Tuesday, April 30, 2013

वर्षा की आस

 मित्रों मेरी यह रचना " वर्षा की आस " आज के समाचार पत्र अमर उजाला ( दिनाँक - 4 /7 /2014, दिन- शुक्रवार ) की पत्रिका  " रूपायन " में पृष्ठ संख्या - 10 पर प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़ें -


गरज - गरज कर मेघा बरसे,
तब क्यों प्यासी धरती तरसे,
कुछ नदियों की शान बढ़ेगी,
कुछ नालों की साख चढ़ेगी,

जब खेत तृप्त हों कोंपल उगलें,
हम हरियाली आँखों में भर लें,
फिर धरा इठलाएगी कुछ ऐसे,
नवेली,हरी ओढ़नी ओढ़े हो जैसे,

रंग-बिरंगे फिर फूल खिलेंगे,
फूलों के बदले में फल मिलेंगे,
ख़ुशी-त्योहारों की धूम रहेगी,
मन खुशियों की धार बहेगी,

लक्ष्मी छना-छन घर में आएगी,
मुनिया पढ़ने को स्कूल जाएगी,
क,ख,ग,घ,पढ़-लिखकर के तब,
अफसर,मास्टरनी बन जाएगी,

कंगन,ओढ़नी घरवाली को दूंगा,
और सबके कपड़े सिलवाऊंगा,
मेघा तुम जल भर-भरकर लाओ,
प्यासी धरती की प्यास बुझाओ,

टिप-टिप,टप-टप,छप-छप,छपाक,
बन्ना,कजरी,दादरा,सोहर के राग,
खिलते-इठलाते बगिया और बाग,
बाजरा,मक्का और सरसों का साग,

मेड़ पे दौड़ें,मुन्ना-मुन्नी यूँ खेलें,
बापू मुझको,अपनी गॊद में ले ले,
गुन-गुन करती तब घरवाली जाए,
इन खेतों में जब हरियाली छाए।

                                         ( जयश्री वर्मा )






Saturday, April 27, 2013

तुमसे

तुम आये तो जैसे कि-
ठहरे पानी में,कंकड़ फेंका हो किसी ने,
कि जैसे मन बगिया,खिल उठी हो महकी सी,
कि जैसे फूल खिले हों,रंग-बिरंगे भावों भरे,
कि जैसे खुशबूएं,समां गईं हों साँसों में,
कि जैसे चटकी हो,कली कोई प्रेम भरी अल्हड़,
कि जैसे रौशनियों का इन्द्रधनुष,चमका हो आँखों में,
कि जैसे जेठ के बाद,पहली बरसात हो भीनी-भीनी,
कि जैसे सपनों के पंख लिए,तितलियाँ उड़ती हों यहाँ-वहां,
कि जैसे बहकी-बहकी नदियाँ,छलकी फिर रहीं हों कहीं,
कि जैसे साएं-साएं हवा,कोई सरगम गा रही हो कानों में,
मैं जीवन सा-ठहरा,बहका,महकों की तरंगों में खोया,
फिर क्या हुआ अचानक ? क्यों हुआ ऐसा ?
तुम्हारे जाने से-सिर्फ़ केवल तुम्हारे जाने से,
सब कुछ वही है,लेकिन कुछ नहीं है भाता,
न फूल,न भंवरे,न इन्द्रधनुष,न रौशनी,न गीत,न संगीत,
कि जैसे सब समेट ले गए हो,तुम अपने साथ,
कि जैसे तूफ़ान के बाद का वीराना,पसरा हो हर कहीं,
कि जैसे उजड़ा-उजड़ा,सूना-सूना सा हो गया हो तन-मन,
कि जैसे बेजान मैं और शमशान हो गया हो मेरा जीवन। 
                                                          
                                                                                                    ( जयश्री वर्मा )



Monday, April 22, 2013

मेरा सच्चा मित्र


मेरे आँगन की गोदी में इक,रहता वृक्ष निराला है,
मैंने ये हरा-भरा सा वृक्ष,बड़े ही यत्नों से पाला है,
यह मेरा जीवन सत्य बना है,मैं इसका हूँ हमदम,
ये मेरे सुख-दुःख का है दृष्टा,हर पल और हरदम।

