ज़माना सही नहीं है,ज़रा सम्हल के रहो,
पर्दा करो,धीरे बोलो,यूँ न मचल के कहो,
अपनी नज़रों को,जमीन से लपेट के चलो,
बेहतर है,निज परछाइयों को समेट चलो,
कुछ लोग हैं जो के,नज़रों से बींध देते है।
के आवाज ऊँची है,ज़रा अदब से बोलो,
यूँ खिलखिला के नहीं,मुँह दबा के हंसो,
हर किसी से ऐसे,दोस्ताना क्यों रखना है?
तुम्हें मुकर्रर हदों को,पार क्यों करना है?
कुछ लोग हैं जो के,लफ़्ज़ों से चीर देते हैं।
लड़की हो तुम,तो प्यार की चाहत क्यों है?
के ऐसे बातों को,काटने की आदत क्यों है?
और तुम्हें क्यों उड़ान भरनी है,आसमान में?
आख़िर लड़कों की बराबरी,क्यों है ध्यान में?
कुछ लोग हैं,जोके ज़िंदगी ख़ाक बना देते हैं।
निज ख्वाहिशों के पंछी,पिंजड़े में क़ैद रखो,
कपड़ों की तहें ओढ़ो,थोड़ा सा सभ्य दिखो,
पढ़ो-लिखो,समाजिकता से,अदावत क्यों है?
यूँ हक़ों की बात करने की,हिमाकत क्यों है?
कुछ लोग हैं,जोके इंसान हैं हम,नकार देते हैं।
बाप,पति,बेटे की निग़हबानी का क्यों है गम,
यूँ ऊँचे-ऊँचे ख़्वाबों की हकदार नहीं हो तुम,
किसी न किसी की निगरानी में तो रहना होगा,
शरीर से कमजोर हो तो तुम्हें सहना भी होगा,
कुछ लोग हैं,जोके ज़िन्दगी गुनाह कर देते हैं।
- जयश्री वर्मा