Monday, May 24, 2021

मैं सम्पूर्ण सार लिए

जैसेकि ये,निरंतर भागती सी राहें,दिन-रात चलें ,
सीधे या दाएं-बाएं घूम कर,इक दूजे से जा मिलें ,
या कितनी ही ये दिन-रात दौड़ने की चाहत में रहें ,
पर आखिर में कहीं पे तो,पूर्ण हो रुकना पड़ता है।
 
जैसे कि सारी नदियाँ,लहराती-बलखाती सी ,
सारी धरा को बाहों में,समेट के इठलाती सी ,
कितनी ही ये निर्बाध,निरंकुश,कलकल दौड़ें ,
पर आखिर में तो,सागर में मिलना पड़ता है।
 
ये उन्मुक्त,आवारा,स्वच्छंद से बादल कजरारे ,
इक नन्ही सी स्वाति बूँद का,दम्भ मन में धारे ,
जब ये दम्भ की भटकन,बोझिल बन जाती है,
तो आखिर तो,धरती पे बरसना ही पड़ता है।
 
अपने रूप-यौवन गुमान में,इठलाता ये सावन ,
इसका अमरता का भ्रम भी तो,बस है मनभावन,
जब शरद ऋतु आकरके,दरवाजा खटकाती है,
तो आखिर में तो पतझड़ में,बदलना पड़ता है। 

इस उत्सुक जीवन के रंग भी,अजीब निराले हैं ,
उन्मत्त सी बहती लहरों का तो उत्तर,ये किनारे हैं ,
इन राहों का उद्देश्य तो,बस गंतव्य पे पहुंचाना है,
और सावन का मतलब तो नव जीवन जगना है।
 
बादलों का धर्म है,बरस के,हर जीव को बचा ले ,
सब की धड़कनों को,ये बस,सुगमता से चला ले ,
कितनी ही सदियाँ आईं और,आके चली भी गईं ,
अपने जीवन का अर्थ भी,इससे कुछ अलग नहीं।
 
क्यूँ तन-मन की भटकन में,यूँ बहकते फिरते हो ,
क्यों प्रेम की,मृगमरीचिका में,स्वयं ही घिरते हो ,
आ जाओ के मैं खड़ी हूँ,तुम्हारा ही इंतज़ार किये ,
तुम्हारे अन्तर्मन के,प्रश्नों का सम्पूर्ण सार लिए।
 
                                                                 - जयश्री वर्मा