हारता सा यह मन,प्रिय आज मेरा ,
बन रही हूँ आज मैं कण्ठ-हार तेरा ।
भावातुर इस हृदय की भाव-सरिता ,
ऋतुओं की बनकर मैं आज कविता ।
मुक्ति छोड़ आज मैं बंधने को तत्पर ,
पाने को अनेकों गूढ़ प्रश्नों के उत्तर ।
श्यामल भाल की बिंदी का कौमार्य ,
यौवन-ताप के अछूते भार का सार ।
सृष्टि की गंध संग,अतृप्ति की तृप्ति ,
मौन के गुनगुनाते संगीत की वृष्टि ।
थरथराते कदम रूप की बहती धारा ,
अमर अदृश्य प्रेम की अदभुत कारा ।
कराने को पान यह जीवन रस अमृत ,
लुटाने को सर्वस्व अपना मैं उदधृत ।
चुप-चुप चंचल हो,यह विश्व समीर जब ,
अर्पण हो मेरा सब अस्तित्व तुझे तब ।
पाने को आतुर मैं तुम्हारे हृदय में शरण ,
हे नाथ!मेरा यह जीवन करो तुम वरण ।
जब कल के प्रभात का रवि मुस्कुराएगा ,
देने को मुझमें तब नव,कुछ न रह जाएगा ।
( जयश्री वर्मा )
बन रही हूँ आज मैं कण्ठ-हार तेरा ।
भावातुर इस हृदय की भाव-सरिता ,
ऋतुओं की बनकर मैं आज कविता ।
मुक्ति छोड़ आज मैं बंधने को तत्पर ,
पाने को अनेकों गूढ़ प्रश्नों के उत्तर ।
श्यामल भाल की बिंदी का कौमार्य ,
यौवन-ताप के अछूते भार का सार ।
सृष्टि की गंध संग,अतृप्ति की तृप्ति ,
मौन के गुनगुनाते संगीत की वृष्टि ।
थरथराते कदम रूप की बहती धारा ,
अमर अदृश्य प्रेम की अदभुत कारा ।
कराने को पान यह जीवन रस अमृत ,
लुटाने को सर्वस्व अपना मैं उदधृत ।
चुप-चुप चंचल हो,यह विश्व समीर जब ,
अर्पण हो मेरा सब अस्तित्व तुझे तब ।
पाने को आतुर मैं तुम्हारे हृदय में शरण ,
हे नाथ!मेरा यह जीवन करो तुम वरण ।
जब कल के प्रभात का रवि मुस्कुराएगा ,
देने को मुझमें तब नव,कुछ न रह जाएगा ।
( जयश्री वर्मा )
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, आभार आपका।
ReplyDeleteआपका बहुत - बहुत धन्यवाद राजेंद्र कुमार जी !
Deleteमेरी रचना पर आपकी टिप्पणी के लिए आभार आपका संजय भास्कर जी !
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