जब कभी मैं थक जाता हूँ,इसकी शरण आ जाता हूँ,
जीवन के जटिल सवालों के,सारे उत्तर पा जाता हूँ,
यह खुली शाखाएं बढ़ा मुझे,अपनी बाहों में बुलाता है,
मधुर हवा और शीतल छाँव में,थपकी दे के सुलता है।

यह आशा है,यह आश्रय है,यह जीवन है कई परिंदों का,
नव घरोंदों,पक्षी-कलरव और नित नए मधुर छंदों का,
मुन्नी,सुहैल,जॉन,परमिंदर,इस पर आकर झूला झूलें,
इतना ऊँचा-इतना ऊँचा कि जैसे आसमान अब छूलें।

मैंने अपने हांथों से जब रोपा,तब यह नन्हा पौधा था,
नित पाला,नित सींचा,ये दोस्ती का अटूट सौदा था,
आज युवा हो और बलिष्ठ हो,यह मेरा बना सहारा है,
प्राणवायु,फलफूल सौंपकर,जैसे उतारता कर्ज़ हमारा है।

तीक्ष्ण धूप,भीषण वर्षा से यह मुझको,देता खूब सुरक्षा है,
दुःख में सुख में,मैं इससे जा लिपटा,मेरा मित्र यह सच्चा है,
आप भी संकल्प उठा अपने हाथ एक वृक्ष अवश्य लगाएं,
इक वृक्ष लगा,हरियाली बढ़ा इस धरती का कर्ज़ चुकाएं।

                                                                                              ( जयश्री वर्मा )


Thursday, April 18, 2013

जीत और हार


जीतो तो ऐसे-
कि जिसमें,
पसीना बहा हो तुम्हारा,
कि तुमने जो देखा था कभी,
वो सपना सच हुआ हो तुम्हारा,
कि जिसमें दंभ न हो तनिक भी,
कि किसी का नुक्सान न छुपा हो,
कि किसी से कुछ छीना न हो तुमने,
कि किसी की आह न दबी हो जिसमें,
बस मेहनत परिलक्षित हुई हो तुम्हारी,
लोग स्वतः ही कह उठें कि-वाह क्या जीत है,
सच्चाई से जीतना ही तो जीत की सच्ची रीत है,


 और-
गर हारो तो ऐसे-
कि जीतने वाले को-
कांटे की टक्कर दी हो तुमने,
जीतने वाले को प्रतिद्वंदिता का,
इक एहसास और ख़ुशी का आभास हो,
और जिसमें कतई हारने की ग्लानि न हो,
कि जिसमें टूट कर न तुम बिखरो अंदर ही अंदर,
दुबारा जूझने की इक हिम्मत सतत बानी रहे मन में,
सदा सम्मान रखो अपने आप का और जीतने वाले का भी,
लोग स्वतः ही चहक उठें कि-वाह जीत से बढ़कर तो ये हार है,

यह कालचक्र है-
हार के बाद जीत,
जीत के बाद हार आती ही है,
जिंदगी बार-बार मौके दोहराती है,
जिंदगी क्या है-इक खेल ही तो है मित्रों,
सुख-दुःख के ही दो पहलू का रूप है मित्रों,
बस खेल की भावना से ही खेलना है जी तोड़ ,
धोखे से भी ढीला न पड़े,यह प्रतिद्वंदता का जोड़,
दिन-रात के आने-जाने के जैसा है,जीत-हार का साथ,
दृढ़ हो खेलो,विश्वास से खेलो,बाकी सब ऊपर वाले के हाथ।
                                         
                                                           ( जयश्री वर्मा )
                                     


 

Monday, April 15, 2013

अनमोल हंसी


खूबसूरती बढ़ाती है ये,जीवन जीना सिखाती है हंसी,
हंसिये,हंसाइये,क्योंकि जीवन सरल,बनाती है हंसी,
ईश्वर ने केवल मानव को ही,बक्शी है यह नियामत,
नियमों में न बांधो,खूब लुटाओ,बांटो,फैलाओ हंसी।

