Saturday, May 30, 2015

अब दादी नहीं है

बचपन की बातें ,
मीठे से सपनों भरी रातें ,
गर्मी की छुट्टियाँ और गाँव को जाना ,
दादी के गलबहियाँ डाल लाड़ लड़ाना ,
वो आम के बगीचे में ,
सखियों संग उछलना-कूदना ,
वो फ्रॉक मोड़ छोटी-छोटी अमियाँ बटोरना ,
घर लौट सिलबट्टे पे ,
चटनी पिसवाना ,
और रोटी संग खूब चटखारे लेके,खाना,
मेड़ों पे दोनों हाथ फैला ,
हवाई जहाज़ बन दौड़ना ,
नाव बनाने को कागज़ दस जगह से मोड़ना ,
फिर नहर की लहरों संग उसको छोड़ना ,
किसकी नाव आगे है ये होड़ लगाना ,
देवी चबूतरे के पास मोरों को दौड़ाना ,
ट्यूबवेल पे जाके छप-छप नहाना ,
रेलगाड़ी की तरह लम्बी रेल बनाना ,
सबकी फ्रॉक पकड़ के छुक-छुक दौड़ाना,
स्टेशन आने पे झूठे ही-
चाय वाला,पान वाला चिल्लाना ,
शाम को थक हार दादी की गोदी में झूलना ,
किस्से-कहानी बूझना ,
अचंभित हो हंसना और सोचना ,
थपकी संग आँगन के नीम तले सोना ,
रात भर मीठे सपनों में झूलना खोना ,
अबकी जो गर्मी आएगी -
गाँव न मुझे खींचेगा ,
स्नेह की छाँव से कौन अब सींचेगा ,
मन में उठे सवालों का जवाब कौन देगा ,
गले से चिपका कौन लाड-प्यार करेगा ,
अब गाँव का रुख करने को दिल नहीं करता ,
मन की उहापोह से खुद ही है लड़ता ,
गाँव में मेरी अब दादी नहीं है ,
दादी तो अब खुद इक कहानी बनी है।

                                           ( जयश्री वर्मा )


Wednesday, May 13, 2015

काश कि




काश कि इस रात की चादर नीचे झुक जाए,
इतना कि मेरे इन दोनों हाथों से वो टकराए,
तोड़-तोड़ तारों को अपनी चूनर में टांक लूंगी,
चाँद को खींच के मैं इस आँचल में बाँध लूंगी,
चूनर को ओढ़ जब भी पल्लू की ओट देखूंगी,
खूबसूरती से भरे नवीन आयाम मैं रच दूंगी।

काश कि तितलियों का संग मुझे मिल जाए,
वो रंग सारे मिला दूँ तो रंग नया खिल जाए,
उन निराले रंगों से मैं श्रृंगार नवीन कर डालूं,
नव गजरों और फूलों से खुद को मैं भर डालूं,
तब रखूं मैं पग जहाँ भी राह नई सी बन जाए,
प्रेम में डूबे-पगे से मोड़ मीठे कई मिल जाएं।

काश कि हों बादल घनेरे आसमाँ बाहें फैलाए,
तड़ित की चपलता संग इन्द्रधनुष भी मुस्काए,
बावरा हो जाए समां,ये मन हो बहका-बहका,
धरती खिल उठे हो पवन सुर महका-महका,
काश कि ऐसे में कहीं से प्रिय प्यारा आ जाए,
तब स्वप्नों को पंख लगें,पंछी मन चहचहाए।

शब्दों को चुन-चुन के जो गीत नए मैंने बनाए,
पवन से कहूँगी की सुर लहरी बन के छा जाएं,
छा जाएं आसमाँ पे और बादलों में घुलमिल के,
वर्षा की बूंदों संग फिर से धरती को भिगा जाएं,
पर जानती हूँ ऐसा कुछ सम्भव न होगा कभी,
ये कल्पना लोक तो बसे हैं यथार्थ से परे कहीं।

                                                                                  - जयश्री वर्मा


Wednesday, May 6, 2015

क्यों पूछते हैं?

हाथों में हाथ थाम,साथ-साथ तय की लम्बी दूरियाँ,
हर मोड़ पे कसमें-वादे भी,निगाहों ने किये हैं बयाँ,
आपकी मंजिल की राहें,जब बन गयीं मंजिल मेरी,
फिर भला आप मेरा पता,मुझसे ही क्यों पूछते हैं?

आपकी हमराज़ हूँ मैं,ये तो खुद ही कुबूला आपने,
मुस्कान और आंसुओं के राज,खोले हमने साथ में,
आपको दिल देने में मैंने,देर न की इकपल सनम ,
फिर भी मुहब्बत की थाह,मुझसे ही क्यों पूछते हैं?

आपके हर गीत में,जादुई-शब्दों संग रहा साथ मेरा,
सप्तक कोई भी रहा हो,मधुर राग रहा है मेरा खरा,
बेसुरा-सुरीला तो आपके,हाथों रहा है हरदम सनम,
फिर गीतों की झंकार फीकी,मुझसे ही क्यों पूछते हैं?

आपके दिन-रात संग मैं,सोई-जगी हूँ आपके लिए,
आपके ख्वाब,जज़्बात,अहम रहे सदा ही मेरे लिए,
आपने खुद से ही है माना,खुद को अधूरा मेरे बिन,
फिर भला रिश्ते का नाम, मुझसे ही क्यों पूछते हैं?

जमाने की निगाहें तो,हरदम ही रिश्तों को हैं तोलतीं,
हर इक बंधन की डोर के,रेशों को हैं रह-रह खोलतीं,
गर साथ अपना है सच्चा,और अटूट है भी,ऐ साथी मेरे,
फिर लोगों के सवालों के जवाब,मुझसे ही क्यों पूछते हैं?

                                                                                              - जयश्री वर्मा