Monday, December 16, 2013

ये जो भीड़ है

 ये जो भीड़ है -
 न जाने कहाँ से आती है और न जाने कहाँ को जाती है,
सुबह होने के साथ ही सड़कों,चौराहों पे नज़र आती है।

कुछ आदमी,कुछ औरत और कुछ बच्चों की शक्ल में,
कभी ढूँढ रही छाँव है तो कभी दौड़ रही है जलती धूप में।

दो,तीन,चार पहिया वाहनों पर,चढ़ के कहीं को जाती है,
और जल्दी पहुँचने की होड़ में,बस व्याकुलता फैलाती है।

इसकी बहुत सारी आँखों में,घूरता अनजानापन काबिज़ है,
हर कहीं नज़र आती है और ये शोरगुल भी बहुत मचाती है।

भीड़ के रुकते,चलते पैर और सफेद,काले बालों वाले मस्तक, 
कभी हाथों में कैंडिल,कभी बैनर,कभी सार्थक कभी निरर्थक।

ये खूब चीखती चिल्लाती है और अपना विरोध दर्ज कराती है,
कभी हक़ कह,कभी विरोध में,नारेबाजी कर मांगें मनवाती है।

ये झूठी ही हंसी हंसती है-जलसों,हास्य सम्मेलनों,पार्कों में,
होली,दीवाली और रावण के संहार जैसे कई अन्य त्योहारों में।

ये शांत नज़र आती है मंदिर,मस्जिद,चर्च और गुरुद्वारों में,
सिनेमा घरों के अंदर और कुछ नामी बाबाओं के दरबारों में।

ये रोती है दैवीय आपदाओं में,आंसूगैस और पुलिसिया मार पर,
किसी बड़े नेता,अभिनेता की शवयात्रा हो,या शमशान घाट पर।

ये पसीना पोंछती,भीगती,ठिठुरती,मौसमों को कोसती रहती है,
लेकिन घरों के दरवाजों से बाहर ही ये बखूबी फलती फूलती है।   

शायद ये अँधेरे से डरती है इसीलिए रात में वज़ूद खत्म करती है,
और जहां कहीं से भी आई थी,ये चुपचाप वहीं प्रस्थान करती है।
                                                         
                                                                     ( जयश्री वर्मा )

  
  



Monday, December 9, 2013

अंजाना एहसास

जब उस दिन गहरे नयनों की
मैं कुछ भाषा पहचान सकी
बस,तबसे इस जीवन दुःख की
मैं कुछ सार्थकता जान सकी । 

बरबस बरस पड़े नयन घन
उसके जाने के बाद आज -
उसकी आती छवि ने हंसकर
बांहें दीं बरबस गले डाल। 

मैं बही जा रही मौन विवश
भाव - सरिता में लक्ष्यहीन
रह कर सागर के हृदय बीच
मैं सुख सपनों की प्यासी मीन।

चाहूँ कितना,सब कुछ,कह डालूं
जड़ हुए उर,ओंठ,पलक और तन
खुद समझ न पाऊँ मैं क्या चाहूँ
बस तरस गया मेरा यह मन।
                 
                                         ( जयश्री वर्मा )