Tuesday, April 29, 2014

चलो माफ़ किया

जानते हो तुम ? कि जिस दिन तुम छोड़ गए थे,
मेरे प्यारे सुनहरे से स्वप्न,मुझसे ही रूठ गए थे,
कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा मैंने तुम्हें,सब ओर यहाँ-वहाँ,
कैसे-कैसे लांछन नहीं सहे मैंने,सबसे जहाँ-तहाँ।

देहरी कि हर आहट पे,तुम्हारे आने की थी ख्वाहिश,
तुम्हारे न दिखने पर,आँखों से बेचारगी की बारिश,
तुम क्या गए रातों की नींद,दिन की दुनिया ही रूठी, 
तुम्हारी परित्यक्ता बन,मानो मेरी किस्मत ही फूटी।

तुम नहीं समझोगे मेरी यह पीड़ादाई व्यथा क्या है,
रात-दिन सुलगते रहने की अधूरी सी कथा क्या है,
कैसी पीड़ा उठती थी जब तुम्हारी याद सताती थी,
बिन बात के कहीं भी-कभी भी रुलाई आ जाती थी। 

अब आए हो जब वक्त ने,तन पे झुर्रियां बना दी हैं,
कुछ भी न सुहाने की,अजीब आदत सी लगा दी है,
अब नहीं है कोई शिकवा,न कोई शिकायत तुमसे,
देखो जरा अब मेरी आँखें भी,नहीं भीगी हैं नमीं से।

पर चलो इस बंजर मन में,कहीं कोई कोंपल उगी है,
तुम्हें देख तुम्हारी सुनने की,इक आस सी जगी है,
आज सामने हो तुम,निरीह दशा,दृष्टि याचना संग,
धोखा देकर मुझे,तुमने भी,सहे हैं जैसे वक्त के ढंग ।

चलो अब मैंने माफ़ किया तुम्हें तमाम गल्तियों पर,
संग काट लेंगे जो रह गई है मेरी-तुम्हारी जीवन डगर,
थके से हो तुम शायद,मन-ग्लानियों ने झुलसाया है,
रह लो छाँव तले,जब तक कि तुम संग मेरा साया है।

                                                                       ( जयश्री वर्मा )

                                                                       





Wednesday, April 23, 2014

लकीर और वज़ूद

वक्त के साथ -
संसार में तो -
चला आया मैं,
क्यों आया ?किस लिए आया ?
सवाल - जवाबों के साथ,और,
समाज की खींची लकीरों के साथ,
सामंजस्य बिठा कर बड़ा हुआ।
कुछ - कुछ समझा उन लकीरों को,
कभी ठीक तो कभी,
उबाऊ सा लगा -
चलना उन खींची हुई लीकों पर !
लीक बदलकर मैंने -
नई लकीर खींची,अपने लिए,
कुछ ने सराहा,
कुछ ने विरोध किया !
मैंने ये जाना -
लीक से हट कर नई लकीर खींचने वाले,
सफल लोग कहलाते हैं - पथ प्रदर्शक !
और जो -
उन नई लकीरों से भी आगे -
कोई नई लकीर खींच लें जाएं -
वो कहलाते हैं -
युग दृष्टा,अनुकरणीय,पूजनीय !
कोशिश कर रहा हूँ,
मैं कौन सी लकीर खींच कर,
किस पर,
कहाँ तक चल सकूंगा !
इसी कोशिश में
मैं लकीरें -
खींच और मिटा रहा हूँ,
अपना वजूद बना रहा हूँ।

                                         ( जयश्री वर्मा )


 

Thursday, April 10, 2014

बंधु ! सब समान हैं


ये चेहरे अलग-अलग से हैंं दिखते,
पर अपने तो इनमें कोई न लगते,
ये मोदी,राहुल,माया,केजरीवाल हैं,
ये पार्टियां वादों की घालमघाल हैं,
वो बोलें कि हम यह सब कर देंगे,
ये कहें नहीं हम ही अब सत्ता लेंगे,
इसको भी देखा और उसको जाना,
बंधु!सब सामान हैं,सब सामान हैं।


पुरानी पार्टियां तो हनक में रहतीं,
नवजात पार्टियां झाँक के कहतीं,
हम ही हैं इस भारत के कर्णधार,
अब हम करेंगे देश का बेड़ा पार,
भले राजनीति में कुछ भी न जानें,
पर पूरे देश उद्धार को सीना तानें,
इस कुर्सी वजूद की हाथा-पाई में,
बंधु!सब समान हैं,सब समान हैं। 

बातें सबकी बस चिकनी-चुपड़ी,
कितनी ही बार तो हमने पकड़ीं,
कई घपले-घोटालों में ये फँसते,
ठेंगा जनता को दिखाकर हँसते,
ये कुर्सी हथियाते ही देश को भूलें,
ये सत्ता-सुख के मधुर झूले झूलें,
गर अंदर से इनको झाँक के देखो,
बंधु!सब समान हैं,सब समान हैं।

इक पार्टी से तो जनता अब डरती,
दूजी सब संवारने की हामी भरती,
कुछ गठबंधन की गाँठ से बंधी हैं,
सबमें गामा-कुश्ती सी ठनी हुई है,
वोट हाथ में लेकर असमंजस में,
ये जनता बेचारी अनमनी खड़ी है,
ये झूठा है या वो नेता सच्चा था ? 
बंधु!सब समान हैं,सब समान हैं।

पर तुम अपना अधिकार न खोना,
बाद पार्टियों का फिर रोना न रोना,
जाना जरूर पोलिंग बूथ को जाना,
मतदान है हक़ ताल ठोंक जताना,
वोट है नागरिक होने का अधिकार,
आगे कौन जीता और किसकी हार,
हम हों जागरूक तो यह देश बचेगा,  
वर्ना बंधु!सब समान हैं,सब समान हैं।

पर यह कटु सत्य हर कोई ही जानें,
भ्रष्टाचार,महंगाई की महिमा मानें,
जनता ही पिसती और मरती रहती,
नेताओं को कोस-कोस के वो कहती,
तुम्हारा वादा और दावा कहाँ गया ?
देश में क्या होना था क्या हो गया ?
कोई नहीं इस देश,जनता का मीत,
बंधु!ये सब समान हैं,सब समान हैं।

                                                  - जयश्री वर्मा