Thursday, February 14, 2013

तू और मैं



तू और मैं,
क्या हैंऔर कौन हैं ?
कब से हैं ? कब तक हैं ?
प्रश्न से उत्तर तक या,
उत्तर के प्रश्न तक ?

आसमान से धरती,और ,
धरती के कण- कण में,
निर्जीव में या स्पंदन में,
सब में हैं और हर में हैं।

प्रश्न है कैसे ?
उत्तर है ऐसे -

तू सागर,मैं लहरें,
तू सूरज,मैं किरणें,
तू बादल,मैं पानी,
यही सृष्टि की कहानी।

तू पर्वत,मैं सरिता,
तू अंतर,मैं कविता,
तू लेख,मैं पाती,
तू दीपक,मैं बाती।

तू शिल्पी,मैं कल्पना,
तू रंग,मैं अल्पना,
तू जीवन,मैं हलचल,
हम संग-संग हर पल।

तू राग,मैं तान,
तू शब्द,मैं गान,
तू लता,मैं फूल,
तू जीवन,मैं भूल।

तू पारखी,मैं कंचन,
तू आँख,मैं अंजन,
तू हाथ,मैं कंगन,
तू रिश्ता,मैं बंधन।

तू बादल,मैं दामिनी,
तू काम,मैं कामिनी,
तू जीवन,मैं धड़कन,
तू अंजुली,मैं अर्पण।

तू नेत्र,मैं दृष्टि,
तू मनु,मैं सृष्टि,
तू भ्रमर,मैं शतदल,
तू प्रश्न और मैं हल।

                             ( जयश्री वर्मा )                     

Friday, February 8, 2013

इंतज़ार और सपने

               

माँ!
इंतज़ार ही, तुम्हारी किस्मत क्यों है ?
कभी पापा का इंतज़ार,
कभी स्कूल से हमारे लौटने का इंतज़ार,
क्यों मेरी एक झलक के लिए,
बैचेन रहती हो ?
मैं तुम्हारे आँचल की गुड़िया थी छोटी सी,
तुमने हर पल मुझे पाला रीझ-रीझ,
छोटी थी तब,
मेरे बड़े होने के सपने,
बड़ी हुई तब -
पराया बनाने के सपने,
पराया कर दिया तब,
मेरे सुखी होने के सपने,
अब जब मैं सुखी हूँ तब,
रक्षाबंधन पर,
मेरे मायके आने के सपने,
माँ तुम्हारा जीवन तो जैसे,
इंतज़ार और सपनों का पर्याय हो गया।
सारे सपने बस हमारे के लिए ?
कभी मेरे सुख के लिए सपने,
कभी भैया की पढ़ाई और नौकरी के सपने,
कभी पापा के प्रमोशन और स्वास्थ्य के सपने,
तुम्हें कभी तृप्त,कभी शांत नहीं देखा माँ,
तुम्हारी बढ़ रही झुर्रियों और,
घट रही आँखों की रौशनी के बाद भी,
इतना प्रेम,इतनी ममता,इतनी पूजा,
सिर्फ हमारे लिए ?
अब समझ रही हूँ सार,
माँ और माँ के सपनों का संसार,
अब,जब -
मैं भी बन चुकी हूँ माँ,
मेरी निगाह भी लगी रहती है,
घर की चौखट पर,
मैं भी रास्ता देखती रहती हूँ सबका,
मेरा जीवन भी बन गया है,
पर्याय -
इंतज़ार और सपनों का।

                                        ( जयश्री वर्मा )





Tuesday, February 5, 2013

रंग भरे सपने


मित्रों मेरी यह रचना " रंग भरे सपने " समाचार पत्र " अमर उजाला " की " रूपायन "में आज प्रकाशित हुई है, आप भी इसे पढ़ें !

तितली के पंखों सरीखे,रंग भरे सपने हों ,
नहीं किसी गैर के,बस सिर्फ मेरे अपने हों।

मेरे सपनों की नैया की पतवार मेरे हाथ हो,
मन चाहे कहीं चलूँ,इस पार या उस पार को,
कोई न रोके और अब कोई भी न टोके मुझे,
मेरी सोच की लहरों से भरा सागर अथाह हो।

कब कहाँ रुकोगे ?अब कहाँ को जाते हो ?
कोई भी न बूझे मुझसे,कोई न सवाल हो ,
बाँहों को फैलाकर,अंजुली भर-भर ले लूं,
बूँद-बूँद पीलूं मैं ऐसी खुशियाँ अपार हों।

मेरी ही दुनिया हो और मेरा ही सागर हो,
इन्द्रधनुष के रंगों से भरी मेरी गागर हो,
पंछी बन उड़ चलूँ मैं,यहाँ-वहां जहाँ-तहाँ,
मेरे संसार में प्यार की,गलियां हज़ार हों।

शब्दों को बांध-बांध,मैं प्रेम गीत बुन डालूं,
जोड़-जोड़ रिश्तों को,आपस में सिल डालूं,
इंसानी दुनिया में,जहाँ मानवी ही नाते हों,
नफ़रत की फसल न हो,सौहार्द की बातें हों।

तितली के पंखों सरीखे,रंग भरे सपने हों,
नहीं किसी गैर के,बस सिर्फ मेरे अपने हों।

                                                         (जयश्री वर्मा )