Monday, May 26, 2014

क्या इसी तरह से

सामाजिक रस्मों के साथ अपना बना कर,
बाबुल के आँगन से अपने आँगन में लाकर,
उसकी पलकों के ख़्वाबों में रंग बसा कर, 
संग साँसों का रिश्ता जोड़ संगिनी बता कर,
अपने किये वादों से क्यूँ साफ़ मुकर जाते हैं,
क्या इसी तरह से महिला दिवस मनाते हैं ?



गैरों से तुलना और बात-बात पर चीखना,
जरा-जरा सी बात पर दुत्कारना-झींखना,
पूरे घर का काम करा यूँ निकम्मा बताना,
तीखी बातों से ज़लील करना और सताना,
खुशियों की जगह दुःख के आँसू रुलाते हैं,
क्या इसी तरह से महिला दिवस मनाते हैं ?



तुम्हें सर्वस्व मान माथे सिन्दूर लगाती है,
तुम्हारे नाम की पाँव में बिछिया सजाती है,
बेटी को जन्मने पर क्यूँ दोषी ऐसे ठहराना,
कमजोर शरीर उसपर तीखे तेवर दिखाना,
बात-बात में छोड़ने की धमकियाँ सुनाते हैं,
क्या इसी तरह से महिला दिवस मनाते हैं ?


धन की अतृप्त चाह में मानवता बलि चढ़ाना, 
मायके से पैसे लाने को जोर देना और सताना,
सहचरी के माँ,पिता,भाई को डराना-धमकाना,
अपना बनाकर गैरों से बद्तर जीवन बनाना,
धन और पुनर्विवाह के लिए आग में जलाते हैं,
क्या इसी तरह से महिला दिवस मनाते हैं ?


आखिर कहो तो जरा उसका गुनाह क्या है ?
क्या अपराध है ये जो तुमसे किया ब्याह है ?
कितने व्रत उपवासों के बाद पाया था तुम्हें,
क्या इसी गुनाह की ऐसी सजा मिलेगी उसे,
जो जीवनपर्यंत सहेज रही उसे ही ठुकराते हैं,
क्या इसी तरह से महिला दिवस मनाते हैं ?

                                            ( जयश्री वर्मा )










Monday, May 19, 2014

प्रेम और जीवन

प्यार अनूठा एहसास है,बड़ा ही प्यारा,बहुत ही सुंदर ,
यह रहता हर किसी की,दिल की गहराइयों के अंदर ।

धर्म-जात की ऊंची-ऊंची दीवारें,न साध सकीं इसको ,
किसी भी देश-जहान की सीमाएं,न बाँध सकीं इसको।

यह निश्छल,निर्बाध,पवित्र बहती हुई सरिता सा है ,
यह ओस बूँद संग खिली हुई,मासूम कलिका सा है ।

यह सुखद स्वप्न रात्रि और भावों से भरा मेला सा है ,
यह शीतल दिन और आनंदित शाम की बेला सा है।

यह जेठ की अगन में,शीतल बयार के झोंके सरीखा ,
यह पूस की ठिठुरती ठंडक में,गुनगुनी धुप के जैसा।

प्रेम बंधन वो है,जो सभी रिश्तों को,कस के रखता है ,
गर संग हो मीत जीवन सुख बगिया सा खिलता है।

इसने अमीरी-गरीबी,रंग-रूप,वर्ण कोई भेद न जाना ,
इस राह की कैसी भी दुर्गम कठिनाइयों को न माना।

यह ईश्वर-अंश है,सभी जीवों में,सामान ही पलता है ,
जिसकी जैसी सोच के सांचे,ये उसी रूप में ढलता है।

इस भाव बिन तो सबका जीवन,जैसे गरल बन जाए ,
मानव हृदय में जैसे मानवता और सरलता मर जाए।

                                                           ( जयश्री वर्मा )








Saturday, May 10, 2014

पेंटिंग






मित्रों मेरे द्वारा बनाई गई यह पेंटिंग आज के समाचार पत्र NBT नवभारत टाइम्स ( दिनॉंक -10 /5 /2014 )के नई दिल्ली /लखनऊ संस्करण में पेज नंबर 13 पर छपी है। आप भी देखें।




                                                                                                   -  जयश्री वर्मा