Monday, February 17, 2014

चाँद का धरा प्रेम

आज चाँद देखो तो,कुछ धुंधला हो चला है,
न जाने किन ख्यालों में,वो गुम हो चला है,
अनेक तारों स्वरुप उलझे,ख्यालों के संग,
टिम-टिम चमकते भाव,प्रेमजालों के रंग।

धरती के प्रति उसका है,ये इकतरफा प्यार,
वर्षों से धरा के चक्कर,लगा रहा बार-बार,
पर धरा है अनजानी,चन्द्र के इस प्यार से,
वह तो है अनभिज्ञ,चन्द्रमा के व्यवहार से।

अपनी परिक्रमाओं से,धरा को बस मतलब,
स्वच्छंद सा जीवन जिया,उसने है अब तक,
अपने ही रूप पे आल्हादित सी,सदा रहती है,
असंख्य जीव पोषण में ही,संतुष्ट दिखती है।

पर चन्द्रमा का प्रेम तो,है सर्वथा ही है निश्छल,
धरा को रिझाने की कोशिश,करता है पल-पल,
पन्द्रह दिन घटता है और पन्द्रह दिन बढ़ता है,
प्रेम के सोपान सम्हल कर,धीरे-धीरे चढ़ता है।

दिनभर धूप से जली धरती को,देता है शीतलता,
रात्रि भर की शीतलता और शान्ति सी पवित्रता,
चंदा को नहीं शिकायत,धरती के अनजानेपन से,
उसका प्रेम भले हो इकतरफा,पर है अंतर्मन से।

क्या सूरज भी ये प्रयास मुद्दतों से नहीं है कर रहा,
इस धरा को रिझाने की सदियों से है हामी भर रहा,
आसमान भी तो पुकारता है कि धरा मेरी जान है,
पर चाँद को अपने सच्चे प्रेम पे यकीन अभिमान है

मैं हूँ धरा का हितैषी,वो चाहे अनजान रहे कितना,
हमारा अमर बंधन रहेगा,चाहे बीते वक्त जितना,
वो तो बस धरा को देखेगा और बस उसको चाहेगा,
वो तो धरती का है सदा से और धरती का ही रहेगा।

                                                         ( जयश्री वर्मा )





Tuesday, February 11, 2014

कैसी ये रीत

दिल मेरा और राज़ आपका,कैसी ये रीत है ,
मेरी ही हार इसमें,और आपकी ही जीत है ,
मन के तारों का जुड़ना,इक मीठा संगीत है ,
ये जीवन कि मधुरता,ये मेरे मीत-प्रीत है।
आपके पलकों के भंवर,बहुत कुछ कहते हैं ,
आपके दिल के भेद,इनमें साफ़ दीखते हैं ,
ये इधर-उधर डोलते से,झूठे ही भटकते हैं ,
जानता हूँ मैं,ये मुझे ढूंढ,मुझपे ही ठहरते हैं।

आपकी ये जो मुस्कराहट है,लजीली बड़ी है ,
आपकी ये खिलखिलाहट,हठीली सी बड़ी है ,
लाख रोकूँ खुद को पर ये दिल में उतरती है ,
मेरे ख्यालों,और रातों में सजती संवरती है।

आपकी पायल की रुनझुन,हृदय सहलाती है ,
कहीं पर भी हों आप,आसपास नज़र आती हैं ,
आपके क़दमों संग ये,कितनी ही दूर चली जाएँ ,
बरबस वापस आ,मुझसे नज़दीकियां जताती हैं।

अरे!प्रेम के इन सारे इशारों को,मैं भी समझता हूँ ,
पर मेरे लिए आसान नहीं है,थोड़ा सा झिझकता हूँ ,
आपको कुदरत ने शिकार को,तीर बहुत से दिए हैं ,
ये आसपास से चलते हैं,मेरा दिल घायल किये हैं ।

                                                                                     ( जयश्री वर्मा )

Thursday, February 6, 2014

कब तक

एक और नया दिन,
मैं बैठी हूँ
लाइब्रेरी में
आज मेरी बारी है-
लाइब्रेरी सम्हालने की,
काश !
सोचने की भी
कोई बारी होती
कोई सीमा होती,
दो कूलर और
छः पंखे भी
असमर्थ हैं-
मेरे दग्ध हृदयको
शांत करने के लिए
उफ़ !
कितना गर्म
धधगता हुआ हृदय
कितने लोग बैठे हैं यहाँ
फिर भी
कितनी शान्ति
फिर - मेरे मन में क्यों नहीं ?
कभी - कभी
सोचते - सोचते
मन खाली हो जाता है
एकदम शून्य
सूने आकाश की तरह
पर शांत नहीं
वो खालीपन भी
हलचल युक्त !
तेज गति से
तुम्हारे पीछे
भागता मन !
मैं और तुम्हारी स्मृति बस
स्मृतियों के जाले
और उसमें उलझी मैं
असमर्थ मकड़े की तरह
जो अपने जाल में
खुद ही फंस गया हो !
किसी तरह खुद को
छुड़ा कर भागती हूँ
भागती जाती हूँ
मीलों
इस दुनिया से दूर
बहुत दूर
थक कर चूर हो जाती हूँ
लेकिन हाथ कुछ नहीं आता
केवल मृगतृष्णा
कब तक दौड़ती रहूंगी
न जाने
यूँ ही
तुम्हें पानी समझ कर।

                               ( जयश्री वर्मा )