मित्रों मेरी यह रचना "दिल्ली प्रेस प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पत्रिका सरिता अप्रैल-प्रथम 2019" में
प्रकाशित हुई है आप भी इसे पढ़ें। -
 कुछ कहिये कि आप,यूँ चुप क्यूँ हैं ?
कुछ कहिये कि आप,यूँ चुप क्यूँ हैं ?
बदले हुए हवाओ के,यूँ रुख़ क्यूँ हैं ?
ऐसा भी क्या यूँ गुमसुम सा हो जाना ?
कि मौसमों का जैसे,रूठ ही जाना ?
के आज हवाओं में,गुनगुनाहट नहीं है ,
प्रकाशित हुई है आप भी इसे पढ़ें। -
 कुछ कहिये कि आप,यूँ चुप क्यूँ हैं ?
कुछ कहिये कि आप,यूँ चुप क्यूँ हैं ?बदले हुए हवाओ के,यूँ रुख़ क्यूँ हैं ?
ऐसा भी क्या यूँ गुमसुम सा हो जाना ?
कि मौसमों का जैसे,रूठ ही जाना ?
के आज हवाओं में,गुनगुनाहट नहीं है ,
फूलों का खो सा गया,निखार कहीं है ,
तितलियाँ भी,सुस्त सी नज़र आती हैं ,
भवरों की अठखेलियां,नहीं भाती है।
तितलियाँ भी,सुस्त सी नज़र आती हैं ,
भवरों की अठखेलियां,नहीं भाती है।
के आपसे ही तो हमारी,ज़न्नत है जुड़ी,
कैसे समझाऊं,दिल में,बेचैनी है बड़ी   ,
यूँ समझिये कि,सूरज में तेज नहीं है ,
धुंध के रुख का,आभास भेज रही हैं। 
कि ये मायूसी,नहीं खिलती है आप पे ,
कि ये मायूसी,नहीं खिलती है आप पे ,
जैसे छाए हैं बादल,रौशनी के नाम पे ,
आपको नहीं पता,ये पल दुःख भरे हैं ,
जैसे खिले न फूल,और मुरझा गिरे हैं।
आपको नहीं पता,ये पल दुःख भरे हैं ,
जैसे खिले न फूल,और मुरझा गिरे हैं।
कि अजी आपको,मुस्कुराना ही होगा ,
इस गम का सबब,तो बताना ही होगा ,
इस गम का सबब,तो बताना ही होगा ,
क्या खता कोई हुई है मुझ दीवाने से ?
या फिर कोई शिकायत है ज़माने से ?  
क्या ठिठक गए हैं रास्ते क़दमों के तले ?
या कि बंधन समाज के पड़ गए हैं गले ? 
कि गुज़र ही जाएंगे,ये मौसमों के झोंके , 
ज़माने से तो,छुपा लूँगा मैं,बाहों में लेके। 
                                                         - जयश्री वर्मा 