यह अच्छा वर्कआउट है,मानव शरीर के खिंचाव का,
यह सुधारेगी रक्तसंचार,और बचाव है रक्तदाब का,
ये श्वसन की बीमारियों को,आपसे दूर करेगी जनाब,
ये याददाश्त बढ़ाएगी,डिमेंशिया का है अचूक जवाब।

यह मिलनसार भी बनाएगी,दुखद रिश्ते भी मिटाएगी,
और ये मूड दुरुस्त रखकर,डिप्रेशन को दूर भगाएगी,
ये हंसी है संक्रामक,इसे लोगों के बीच खूब फैलाइये,
चुटकुले पढ़िए,सुनिए,सुनाइये और खूब मुस्कुराइये।

पर इस हंसी मज़ाक के बीच,समझदारी न छूटे कभी,
मज़ाक न बने किसी का,और कोई दिल न टूटे कभी,
कभी किसी का मज़ाक उड़ा,गैर-जिम्मेदाराना न हंसे,
किसी के दर्द,परिस्थिति पर,बेवजह ही न फिकरे कसें।

यह तो इक अचूक नुस्खा है,दुश्वारियों से पार पाने का,
जीवन को स्वस्थ बनाने का,और डाक्टर से बचाने का,
इसलिए ख़ुदा के दिए,इस वरदान को जरा पहचानिए,
अपनी मन बगिया में,हंसी के फूलों का महत्व जानिये।

गर जेबों में पैसे हों तो,दुनिया की हर चीज़ ही हमारी है,
पर चेहरे पे,मुस्कान न हो तो,ये कमी तो सिर्फ हमारी  है,
ये तो वो चीज़ है,जो कि मुफ्त में ही,पाई और बांटी जाए,
ये तो इक सर्वश्रेष्ठ गुण है,गर जो आप,इसे पहचान पाएं।

वैसे तो कई विपत्तियों को आप मुस्कुरा के टाल सकते हैं,
गर जो भूल कोई हो जाए तो मुस्कुरा के सुधार सकते हैं,
झुंझलाने के व्यवहार से तो राई का पहाड़ बन ही जाएगा,
इक बार तो उलझे जज़्बात,सुलझा के देखिये मुस्कानों से।

ज़रा अहम् को नज़रअंदाज कर,रूठे हुओं को मनाइये,
और बुझते हुए रिश्तों पे,मुस्कराहट का मल्हम लगाइये, 
हंसो-हँसाओ कि आज ये धरती और आसमाँ,तुम्हारा है,
खूब हंसो-मुस्कुराओ,कि ये स्वस्थ जीवन का,सहारा है।

                                                                                ( जयश्री वर्मा )







  

Monday, April 8, 2013

बेबसी


वक्त के हाथों नचाये गए,हम बेबस से कारिंदे,
मन के बोझिल गाँवों बीच,उड़ते यादों के परिंदे,
तुम्हारी छवि की कुछ,अस्पष्ट सी फुसफुसाहट,
और प्रेमपगी बातों की,सुनाई देती चहचहाहट।

खींच ले गयी बाँध के मुझको मीठी सी यादों की डोर,
अपने गाँव की मिट्टी की,भीनी-भीनी खुशबू की ओर,
जहाँ मेड़ किनारे बैठे,हाथों में हाथ लिए मैं और तुम,
जहाँ हमने सपनों के बीज बोए,योजनाओं में रहे गुम।

कि कल को पल्लवित-पुष्पित होगा,हमारा ये प्यार,
कि कल खुशियों से भरा होगा,हमारा भी घर-संसार,
न जाने इस जीवन की,भाग-दौड़ में कहाँ और कब,
बिछड़े वो सपने,वादे,प्यार,इज़हार,जीत व हार सब।

तुम न जाने कैसी होगी,और मैं हूँ दूर शहर में यहाँ,
क्या करती और क्या कुछ सोचती रहती होगी वहाँ?
क्या पल-पल मेरी आहट का, इंतज़ार होगा तुम्हें?
क्या आज भी वो,कहा सुना सब याद होगा तुम्हें?

