माँ-बाप से चाहत है हर क्षण दुलार की ,
मित्र संग अटूट गलबहियों के हार की ,
हंसी,खेल,लड़कपन,आनंद हो अपार,
बचपन न सहे कभी भी दुःखों का भार,
चाहे बस खुशियों से भरा जीवन संसार
आशा,उम्मीदों से सजा भविष्य का द्वार,
ये ज़िन्दगी है इक स्वप्निल उड़ान,और जुस्तजुएँ हजार हैं।
जवाँ सपनों संग जवाँ सारा जहान है ,
आसमान से ऊँचे दिल के अरमान हैं ,
हँसी दिलकश कोई,अंतर्मन झिंझोड़े ,
मित्र संग अटूट गलबहियों के हार की ,
हंसी,खेल,लड़कपन,आनंद हो अपार,
बचपन न सहे कभी भी दुःखों का भार,
चाहे बस खुशियों से भरा जीवन संसार
आशा,उम्मीदों से सजा भविष्य का द्वार,
ये ज़िन्दगी है इक स्वप्निल उड़ान,और जुस्तजुएँ हजार हैं।
जवाँ सपनों संग जवाँ सारा जहान है ,
आसमान से ऊँचे दिल के अरमान हैं ,
हँसी दिलकश कोई,अंतर्मन झिंझोड़े ,
साथी की तलाश को उमंगें जब मोड़ें,
पीढ़ियाँ सहेजकर,उनको सम्हालना ,
अपना सब भूल उनके ख्वाब पालना,
ये ज़िन्दगी बनी इक ज़िम्मेदारी और जुस्तजुएँ हज़ार हैं।
बीती जवानी और बीते दिन सुनहरे,
ख़ुशी की चाहत थी,घाव मिले गहरे,
तोलता हूँ जब जीवन,कैसा बीता है,
कितना ये भरा और कितना रीता है,
घूमा इन हांथों में रेत सा समय लिए,
प्रयास अथक,पर हाथ खाली से हुए,
ये ज़िन्दगी बनी इक रिक्तता और जुस्तजुएँ हजार हैं।
आँखें हैं मुंद रहीं,धुंधलाते से विचार हैं,
फरेब सब लग रहा,कैसी जीत-हार है,
कैसे हक़ से रहा मेरा-मेरा कहते हुए,
ऐसा क्यों लग रहा मुद्दतें हुईं जिए हुए,
सब यहीं छूट रहा ये मन क्यूँ रंजीदा है,
मेरा क्या था जग में,सवाल ये जिन्दा है,
के ये साँसें हैं गिनी चुनी और सवाल कई हज़ार हैं।
पीढ़ियाँ सहेजकर,उनको सम्हालना ,
अपना सब भूल उनके ख्वाब पालना,
ये ज़िन्दगी बनी इक ज़िम्मेदारी और जुस्तजुएँ हज़ार हैं।
बीती जवानी और बीते दिन सुनहरे,
ख़ुशी की चाहत थी,घाव मिले गहरे,
तोलता हूँ जब जीवन,कैसा बीता है,
कितना ये भरा और कितना रीता है,
घूमा इन हांथों में रेत सा समय लिए,
प्रयास अथक,पर हाथ खाली से हुए,
ये ज़िन्दगी बनी इक रिक्तता और जुस्तजुएँ हजार हैं।
आँखें हैं मुंद रहीं,धुंधलाते से विचार हैं,
फरेब सब लग रहा,कैसी जीत-हार है,
कैसे हक़ से रहा मेरा-मेरा कहते हुए,
ऐसा क्यों लग रहा मुद्दतें हुईं जिए हुए,
सब यहीं छूट रहा ये मन क्यूँ रंजीदा है,
मेरा क्या था जग में,सवाल ये जिन्दा है,
के ये साँसें हैं गिनी चुनी और सवाल कई हज़ार हैं।
कुछ साँसें जो बढ़ जाएं ऐसा कर लूँगा,
जो नाते तोड़े थे स्नेह से फिर भर दूंगा ,
अहम् के आगे मैंने सब बौना माना था,
हठ और गर्व जिया सब आना-जाना था,
फिर इच्छा जागी है,बचपन में जाने की,
खो जो दिया कहीं,वो फिर से पाने की,
पर अब साँसें हैं उखड़ रहीं और जुस्तजुएँ हज़ार हैं।
- जयश्री वर्मा
सादर धन्यवाद आपका यशोदा अग्रवाल जी "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" मेरी कविता "जुस्तजुएँ हज़ार हैं" को स्थान देने के लिए 🙏😊
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (06 जून 2020) को 'पर्यावरण बचाइए, बचे रहेंगे आप' (चर्चा अंक 3724) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
सादर धन्यवाद आपका रविन्द्र सिंह यादव जी 'पर्यावरण बचाइए, बचे रहेंगे आप' (चर्चा अंक 3724) में मेरी कविता "जुस्तजुएँ हज़ार हैं" को स्थान देने के लिए 🙏😊
Deleteअब साँसें हैं उखड़ रहीं और जुस्तजुएँ हज़ार हैं। और इन्हीं जुस्तजुओं में हम घिरे हुए हैं... बहुत ही उम्दा कविता जयश्री जी
ReplyDeleteसादर धन्यवाद आपका अलकनंदा सिंह जी ! 🙏😊
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDelete🙏😊
Deleteबहुत-बहुत धन्यवाद आपका हिंदी गुरु जी ! 🙏😊
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