Wednesday, May 13, 2015

काश कि




काश कि इस रात की चादर नीचे झुक जाए,
इतना कि मेरे इन दोनों हाथों से वो टकराए,
तोड़-तोड़ तारों को अपनी चूनर में टांक लूंगी,
चाँद को खींच के मैं इस आँचल में बाँध लूंगी,
चूनर को ओढ़ जब भी पल्लू की ओट देखूंगी,
खूबसूरती से भरे नवीन आयाम मैं रच दूंगी।

काश कि तितलियों का संग मुझे मिल जाए,
वो रंग सारे मिला दूँ तो रंग नया खिल जाए,
उन निराले रंगों से मैं श्रृंगार नवीन कर डालूं,
नव गजरों और फूलों से खुद को मैं भर डालूं,
तब रखूं मैं पग जहाँ भी राह नई सी बन जाए,
प्रेम में डूबे-पगे से मोड़ मीठे कई मिल जाएं।

काश कि हों बादल घनेरे आसमाँ बाहें फैलाए,
तड़ित की चपलता संग इन्द्रधनुष भी मुस्काए,
बावरा हो जाए समां,ये मन हो बहका-बहका,
धरती खिल उठे हो पवन सुर महका-महका,
काश कि ऐसे में कहीं से प्रिय प्यारा आ जाए,
तब स्वप्नों को पंख लगें,पंछी मन चहचहाए।

शब्दों को चुन-चुन के जो गीत नए मैंने बनाए,
पवन से कहूँगी की सुर लहरी बन के छा जाएं,
छा जाएं आसमाँ पे और बादलों में घुलमिल के,
वर्षा की बूंदों संग फिर से धरती को भिगा जाएं,
पर जानती हूँ ऐसा कुछ सम्भव न होगा कभी,
ये कल्पना लोक तो बसे हैं यथार्थ से परे कहीं।

                                                                                  - जयश्री वर्मा


6 comments:

  1. और ऐसे श्रिँगार मेँ जो आप को देख ले.... उसको कौन सम्भालेगा.... सुन्दर मनोभाव व शब्दोँ से सँजोई रचना ..... बधाई

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    1. कविता के शब्दजाल संग बहने का शुक्रिया मोहिन्दर कुमार जी !

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  2. भावों और शब्दों का लाज़वाब संयोजन...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..चित्र भी बहुत सुन्दर है..

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    1. बहुत - बहुत धन्यवाद आपका कैलाश शर्मा जी !

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  3. पर जानती हूँ ऐसा कुछ सम्भव न होगा कभी,
    ये कल्पना लोक तो बसे हैं यथार्थ से परे कहीं।
    कल्पना लोक को भी असल दुनिया बनाई जा सकती है ... सच्चे अर्थ में प्रेम हो, ये श्रृंगार प्रेम के लिए घो तो जीवन ऐसे ही संभव होगा ... अच्छी रचना है ...

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    1. आपने सही कहा दिगम्बर नस्वा जी ! धन्यवाद आपका !

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