मैं तो यहाँ जैसे खो सा ही गया हूँ,भीड़-भरे शहर में,
बस दो वक्त की रोटी की,आपाधापी और घुटन में,
सोचता ही रह गया कि,अब मैं भी इतना कमाऊंगा,
कि तुम्हें वहां से लाकर,अपनी नई दुनिया बसाऊंगा।

दिल में तमन्ना और आँखों में,बस सपने ही रह गए,
वक्त की कठपुतली बन,हम सब अकेले ही सह गए,
न जुटा पाया कभी,तुम्हें अपने साथ लाने के लायक,
न कमा पाया यहाँ,अपनी दुनिया बसाने के लायक।

और अब जब बीत गए हैं,हमारे जीवन के इतने साल,
उम्र थक चली है,सफेद हो चले हैं ये मेरे सिर के बाल,
दिन बीत जाता है,साँझ ढलने पे फिर वही इक ख्याल,
पूछती हो तुम,कब ले जाओगे? बस इक यही सवाल।

मन में छटपटाहट है,कि और नहीं,बस अब लौट चलूँ,
उन्ही यादों के परिंदों की,उड़ानों के साथ,तुम्हारे पास,
तुम संग रोक लूं,इन जीवित बचे हुए,सपनों की सांस,
है मन में तो बस एक नज़र तुम्हें देख पाने की प्यास।


                                                         ( जयश्री वर्मा )

Friday, April 5, 2013

गौरैया री


गौरैया तुम हर फागुन में,न जाने कहाँ से आती हो ?
मेरे घर की भीत-सुराख़ में,अपना नीड़ बनाती हो,
तिनका-तिनका यहाँ-वहाँ से,ढूँढ- ढूँढकर लाती हो,
भविष्य के सपनों में खोई,घरौंदा खूब सजाती हो।

मैंने देखा,तुमने देखा,इक रिश्ता गढ़कर प्यार जताती,
पानी-पीती,दाना-चुगती,फुदक-फुदककर नाच दिखाती,
डरती नहीं हो मुझसे अब तुम,पास मेरे घूमा करती हो,
चीं-चीं करती अपनी भाषा में,तुम बातें बहुत बनाती हो।

पत्तों के झुरमुट से तुम झांक-झांक कर, छुप-छुपकर,
लुकाछिपी मित्रों संग मिलकर,तुम खूब मजे लगाती हो,
नन्हे-नन्हे अंडे सेकर,अपने भावी नन्हों के इंतज़ार में,
धैर्य परीक्षा दिखा-दिखाकर,जिम्मेदारी खूब निभाती हो।

आज तुम्हारे घर में जन्मे,बच्चे नन्हे-नन्हे,प्यारे से,
तुम बस उनकी सेवा में लगकर मन ही मन हर्षाती हो,
दाना-दुनका और कीट-पतंगे चोंच में भर-भर लाती हो,
बच्चों के लालन-पालन में तुम,भोर हुए जुट जाती हो।

सेवा करती नौनिहालों की,जब तक समर्थ न बन जाएँ,
फिर खूब जतन से,खूब लगन से,उड़ना उन्हें सिखाती हो,
बारी-बारी सब उड़ जाते,तब बैठी शान्त ताका करती हो,
मैं भी माँ हूँ,समझ रही हूँ,गौरैया री!तेरे इस सूनेपन को।

क्या-कुछ कहना चाहती हो मुझसे,समझ नहीं मैं पाती हूँ,
फिर कुछ सोच-समझ कर तुम,अपने पथ उड़ जाती हो,
इक रिश्ता तुझसे बना अबूझा,ओ पंछी!तेरे-मेरे प्यार से,
अगले बरस तुम फिर से आ जाना,रहूंगी मैं इंतज़ार में।

                                                                                        ( जयश्री वर्मा )