
- जयश्री वर्मा