बिना अश्क के कोई नेत्र कहाँ ?
बिन रंगों के उत्सव भला कैसा,
बिना कहकहे उल्लास कहाँ ?
बिन पिता के पहचान है कैसी,
बिना जननी के है जन्म कहाँ ?
बिन मित्रों के खेल भला कैसा,
बिना क्रीड़ा के बाल्यकाल कहाँ ?
बिन साधना कोई शिक्षा कैसी,
बिना गुरु के है कोई ज्ञान कहाँ ?
बिन भूल का कोई यौवन कैसा,
बिना भ्रमर भला कमल कहाँ ?
बिन आध्यात्म साधू है कैसा,
बिना मानव भला ईश कहाँ ?
बिन साँस कोई जीवन कैसा,
बिना जल के कोई मीन कहाँ ?
बिन तरुवर के हरियाली कैसी,
बिना भाव के कोई हृदय कहाँ ?
बिन पाठक कोई लेखक कैसा,
बिना लेखक भला इतिहास कहाँ ?
बिन विछोह प्रेम-परख है कैसी,
बिना व्याकुलता के तृप्ति कहाँ ?
तुम बिन ओ प्रिय-प्रियतम मेरे,
तो फिर मेरा है अस्तित्व कहाँ ?
( जयश्री वर्मा )